स्कूल के दिन भी क्या दिन होते हैं और व्यक्ति को जीवन भर उनकी स्मृतियाँ अपनी ओर खींचती रहती हैं|
हिंदी फ़िल्म उद्योग में जमशेदपुर वासियों की ओर से बनाई गई यह फ़िल्म कम से कम दस साल पुरानी है लेकिन प्रदर्शित अब 2024 में Zee5 पर हो पाई है| यह उस समय बननी शुरू हुयी होगी जब जॉन अब्राहम एक निर्माता के तौर पर विकी डोनर से अपनी पारी की शुरुआत कर चुके थे|
इम्तियाज़ अली के भाई साजिद अली, जो लैला मजनूँ के आधुनिक संस्करण के पुनः प्रदर्शित किये जाने से प्राप्त सफलता से चर्चित हो रहे हैं, इस फ़िल्म के निर्देशक हैं और यही उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म रही होगी| संजना सांघी इसमें लगभग रॉक स्टार के समय की उम्र के आसपास की दिखाई देती हैं|
जॉन अब्राहम चूंकि इसके एक निर्माता थे सो फ़िल्म की फेस वेल्यू बढाने के लिए उनके लिए भी एक चरित्र गढ़ा गया है, उनके चरित्र के बिना भी फ़िल्म ऐसी ही रहती और अब उनकी उपस्थिति के बावजूद भी फ़िल्म सिनेमाघरों में तो चलनी वाली नहीं थी| स्कूल की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्में चाहे प्रकाश झा की हिप हिप हुर्रे हो या नागेश कुकनूर की रॉकफोर्ड हो या सोनम नायर की गिप्पी हो, इन्हें सराहना टीवी या ओटीटी के माध्यम से ही मिल पाती है|
साजिद अली की वो भी दिन थे भी घर बैठे देखने की फ़िल्म है| स्कूल के दिनों को स्मृतियों में खो जाने में यह दर्शक की भरपूर सहायता करती है और दर्शक के लिए रोचकता बनाए रखती है| किशोर अभिनेताओं की टोली अपना काम बखूबी करती जाती है|
फ़िल्म में किशोरावस्था का एक वृहद संसार बिखरा पड़ा है|
किशोर अवस्था की दोस्ती, विपरीत जेंडर के प्रति आकर्षण, स्कूल की शरारतें, स्कूल के बाहर की गई शरारर्तों के दुष्परिणाम, परिणाम न सोच पाने के कारण की गयी बड़ी गलतियां जो वयस्कों के लिए अपराध की श्रेणी में आ जाती हैं पर किशोरों को उनकी वय का लाभ मिल जाने से वे सस्ते में छोट जाते हैं| भीड़ में अपना दिमाग न लगा कर भेड़ की तरह नकलची व्यवहार करना| अपने प्रेम आकर्षण के कारण अभी तक गहरी रहती आई मित्रता में दरार पड़ना| मित्र की सफलता से ईर्ष्या का पनपना|
बहिर्मुखी किशोर द्वारा अंतर्मुखी मित्र को और उसकी भावनाओं को सही भाव न देना और हमेशा यही भाव रखना कि यह तो सदा ही मेरे साथ या मेरे पीछे चलता रहेगा|
जिसके प्रति आकर्षण है, उससे सीधे न कह पाने के कारण उसके मित्र से नजदीकी बढाने ताकि उनके टार्गेट के मन में उनके प्रति उत्सुकता जगे आदि इत्त्यादि किशोरावस्था के मनोवैज्ञानिक पहलू फ़िल्म रोचक अंदाज़ में दिखाती है| फ़िल्म जब तक चलती है दर्शक इस किशोर संसार में उत्सुकता से रमा रहता है|
बस अंत में एक रहस्य रचने के कारण निर्देशक जी, फिल्म को नीचे खींच लेते हैं और जैसा स्कूल के आज के विधार्थी महसूस करते हैं , ठगा हुआ सा, वैसा ही दर्शक भी सोचते हैं कि इस कोण की क्या जरुरत थी?
रोहित सर्राफ, आदर्श गौरव और संजना सांघी की तिकड़ी ने अच्छे अभिनय से मोर्चा संभाला है उनमें भी एक अंतर्मुखी लड़के की भूमिका में आदर्श गौरव ने अपने चरित्र के कई रंग बखूबी प्रस्तुत किये हैं|
संगीत साधारण ही है और यादों में जगह नहीं बना पाता अन्यथा ऐसी उम्र पर बनी फ़िल्म का संगीत इसे और ज्यादा आकर्षक फ़िल्म बना सकता था|
हाई स्कूल से हायर सेकेंडरी स्कूल के दिनों का आनंद जीवन में पुनः उठाने के लिए फ़िल्म दर्शनीय है| फ़िल्म को स्तरीय प्रोडक्शन वेल्यूज के साथ बनाया गया है| ऐसा कहीं नहीं लगता कि स्कूल में फ़िल्म सेट है तो सस्ते में काम चला लो|
…[राकेश]
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