“भारत गाँवों में बसता है, अगर गाँव नष्ट होते हैं तो भारत भी नष्ट हो जायेगा|

इंसान का जन्म जंगल में रहने के लिए नहीं हुआ बल्कि समाज में रहने के लिए हुआ है|

एक आदर्श समाज की आधारभूत ईकाई के रूप में हम एक ऐसे गाँव की कल्पना कर सकते हैं जो कि अपने आप में तो स्व-निर्भरता से परिपूर्ण हो, पर जहां लोग पारस्परिक निर्भरता की डोर से बंधे हुए हों| इस तरह का विचार पूरे संसार में फैले मानवों के बीच एक संबंध कायम करने की तस्वीर प्रस्तुत करता है|

ऐसा कुछ भी शहरों को उत्पादित करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए जो कि हमारे गाँव उत्पादित कर सकते हों|

स्वतंत्रता बिल्कुल नीचे के पायदान से आरम्भ होनी चाहिए|

और इसीलिए हरेक गाँव को स्व:निर्भर होना ही चाहिए और इसके पास अपने सभी मामले स्वंय ही सुलझाने की क्षमता होनी चाहिए|

गांवों की ओर लौटना ही एकमात्र रास्ता दिखाई देता है|

मेरा आदर्श गाँव मेरी कल्पना में वास करता है|

एक ग्रामीण को ऐसे जीवन व्यतीत नहीं करना चाहिए जैसे किसी मलिन अँधेरे कमरे में कोई जानवर रहता है|

मेरे आदर्श गाँव में मलेरिया, हैजा और चेचक जैसी बीमारियों के लिए कोई जगह नहीं होगी| वहाँ कोई भी सुस्ती, काहिली से घिरा और ऐश्वर्य भोगने वाला जीवन नहीं जियेगा|

मेरा स्पष्ट विचार है कि यदि भारत को सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त करनी है और भारत के माध्यम से पूरे संसार को सच्ची स्वतंत्रता का स्वाद चखना है तो हमें गाँवों में झोंपडों में ही रहना होगा न कि महलों में|

गाँव की पंचायत स्थानीय सरकार चलाएगी| और इनके पास पूर्ण अधिकार होंगे| पंचायत के पास जितने ज्यादा अधिकार होंगे उतना लोगों के लिए अच्छा होगा|

पंचायतों का दायित्व होगा कि वे ईमानदारी कायम करें और उधोगों की स्थापना करें|

पंचायत का कर्तव्य होगा कि वह ग्रामीणों को सिखाये कि वे विवादों से दूर रहें और उन्हें स्थानीय स्तर पर ही सुलझा लें|

यदि हमने सच्चे रूप में पंचायती राज की स्थापना कर दी तो हम देखेंगें कि एक सच्चा लोकतंत्र स्थापित होगा और जहां पर कि सबसे नीची पायदान पर खड़ा भारतीय भी ऊँचे स्थानों पर बैठे शासकों के समां बर्ताव और अधिकार पायेगा|

मेरे आदर्श गाँव में परम्परागत तरीके से स्वच्छता के ऊँचे मानदंड स्थापित होंगे जहां मानव और पशु जनित कुछ भी ऐसी सामग्री व्यर्थ नहीं फेंकी जायेगी जो कि वातावरण को गंदा करे|

पांच मील के घेरे के अंतर्गत उपलब्ध सामग्री से ही ऐसे घर बनाए जायेंगें जो कि प्राकृतिक रूप से ही हवा और रोशनी से भरपूर हों| इन घरों के प्रांगणों में इतनी जगह होगी कि ग्रामीण वहाँ अपने उपयोग के लिए सब्जियां उगा सकें और अपने पशु रख सकें|

गावों की गालियाँ साफ़ सुथरी और धूल से मुक्त होंगी|  हर गाँव में पर्याप्त मात्रा में कुंएं होंगे जिन तक हर गांववासी की पहुँच होगी|

सभी ग्रामीण बिना किसी भेदभाव और भय के पूजा अर्चना कर सकें ऐसे पूजा स्थल होंगें| सभी लोगों के उठने बैठने के लिए एक सार्वजनिक स्थान होगा| पशुओं के चारा चरने के लिए मैदान होंगे| सहकारी डेरी होगी| प्राथमिक और सेकेंडरी स्कूल होंगे जहां व्यावहारिक क्राफ्ट्स और ग्राम-उधोगों की पढ़ाई मुख्य होगी| गाँव की अपनी एक पंचायत होगी जो इसके सभी मामले सुलझाएगी| हरेक गानव अपने उपयोग के लिए दूध, अनाज, सब्जियों, फलों और खाड़ी एवं सूती वस्त्रों का उत्पादन करेगा|

सबको इस बात में गर्व महसूस करना चाहिए कि वे कहीं भी और कभी भी उन उपलध वस्तुओं का प्रयोग करते है जो गाँवों में निर्मित की गयी हैं| अगर ठीक ढंग से प्रबंधन किया जाए तो गाँव हमारी जरुरत की सभी वस्तुएं हमें बना कर दे सकते हैं| अगर हम एक बार गानव को अपने दिल और दिमाग में स्थान दे देंगें तो हम पश्चिम का अंधा अनुकरण नहीं करेंगें और मशीनी औधोगीकरण की ओर अंधे बन कर नहीं भागेंगें|”

नोट : गांधी जी की प्रेरणा से वर्धा में All India Village Industries Association (AIVIA) की स्थापना हुयी और जिसके वे अध्यक्ष थे और उन्होंने प्रसिद्द अर्थशास्त्री व अब तक अपने निकट सहयोगी बन चुके प्रोफ़ेसर जे.सी. कुमाराप्पा को इस संस्था का सचिव बनाया| AIVIA ने कालांतर में विज्ञान एवं तकनीक को ग्रामीण विकास के कार्य से जोड़ा और उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त कीं| बहुत से लोग यह समझते हैं कि गांधी जी तकनीक, मशीन और आधुनिक विकास के विरोधी थे, उन्हें 1930 से 1948 तक ग्रामीण विकास के क्षेत्र में किये गए गांधी जी के कार्यों के बारे में जानना चाहिए| AIVIA ने गांधी जी के बाद भी बहुत से उल्लेखनीय काम किये|

गांधीजी ने 1934 में लिखा था, ‘AIVIA का केंद्रीय बोर्ड प्रशासन का बोर्ड नहीं होगा, बल्कि पूरे भारत के लिए मार्गदर्शन देने वाला एक निगरानी टॉवर होगा। हम प्रशासन के केंद्रीकरण से बचना चाहते हैं, हम विचार, धारणाओं और वैज्ञानिक ज्ञान का केंद्रीकरण चाहते हैं।

AIVIA के माध्यम से कुमारप्पा ने दिखाया कि महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में तैयार किया गया रचनात्मक कार्यक्रम, अगर पूरी तरह से लागू किया जाए, तो वह आम आदमी को बहुत मूल्यवान दे सकता है। रचनात्मक कार्यक्रम एक ऐसे मानव समाज की ओर ले जाने में सक्षम था जिसमें न्याय और अहिंसा के मूल्य स्पष्ट रूप से मौजूद थे। ग्रामोद्योग आंदोलन एक वांछनीय सामाजिक आदर्श के लिए खड़ा था। यह विकेंद्रीकरण, आत्मनिर्भरता और स्थायी शांति के अर्थशास्त्र का अवतार बन गया था।

प्रोफ़ेसर कुमारप्पा को इस बात की स्पष्ट समझ थी कि गांधी जी ग्रामीण उत्थान के लिए क्या करना चाहते थे? गांधी जी की सोहबत में प्रो.कुमारप्पा को कई मर्तबा अंगरेजी सरकार ने जेल में रखा|

1946 में उन्होंने ग्रामीण उत्थान के लिए एक विस्तृत योजना तैयार की। इस योजना के मूल सिद्धांत थे :

आत्मनिर्भरता, खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता और मानव शक्ति के विशाल संसाधनों का लाभकारी उपयोग। इस आदर्श के पालन के लिए प्रोफ़ेसर कुमारप्पा ने मंत्री पद और कांग्रेस कार्य समिति की सदस्यता के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

1948 में जब गांधीजी की हत्या हुई तो कुमारप्पा को इतना सदमा लगा कि उनकी दोनों आँखों की रोशनी चली गई। सौभाग्य से कुछ दिनों बाद उनकी दृष्टि वापस आ गई।

महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कुमारप्पा को दिल्ली बुलाया। गांधी स्मारक निधि के निर्माण और इस नई संस्था का प्रभार संभालने के लिए।

कुमारप्पा ने भारत में एक लोकप्रिय सरकार से अपेक्षा की कि वह चाहे तो गांधी के स्मारक के लिए कोई भी योजना लागू कर सकती थी। कुमारप्पा ने सुझाव दिया कि गांधी स्मारक निधि एक अनूठी संस्था होनी चाहिए। इसलिए सबसे बड़ा कोष जो जुटाया जा सकता था वह मानवीय व्यक्तित्व का कोष था जिसमें राष्ट्र के लिए काम करने के लिए समर्पित और विरक्त लोगों को इकट्ठा किया जाना चाहिए, जो गांधी की विशेषता वाली रोशनी बिखेरें। इसके लिए गांधी द्वारा सिखाए गए अहिंसा और सत्य के आदर्शों से ओतप्रोत पुरुषों और महिलाओं की एक सेना की आवश्यकता थी, जो इन सिद्धांतों को केवल शब्दों से नहीं, बल्कि अपने कार्यों से व्यक्त करते हुए दुनिया में आगे बढ़े।

उन्होंने निधि के लिए एक लाख ऐसे लोगों को खोजने का सुझाव दिया। इस मानव निधि को संचालित करने के लिए कुमारप्पा को तीन दानकर्ता चाहिए थे, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और राजकुमारी अमृत कौर। उन्होंने सुझाव दिया कि इन तीनों दानकर्ताओं को अपने-अपने पद त्याग कर इस कार्य के लिए पूरी तरह समर्पित हो जाना चाहिए। उन्होंने अपेक्षा की कि नेहरू कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में युवाओं के पास जाएं और युवा पुरुषों को इकट्ठा करें। इसी तरह राजकुमारी को महिलाओं को इकट्ठा करना था और सरदार पटेल को राजनीतिक राजनीति कौशल के लिए प्रशिक्षण देने के लिए विद्यापीठ जैसी संस्थाओं के आयोजन पर ध्यान केंद्रित करना था।

लेकिन ये विचार किसी को भी पसंद नहीं आए। इसलिए कुमारप्पा निराश होकर लौट गए! अब उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। इसलिए उन्होंने सक्रिय सार्वजनिक कार्य से संन्यास ले लिया और मदुरै जिले के गांधी निकेतन में रहने लगे।

विनोबा भावे 1956 में भूदान यात्रा के दौरान कुमारप्पा से मिलने गए थे। कुमारप्पा विनोबा जी को अपनी कुटिया में ले गए। कुटिया में महात्मा गांधी की एक तस्वीर थी। जब विनोबा जी ने स्नेह और एकाग्रता से उस तस्वीर को देखा तो कुमारप्पा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘ये मेरे स्वामी हैं‘ और दूसरी तस्वीर की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘और ये मेरे स्वामी के स्वामी हैं‘। वह तस्वीर एक गरीब किसान की थी।

30 जनवरी 1960 को एक महिला कुमारप्पा से मिलने आई। विदा लेते समय उसने कुमारप्पा को बताया कि वह गांधी की पुण्यतिथि पर आयोजित होने वाली बैठक में भाग लेने जा रही है। कुमारप्पा ने तुरंत कहा, “मैं भी उस बैठक में भाग लूंगा।” महिला हैरान थी। कुमारप्पा इतनी खराब सेहत में बैठक में कैसे भाग लेंगे!

उसी शाम कुमारप्पा ने अंतिम सांस ली और अपने गुरु की आत्मा में विलीन हो गये।


Discover more from Cine Manthan

Subscribe to get the latest posts sent to your email.