बेहतर लिखने वाले लेखक, किसी शहर पर भी चंद पंक्तियों में ऐसा लिख सकते हैं कि पढ़ने वाला उन शब्दों के जादू में खो जाए| शायर मुहम्मद अल्वी साहब की रचनायें भी ऐसी ही आकर्षक हैं कि उन्हें सिर्फ एक बार पढ़ने वाला भी भूल नहीं पाता| दिल्ली पर लिखी उनकी कविता तो लाजवाब है। और बाकी भी ऐसी हैं कि पढ़ते जाओ… डूबते जाओ… उबरो… फिर पढ़ते जाओ| मुहम्मद अल्वी के काव्य संगृह ‘चौथा आसमान ‘ को 1992 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला|
दिल्ली
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दिल्ली, तेरी आँख में तिनका
कुतुबमीनार
दिल्ली, तेरा दिल पत्थर का
लाल किला
दिल्ली, तेरे बटुए में
ग़ालिब की मज़ार
रहने भी दे बूढी दिल्ली
और न अब कपडे उतार|
* * * * * * * * * * *
सुबह
. . . . .
आँखें मलते आती है
चाय की प्याली पकड़ाकर
अखबार में गुम हो जाती है
शहर
…………
कहीं भी जाओ, कहीं भी रहो तुम
सारे शहर एक जैसे हैं
सड़कें सब साँपों जैसी हैं
सबके ज़हर एक जैसे हैं
उम्मीद
…………
एक पुराने हुजरे* के
अधखुले किवाड़ों से
झांकती है एक लड़की .
[हुजरे* = कोठरी]
इलाजे – ग़म
…………………..
मिरी जाँ घर में बैठे ग़म न खाओ
उठो दरिया किनारे घूम आओ
बरहना-पा* ज़रा साहिल पे दौड़ो
ज़रा कूदो, ज़रा पानी में उछलो
उफ़क में डूबती कश्ती को देखो
ज़मीं क्यूँ गोल है, कुछ देर सोचो
किनारा चूमती मौजों से खेलो
कहाँ से आयीं हैं, चुपके से पूछो
दमकती सीपियों से जेब भर लो
चमकती रेत को हाथों में ले लो
कभी पानी किनारे पर उछालो
अगर खुश हो गए, घर लौट आओ
वगरना खामुशी में डूब जाओ !!
[बरहना-पा* = नंगे पाँव]
हादसा
…………..
लम्बी सड़क पर
दौड़ती हुई धूप
अचानक
एक पेड़ से टकराई
और टुकड़े-टुकड़े हो गयी
कौन
………
कभी दिल के अंधे कूएँ में
पड़ा चीखता है
कभी दौड़ते खून में
तैरता डूबता है
कभी हड्डियों की
सुरंगों में बत्ती जला के
यूँ ही घूमता है
कभी कान में आ के
चुपके से कहता है
तू अब भी जी रहा है
बड़ा बे हया है
मेरे जिस्म में कौन है ये
जो मुझसे खफा है
खुदा
………
घर की बेकार चीजों में रखी हुई
एक बेकार सी
लालटेन है !
कभी ऐसा होता है
बिजली चली जाय तो
ढूंढ कर उसको लाते हैं
बड़े ही चैन से जलाते हैं
और बिजली आते ही
बेकार चीजों में फैंक आते हैं !
(मुहम्मद अल्वी)
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