ओटीटी मंचों पर देखने लायक कोई हल्की फुल्की फिल्म खोजी जा रही हो या ऐसी कोई फिल्म एकाएक सामने आ जाए तो ऐसी फिल्मों के वर्ग में लेखक, निर्देशक और निर्माता लव रंजन का नाम अपनी विश्वसनीयता कायम कर चुका है और मनोरंजन हेतु किसी फिल्म को खोज रहा दर्शक उनकी फिल्म का चयन आसानी से कर सकता है या कम से कम फिल्म देखना शुरू कर सकता है इस ख्याल से कि थोड़ी फिल्म देखकर आगे देखने का निर्णय लेना सही रहेगा|
बाबर जैसी ठोस कथा पर आधारित फिल्म में नायक की भूमिका मिलने के बावजूद दर्शकों को प्रभावित न कर पाने वाले साधारण अभिनय प्रदर्शन के कारण एक कमजोर शुरुआत करने वाले सोहम शाह ने “शिप ऑफ़ थिसियस (2013)” के बाद एक अभिनेता के रूप में कभी भी अच्छे मौके को गंवाया नहीं है और इस फिल्म के निर्माता बनने के बाद “Tumbbad (2018)” और “Crazxy (2025)” बनाकर एक निर्माता के तौर पर भी अपनी विश्वसनीयता इस तरह से बनाई और बढ़ाई है कि उनके नाम पर भी दर्शक इस उत्सुकता से फिल्म को देखना आरंभ कर सकता है कि फिल्म में अवश्य ही कुछ भिन्न और रोचक देखने को मिलेगा|
नुसरत भरुचा ने भी लव रंजन की फिल्मों में और अन्य निर्देशकों की हास्य फिल्मों या हास्य-रोमांटिक फिल्मों से फिल्म जगत में अपना स्थान बनया है अतः उनकी उपस्थिति एक दिलासा देती है कि फिल्म में अच्छा हास्य देखने को मिल सकता है|
“उफ़ ये स्यापा” देखना शुरू करने से पहले यह अंदाज़ा नहीं था कि इस फिल्म में संवाद अदायगी का सहारा नहीं लिया गया है और इसे एक तरह से कार्टून फिल्मों के अंदाज़ में बनाया गया है जहाँ बैकग्राउंड म्यूजिक भी रहा करता है, इधर उधर की आवाजें भी सुनाई दिया करती हैं लेकिन चरित्र या तो मूक रहकर भावों को अभिव्यक्ति दिया करते हैं या उनके संवाद टैक्स्ट रूप में सामने आते हैं|
“उफ़ ये स्यापा” को ऐसे वर्ग की फिल्म माना जा सकता है जिस तरह की फिल्म – जाने भी दो यारो, उस वक्त बन जाती है जब परदे पर फिल्म के चरित्र डीमेलो (सतीश शाह) की मृत काया के इर्द-गिर्द ही फिल्म की सारी घटनाएं केन्द्रित हो जाती हैं| इस फिल्म में भी दो मृत कायाएं रहस्यों से भरी स्थितियां जन्माती हैं और नशे के कारण एक चरित्र के हेलुसिनेशंस परिस्थितियों को और ज्यादा जटिल बना देते हैं|
राजू हिरानी की फिल्म – थ्री इडियेट्स, में एक हिस्सा है जहाँ एक चरित्र राजू (शरमन जोशी) के घर के हालात दिखाए गए हैं, अगर उस हिस्से से नेरेशन हटा दिया जाए तो वह फिल्म की उस कथा के हिस्से का मूक प्रदर्शन हो जायेगा, और वैसे कायदे से वहां नेरेशन की आवश्यकता थी भी नहीं क्योंकि दृश्यों से ही दर्शक सभी कुछ समझ लेते| “उफ़ ये स्यापा” ऐसी ही फिल्म है जहाँ एक चरित्र बुरे हालात में फंसा हुआ है और सभी कुछ बिना संवादों के दिखाया जा रहा है और फिल्म स्थापित भी करते है कि संवादों के बिना भी दर्शक तक अभिव्यक्ति पूरी तरह पहुँच सकती है|
चार्ली चैपलिन की फिल्मों और टॉम एंड जेरी श्रंखला की फिल्मों जैसा ट्रीटमेंट “उफ़ ये स्यापा” को दिया गया है| फिल्म में बोला कुछ नहीं जाता लेकिन कलाकरों के शारीरिक हाव भावों के कारण ऐसा कुछ भी बचता जो अनसुलझा रह गया हो और इस प्रदर्शन के लिए सारे अभिनेता प्रशंसा के अधिकारी हैं|
फिल्म के मुख्य चरित्र की ओर से देखें तो निजी रिश्तों में कई मर्तबा ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब तर्क काम नहीं आते और दूसरे पक्ष को स्थितियों को जैसे समझना है उसे वह वैसे ही समझेगा और दूसरे पक्ष की कोई दलील उसके काम नहीं आती| जब स्थितियां उसके समक्ष स्पष्ट होती हैं, उसके दिमाग में तार्किकता की जगह बनती है तभी वह परिस्थितियों को उस रूप में देख सकता है जैसी कि वे हैं| ऐसे में संवादों की कमी फिल्म में महसूस नहीं होती और मूक अभिव्यक्ति तर्क की व्यर्थता का भी प्रतिनिधित्व करती है|
सोहम शाह, कमल हसन नहीं हैं, लेकिन वे इस फिल्म में प्रभावशाली हैं| बड़ी बड़ी मूंछों में वे ऐसे दिखाई देते हैं कि आसानी से रोचक मारवाड़ी चरित्र वे आकर्षक ढंग से निभा सकते हैं| उन्हें देख ऐसा लगता है कि आज फिल्म सरफ़रोश बने तो मिर्ची सेठ का चरित्र उनके पास ही पहुंचेगा| या मदर इण्डिया का रीमेक बने तो सुखी लाला का चरित्र वे बेहतरीन ढंग से निभा सकते हैं| सिक्स पैक के जमाने में जिस बेतकल्लुफी और सहजता से वे अपनी तोंद का प्रदर्शन परदे पर इस ढंग से करते हैं कि वह उनके अभिनय का एक सक्रिय अंग बन जाती है, वह उनके लचीलेपन को दर्शाता है|
फिल्म में जो घटा है और एक चरित्र को जैसा दिखाई दे रहा है उसे और उसकी समझ के कारण दर्शको के सामने जो भ्रम उत्पन्न होता है उसकी सही सही व्याख्या जब बाद में सामने आती है तो जो बीता हुआ अनसुलझा और अधूरा लग रहा था वह रोचक और पूरा लगने लगता है और बाद का व्याख्या वाला हिस्सा पूरी फिल्म को रोचक बना देता है|
नुसरत भरुचा, शारिब हाशमी और ओमकार कपूर प्रभावशाली अभिनय प्रदर्शन कर दिखाते हैं और नोरा फतेही बिना आईटम सोंग पर नृत्य करे भी एक चरित्र के रूप में भी उप्स्त्घित हो सकने की संभावना जगाती हैं|
ए आर रहमान का संगीत परदे पर किसी क्षण को बोझिल नहीं होने देता और घटनाओं में रोचकता का तड़का लगता रहता है|
उफ़ ये स्यापा एक रोचक और मनोरंजक फिल्म है| बॉक्स ऑफिस पर इसे जो प्रतिक्रिया मिली हो ओटीटी पर तो यह एक स्वागतयोग्य फिल्म है| कथा के स्तर पर कमजोर होते हुए भी, मनोरंजन में यह कमल हसन की पुष्पक से कमतर नहीं लगती|
…[राकेश]
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