कौन बदन से आगे देखे औरत को
सब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में (~हमीदा शाहीन)
पश्चिमी देशों में ऐसे बहुत सारे पुरुष डॉक्टर्स मिलेंगे जो स्त्री-रोग विशेषज्ञ हैं, प्रसूति विभाग के अध्यक्ष हैं, बल्कि अक्सर ही सबसे ज्यादा जाने माने स्त्री रोग विशेषज्ञ पुरुष डॉक्टर्स ही दिखाई देते हैं| भारत जैसे देश में यह एक जटिल क्षेत्र है| ज्यादातर लोग अपने परिवार में इस बात को प्राथमिकता देंगे कि उनके परिवार की स्त्री को स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में एक स्त्री डॉक्टर मिल जाए| इस चाह के कारण आवश्यक नहीं कि मेरिट का पूरा सम्मान हो पाता हो| दूसरे आवश्यक नहीं कि जो स्त्री डॉक्टर गायनेकोलोजिस्ट बनने की राह पर चल पड़ी है उसकी गहरी रूचि भी इस क्षेत्र में हो| ऐसे में भारत जैसे देश में मेडिकल के इस क्षेत्र में समझौते का बोलबाला रहता हो तो कोई विशेष बात नहीं है| यहाँ तकनीकी क्षेत्रों में उदाहरण के आधार पर परिपाटी विकसित होती जाती है|
इंजीनियरिंग में सिविल और मेकेनिकल में छात्राएं कम दिखाई देंगी और यह एकदम सामान्य बात के रूप में स्वीकृत हो चुकी है|
पूर्वग्रहों से भरी परिपाटी के चलन के कारण डॉक्टर उदय गुप्ता (आयुष्मान खुराना) को पीजी शुरू करने के दौरान का जीवन व्यर्थ लगने लगता है| पुरुष डॉक्टर और गायनेकोलोजी में एम डी? तालमेल सा नहीं दिखाई देता| सर्वप्रथम तो उसकी इच्छा ओर्थोपेडिक्स में पीजी करने की थी दूसरे उसे यह भय लगता है कि स्त्री रोग विशेषज्ञ अगर पुरुष होगा तो न स्त्रियाँ उसे स्वयं को दिखाने आयेंगीं न उनके परिवार के लोग ही इस बात को प्राथमिकता देंगे या पसंद करेंगे और जीवन में उसकी प्रेक्टिस अच्छी चलने वाली है नहीं|
परिस्थितिवश उसे अपने शहर के मेडिकल कॉलेज में केवल गायनेकोलोजी विभाग में ही सीट मिलती है और वह वहां एकमात्र पुरुष छात्र है|
ऐसे में एक रास्ता तो हास्य की गली में खुलता है जहाँ अकेले पुरुष छात्र के बहाने हास्य फिल्म बन सकती है| लेकिन निर्देशक अनुभूति कश्यप अपनी फिल्म को कॉमेडी और मानवीय भावनाओं के ड्रामे का मिश्रित ढांचे में गढ़ती हैं, जहाँ पुरुष दर्शक को धीमे धीमे बहुत से मामलों में शिक्षित भी किया जाता है और बहुत से मामलों में उसके पहले बने विचारों को लगातार ढाया जाता है और उसे नए प्रगतिशील विचारों से परिचित कराया जाता है|
स्त्री बहुल विभाग में इकलौते पुरुष छात्र उदय गुप्ता के रूप में अभिनेता आयुष्मान खुराना, गहरी विश्वसनीयता लेकर आते हैं| एक विधवा स्त्री की इकलौती संतान के मनोविज्ञान को वे परदे पर बखूबी जीते हैं| अपने साथ की लड़कियों के साथ उदय के लापरवाही भरे बर्ताव को, उनकी संवेदनाओं के प्रति अनजान रह जाने के भाव को, और अपनी माँ के जीवन में उसके अलावा भी कोई भाव हो सकते हैं या उनकी अपनी कोई आवश्यकता बहे हो सकती है इससे अनजान रह जाने के भाव को आयुष्मान बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करते हैं|
एक वृहद स्त्री संसार से परिचय कैसे धीरे-धीरे उन्हें शिक्षित करता है, एक बेहतर पुरुष और बेहतर इंसान बनता है इस रूपांतरण को उत्तरोत्तर रूप में दिखाकर आयुष्मान अपने अभिनय का लोहा मनवाते हैं| उनके अन्दर लीक से हट कर बनी भूमिकाओं को अपने लिए चुनने की कला विद्यमान है| वे ऐसी भूमिकाएं चुनते हैं जहाँ उनके चरित्र का विकास और बदलाव धीरे धीरे इस रूप में सामने आता है कि वे दर्शक को कभी भी आक्रामक नहीं लगते| इस फिल्म में भी जब वे स्त्रियों के अबरे में पुरुषों के तयशुदा विचारों को या उनके सोचने के पद्यति को प्रस्तुत करते हैं तो दर्शकों को वे वाकई ऐसे लगते हैं कि ऐसा सोचने में या करने में इस बेचारे की कोई गलती नहीं है आसपास का परिवेश ही ऐसा है कि इससे इतर सोचने का या करने का तरीका ऐसे पुरुष को सिखाया ही नहीं गया|
फिल्म में उनके चरित्र के भीतर सबसे बड़ा बदलाव आता है जब गर्भवती अवयस्क काव्या (आयशा कदुस्कर) की समस्याओं से वह सीधा जुड़ जाता है तब उसे समझ में अत है उसकी माँ मात्र 3 माह के वैवाहिक जीवन में 19 साल की अपरिपक्व उम्र में उसे कैसे जन्म दिया होगा, कैसे उसे इतना बड़ा किया है?
यह एहसास कि उसकी माँ ने अपना जीवन तो एक क्षण के लिए भी नहीं जिया, उसके जन्म से लेकर आज तक उसकी माँ की हर गतिविधि केवल उसके जीवन के इर्द गिर्द ही घूमती रही है, उसके वर्तमान की समझ को झिझौड़ देता है|
उसके मेडिकल स्कूल की विभागाध्यक्ष डॉ. नंदिनी (शैफाली शाह) जो उससे कहा करती है कि स्त्री मरीजों का विश्वास जीतने के लिए उसे “पुरुष स्पर्श” को मिटाना होगा, उसे स्त्री-पुरुष के जेंडर वाले भेद को मिटाकर मात्र एक डॉक्टर बनना होगा, और जो उसकी सहपाठी डॉ. फातिमा (रकुल प्रीत सिंह) उससे कहती है और उससे भी पहले उसकी एमबीबीएस के समय के गर्लफ्रेंड कह गयी थी एकी उसे स्त्रियों की फीलिंग्स कभी समझ ही नहीं आयेंगीं, उन सब बैटन के अर्थ उसे अब समझ आते हैं|
सबसे पहले उसे अपनी माँ समझ में आती है| काव्य की समस्याएं समझ आती हैं| फातिमा का व्यवहार, उसके जीवन की सच्चाई, उसकी प्रतिबद्धताएं समझ आती हैं, उसे समझ आता है कि डॉ. नंदिनी उससे क्या कहती रहे हैं और क्या चाहती हैं| उसे समझ आता है कि उसकी सहपाठी स्त्री डॉक्टर्स उससे क्या चाहती हैं? उसकी स्त्री मरीज और उनके परिवार वाले उससे क्या और कैसी अपेक्षा रखते हैं|
अब जो वह स्त्री संसार को समझने लगता है और पुरुष का चोला उतार कर एक डॉक्टर का कर्तव्य ओढ़ लेता है तब वह डॉ. नादिनी से कृतज्ञता के भाव से कह देता है कि उसने अपने अन्दर से पुरुष स्पर्श पिघला कर मिटा दिया है|
निर्देशक भाइयों अनुराग कश्यप एवं अनुभव कश्यप की अनुजा अनुभूति कश्यप की निर्देशकीय राह भी अपने दोनों अग्रज भाइयों के मध्य की है| न तो उनके निर्देशन में अनुभव कश्यप जैसी घनघोर व्यावसायिक फिल्मों को बनाने का आग्रह दिखाई देता है और न ही अनुराग कश्यप के बार बार जीवन और दुनिया के अँधेरे पक्षों को कलात्मक तरीके से खंगालने जैसी निजी जिद दिखाई देती है| उनका निर्देशन एक सरल सतत प्रवाह में बहता दिखाई देता है| कुछ अरसा पहले जो उन्होंने एक लघु फिल्म बनाई थी जिसमें एक लडकी को चेहरे पर दाढी निकल आने की समस्या का सामना करना पड़ता है, उसी समय से उनके निर्देशन की खूबियाँ सामने आ गयी थीं| यहाँ पूरी फीचर फिल्म में उनका निर्देशकीय कौशल पूर्णतया निखर कर सामने आता है|
यह देखना सुखद है कि सई परांजपे, अरुणा राजे, कल्पना लाजिमी के बाद सार्थक और मनोरंजक सिनेमा बनाने वाली स्त्री निर्देशक का पदार्पण हिंदी सिनेमा के पटल पर हुआ है| बीते वर्षों में कई स्त्री निर्देशक हिंदी सिनेमा में सक्रिय रही हैं लेकिन सार्थकता और मनोरंजन दोनों गुणों को संतुलित तरीके से संभालने का कौशल सभी के पास दिखाई नहीं दिया| अनुभूति के ऊपर एक दबाव तो सदा ही रहेगा कि अपने दोनों प्रसिद्द भाइयों से अलग अपनी पहचान बना कर रखते हुए वे अपनी फ़िल्में बनाएं और यह उनसे सदा ही बेहतर काम करने की प्रेरणा देने वाला दबाव भी बना रह सकता है|
आयुष्मान खुराना भले फिल्म के केन्द्रीय चरित्र हों लेकिन उनके चरित्र उदय की महत्ता घर पर माँ एवं दोस्त, कॉलेज में सहपाठी और सहकर्मी दोस्त, अन्य डॉक्टर्स, बॉस, और जीवन में प्रवेश करने वाली अवयस्क लडकी के चरित्र के कारण ही परिभाषित होती है| और संबधों की विविधता के कारण स्वान में आये बदलाव को उन्होंने बखूबी दर्शाया है|
मेडिकल कॉलेज में स्त्री-रोग विभाग की अध्यक्ष डॉ. नंदिनी के रूप में शैफाली शाह कमाल की विश्वसनीय हैं| निजी जीवन में उनकी शिक्षा दीक्षा किन्हीं विषयों के माध्यम से हुयी हो लेकिन परदे पर वे एक विश्वसनीय डॉक्टर, टीचर और प्रशासक लगती हैं| मानसून वेडिंग के बाद वे समय समय पर दर्शकों को अपने उत्तम अभिनय से चौंकाती रही हैं लेकिन ओटीटी मंचों पर लगातार आते रहने के दौर में तो वे करिशमाई अभिनेत्री के रूप में चमक रही हैं| ओटीटी पर तो उनकी टक्कर में चंद ही अभिनेत्रियाँ टिक सकती हैं|
फिल्म में दर्शकों को अभिनय से सम्मोहित करने वाली दूसरी अभिनेत्री शीबा चड्ढा हैं, जिन्होंने आयुष्मान खुराना के चरित्र उदय की माँ की भूमिका निभाई है| शैफाली शाह की तरह वे भी अपने बड़े नेत्रों का भरपूर उपयोग अपने अभिनय में करती हैं| उनके लबों से पहले भाव उनकी आँखों से झलकने लगते हैं| ऐसे भावों को कैमरे में कैद करने वाले निर्देशक चाहियें, जिनकी रूचि होती है उनके लिए वे एक बेहतरीन अभिनेत्री बनकर सामने आती हैं, जो क्लोजअप शॉट्स से घबराते हैं वे अभिनय के बेहतरीन नमूनों को अपनी फिल्म का हिस्सा बनाने से चूक जाते हैं|
डॉ उदय और डॉ फातिमा वाला कोण ही ऐसा रहा जो गधा हुआ लगता है और उसमें सतत प्रवाह की कमी रही क्योंकि वह यहाँ एक उपकथानक के रूप में ही रहा जबकि वह एक पूरी फिल्म बनाए जाने की गुंजाईश रखता है ताकि ऐसे रिश्ते के तमाम उतार चढाव खंगाले जा सकें|
यहाँ तो उदय के चरित्र की यात्रा ही केंद्र में है अतः बाकी सब कुछ उपकथाओं में परिवर्तित होता गया| रकुल प्रीत सिंह यहाँ एक तरह से एक उपनायिका के रूप में उपयोग में ली गयीं| उनके अभिनय में इतने एसहजता और आकर्षण तो है ही कि दर्शक उन्हें और उनकी कथा के हिस्से को और ज्यादा तवज्जो दिए जाने की आवशकता को महसूस करता है|
अनुभूति कश्यप की फिल्म एक ऐसे विषय पर है जिसे फिल्म में ढाला ही जाना चाहिए था और उस लिहाज से यह एक आवश्यक फिल्म बन जाती है| आवश्यक विषय पर एक वृत्तचित्र न होकर यह एक मनोरंजन प्रधान फिल्म भी है जिसके कारण विषय की गंभीरता आसानी से दर्शक ग्रहण कर लेते हैं|
अनुभूति कश्यप ने अपनी स्वंय की निर्देशकीय राह स्थापित कर ली है और उनकी अगली पेशकश का इंतज़ार बहुत से दर्शकों को होगा|
…[राकेश]
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