पिछली सदी के सत्तर के दशक में बी आर चोपड़ा ने एक बेहतरीन मर्डर मिस्ट्री बनाई थी – धुंध, जिसमें अपने पति के खून का आरोप है रानी (जीनत अमान) पर|
२०१३ में फ़िल्म आई क्वीन, जिसकी दिल्ली वासी रानी नामक नायिका का चरित्र कंगना रनौत ने बड़ी कुशलता से निभाकर फ़िल्म को हर तरह की सफलता दिलवाई|
इस फ़िल्म – हसीन दिलरुबा, की नायिका- रानी कश्यप भी दिल्लीवासी हैं और विवाह कर आ गई हैं ज्वालापुर हरिद्वार में| ज्वालापुर की खासियत इतनी है कि बहुत सी बातें जो हरिद्वार मुख्य नगरी में नहीं की जा सकती वे ज्वालापुर में की जाती हैं, जैसे अंडे, मांस और मदिरा की बिक्री और इनका सेवन|
हरिद्वार में “हरी की पौड़ी” के २००-३०० मीटर बाद से मायापुरी पुल तक ऊपरी गंग नहर किनारे ऐसे भवन बने हुए हैं जहां से घर की सीमा से बाहर निकले हुए बिना भी उन घरों में रहने वाले लोग गंगा में डुबकी लगाकर स्नान कर सकते हैं| लेकिन मायापुरी के पुल के बाद ऐसे भवन हों इसकी संभावना बेहद कम है, घाट जरुर बने हुए हैं| ज्वालापुर में नहर किनारे भवन बने हों इसकी संभावना एकदम क्षीण है| संभवतया फ़िल्म की शूटिंग आर्य समाज मंदिर के बाद और मुल्तान भवन के बीच के किसी भवन की छत पर की गई हो और कथानक को इसलिए ज्वालापुर में स्थित किया गया क्योंकि धार्मिक नगरी होने के नाते हरिद्वार में मांस-मदिरा का सेवन निषेध है अतः चरित्रों को इनका सेवन करते नहीं दिखाया जा सकता था| यही एकमात्र कारण लगता है फ़िल्म को ज्वालापुर में स्थापित करने का| पर फ़िल्हम की शूटिंग तो हरिद्वार में ही हुई, तो उस लिहाज से सेंसर बोर्ड ने इस पहलू को नज़रंदाज़ क्यों कर दिया यह विचारणीय बात है| हरिद्वार में स्थित फ़िल्म “दम लगा के हईशा” ने अच्छी प्रशंसा बटोरी थी सो उस लिहाज से हरिद्वार स्थित फ़िल्म आकर्षित तो कर ही सकती है| लेकिन हसीन दिलरुबा में गंगा नहर, चीला पॉवर हाउस आदि दिखाने के बाद भी हरिद्वार नगरी जैसी बात आ नहीं पाती|
दिल्ली की है रानी कश्यप (तापसी पन्नू), और ज्वालापुर हरिद्वार का है रिषभ सक्सेना (विक्रांत मैस्सी)| यूँ तो कश्यप उपनाम से पता नहीं चलता लेकिन शायद रिषभ सक्सेना की भांति रानी भी कायस्थ ही हो, वैसे बातें तो वह दिल्ली के पंजाबी लहजे में करती है| बहरहाल उसका रिषभ संग विवाह परिवार द्वारा करवाया गया गठबंधन है| रिषभ का कजिन है दिल्ली का नील त्रिपाठी| कायस्थ रिषभ की मां मांस नहीं खाती और न ही अपनी रसोई में बनने देती है, ब्राह्मण नील त्रिपाठी मांग करके रानी से मटन बनवाता है| ब्यूटिशियन रानी को चाय भी बनानी नहीं आती लेकिन वह पड़ोस में किसी मुस्लिम महिला से पूछ कर पहली बार में ही ऐसा मटन बनाती है कि उसका पति रिषभ भी उसके पकाए मटन की प्रशंसा करता है|
ऋषिकेश से ऊपर गंगा में रिवर राफ्टिंग स्थल कम से कम 1 घंटे की दूरी पर तो होगा ही ज्वालापुर से, और फ़िल्म का खलनायक सरीखा चरित्र नील अपनी बोट में हवा भरता है ज्वालापुर में रिषभ के घर की छत पर|
जातिगत पर परम्परागत वैवाहिक संबंधों, रिश्तों और आदतों में घालमेल की तरह फ़िल्म में बहुत ही ज्यादा घालमेल है| अगर किसी ने सामाजिक और जासूसी उपन्यास लिखने वाले वेद प्रकाश शर्मा, और सुरेन्द्र मोहन पाठक के पांच पांच उपन्यास भी पढ़े हुए हैं तो क़त्ल की वारदात के स्थल और वहां से प्राप्त मृतक के भंग अंग और फ़िल्म में इन्स्पेक्टर रावत (आदित्य श्रीवास्तव) द्वारा रानी से एक दो बार की पूछताछ में ही उसे समझ आ जाता है कि फ़िल्म का रहस्य कहाँ छिपा है या कहाँ जा रहा है|
रिषभ की शादी के कारण उसके और उसकी मां के मध्य के दृश्य फ़िल्म में हास्य उत्पन्न करते हैं| बाद में उसकी मां रानी के ऊपर टीका टिप्पणी करके भी हास्य उत्पन्न करती है| लेकिन फ़िल्म को तो रहस्यमयी बनाना था सो अच्छी खासी हल्की फुल्की सामाजिक हास्य फ़िल्म जो बन सकती थी उसमें विवाहेत्तर सम्बन्ध का प्रवेश कराया गया| वैवाहिक जीवन के उतार चढ़ाव एक अच्छी फ़िल्म बना सकते थे और विक्रांत मैस्सी और तापसी पन्नू के अभिनय भी उसी खांचे या सांचे में ठीक ढंग से फिट हो रहे थे, पर उस तपते तवे पर पल्प फिक्शन गढ़ने के नाम पानी के छींटे डाल दिए गए और इस खिचडी में कुछ भी कायदे से उभर कर सामने न आ सका|
हसीन दिलरुबा के थ्रिलर वाले भाग में कई कमियाँ हैं|
वेद प्रकाश शर्मा ने एक चरित्र रचा था केशव पंडित जिसने उनके अन्य प्रसिद्ध जासूसी चरित्रों, जैसे विजय, विकास, अलफांसों, वतन, रघुनाथ, जयंत, जगन, आदि के हिंसात्मक कारनामों के मुकाबले केवल कानूनी दावपेंचों से ही अपना रंग जमाया था| बाद में केशव पंडित नाम से कोई सज्जन जासूसी उपन्यास ही लिखने लगे| उन्हीं जैसे नाम से फ़िल्म में भी दिनेश पंडित नामक लेखक के जासूसी उपन्यासों की प्रशंसिका है रानी|
चूंकि रिषभ को रानी से एक बार मिलने से ही प्रेम हो गया है अतः वह भी प्रेम में पूर्ण श्रद्धा से केशव पंडित के उपन्यास पढने लगता है|
रानी घर में फर्श पर बहते खून को साफ़ करती है और उसके कपड़ों और स्वेटर पर खून लगा दिखाई देता है लेकिन जब मिनटों बाद ही वह योजना के अनुसार बाहर जाती है तो उसके कपड़े और स्वेटर एकदम बेदाग़ हैं|
अगर वारदात वाले दिन रानी रान पहले ही ले आई बाज़ार से तो पुलिस भी तो मटन बाज़ार में पूछताछ करेगी कि नहीं कि मोहतरमा उस बाज़ार में एक दिन में दो बार या दो दिन के अन्दर दो बार गयीं और उन्होंने दो बार रान खरीदा- एक जो पहले लिया जिसे डीप फ्रीज़ में रखा और जिससे क़त्ल हुआ, दूसरा जिसके कारण रानी ने एक कसाई से झगडा किया कि उसके चाकू में जंग लगा है, और पहले रान को उसने अगर दूसरे कसाई से कटवाया तो दूसरे रान का क्या किया?
जैसा घर परिवार रिषभ का है उसमें घर में डीप फ्रिज का होना एक बहुत बड़े संयोग की ही बात है|
तीसरे एक साधारण बुद्धि का पुलिस वाला भी देखते ही समझ जाएगा कि काटे गए हाथ और विस्फोट में शरीर से अलग हो गए हाथ में बड़ा अंतर होता है लेकिन पुलिस इस कोण पर सोचती भी नहीं|
फ़िल्म को आसानी से पुलिस और कोर्ट केस वाला बनाया जा सकता था| आखिरकार नील के मोबाइल में रानी के आपत्तिजनक वीडियो थे जिनसे साफ़ जाहिर था वह रानी और रिषभ को ब्लैकमेल कर रहा था, रिषभ के शरीर पर नीला द्वारा बुरी तरह पीटे जाने के निशाँ थे बल्कि नील ने रिषभ की जान लेने की कोशिश की, और नील द्वारा धक्का देकर अलग की गई रानी ने स्वयं और अपने पति के बचाव के लिए नील के सर पर वार किया, एक और पल की देरी रिषभ की जान ले सकती थी| रिषभ ने न पढ़े हों, दिल्ली की रानी ने तो ढेरों जासूसी उपन्यास पढ़े थे, उस रास्ते में बचाव ज्यादा था बनिस्पन इस राह के जो उसने रिषभ के कहने से चुनी जिसने केवल एक जासूसी उपन्यास “कसौली का कहर” ही पढ़ा था और उपन्यास में लिखे जैसा ही कर दिया|
केशव पंडित के उपन्यास कसौली का क़हर से उसे और रानी द्वारा दुर्घटनावश किये गए अपराध को छिपाने की प्रेरणा तो मिल जाती है लेकिन वे इतना दिमाग नहीं लगाते कि आधार कार्ड और मोबाइल के जमाने में वे दोनों देश के किस कोने में छिप कर रह लेंगे?
जैसा रिषभ-रानी-नील का प्रेम त्रिकोण और ह्त्या का केस है उसे स्थानीय अखबार और अन्य मीडिया जबरदस्त कवरेज न दें ऐसा मुमकिन नहीं, घर घर में ऐसे केस की बात होगी, अखबारों में तीनों लोगों के फोटो छापे जायेंगे| ऐसे हालात में फ़िल्म दिखाती है कि अंत में रानी पहुँचती है मोतीचूर रेलवे स्टेशन और वहां उसे रिषभ मिलता है| अब रिषभ बाबू गंगा नहर में कूदे थे जो हरिद्वार से रुड़की की और बहती है और मोतीचूर है हरिद्वार और ऋषिकेश (या देहरादून) के बीच| “मोतीचूर” एक बेहद छोटा सा स्टेशन है, जिस पर ऋषिकेश या देहरादून से चलने वाली पेसेंजर ट्रेन ही रुकती है| इतना आदमी मान सकता है कि रिषभ जी नहर से निकल कर किसी वाहन से मोतीचूर पहुँच गए| पर जब केस ताजा हो तब एक ताजा हाथ कटा आदमी कैसे पुलिस की निगाहों से बच पायेगा यह सोचने वाली बात है, कहीं तो उसने अपना इलाज कराया ही होगा| इसकी कितनी संभावना है कि उसका इलाज करने वाले सर्जन ने अखबार में उसके केस के बारे में नहीं पडा होगा और उसका फोटो नहीं देखा होगा| यह तो पूछेगा ही कि हाथ कटा कैसे? मोतीचूर स्टेशन पर ही रानी और रिषभ को साथ देखकर कोई नहीं पहचानेगा इसकी संभावना भी क्षीण है| दर्शक कितना संदेह खूंटी पर टांग कर फ़िल्म देखेगा| थ्रिलर को थ्रिलर की तरह से ही तो देखेगा!
एक अच्छे थ्रिलर के लिए ये सब कमजोर कड़ियाँ हैं| रानी का नील संग विवाहेत्तर सम्बन्ध सभी को ज्ञात है तो कोर्ट में जाने से कुछ नया तो पता चलता नहीं| रिषभ उसे छुडाने के लिए जो प्रयास करता उससे ही फ़िल्म में जान आती और उनके बीच के रिश्ते में भी जान पड़ती और आगे का जीवन कायदे का गुज़रता| अब कैसे और कब तक बच पायेंगे?
रानी और रिषभ के मध्य रिश्ते का उतार चढ़ाव हो या अपराध कथा, दोनों ही जगह विक्रांत मैस्सी तो अपनी भूमिका के विभिन्न रंगों को उभारते दिखाई देते हैं लेकिन तापसी पन्नू ने ऐसा लगता है कि अभिनय में अभिनेत्री से ज्यादा ऐसे सितारों के समूह की सदस्या बनने की राह चुनी है, जो चरित्र के अनुसार अभिनय पर कम और कुछ विशेष अदाओं पर निर्भरता को ज्यादा महत्त्व देते हैं| कोविड-१९ परिस्थिति के कारण ओटीटी का चरित्र भी बदल गया है और इस दौर में बड़े बड़े वे सब सितारे भी धराशाई होते दिखाई देंगे जो अभिनय में ताजगी और गंभीरता नहीं ला पाते और जो चरित्र अनुसार अपने अभिनय में परिवर्तन नहीं ला पाते| घर पर स्क्रीन पर निजी रूप में अक्सर एकल दर्शक के रूप में फ़िल्म देखने की प्रवृत्ति दर्शक में एक अलग तरह की समझ लेकर आ गयी है और ज्यादा समझ लेकर आयेगी| अब अभिनेता के प्रदर्शन को सेल्यूट मिलेगा, सितारों की चमक को नहीं|
पिंक, मुल्क, नाम शबाना, थप्पड़, और बदला आदि सभी समस्या आधारित फिल्मों में तापसी के अभिनय में चरित्र अनुसार कोई बदलाव देखने को नहीं मिलता| न उनकी हंसी और न उनका दुःख ही उनकी आँखों तक पहुंचता है| कैमरे के समक्ष अभिनेता की आँखें संवादों और भावों का साथ न दें तो दर्शक किस तरह प्रभावित हो पायेंगे? अगर वे अभिनय का कोई नया ही व्याकरण ही स्थापित नहीं कर रहीं तो उनके अन्य अभिनेताओं संग दृश्यों में क्रिया प्रतिक्रया का रिश्ता सिरे से गायब रहता है, उनकी आँखों से सामने वाले चरित्र के लिए कुछ भी विकरित नहीं होता, वे संवाद अवश्य बोलती रहती हैं पर उन संवादों में बसे भावों को उनकी आँखें प्रसारित नहीं करतीं|
फ़िल्म में विवाह के एक दो दिन बाद ही रानी द्वारा अपने बेडरूम में रिषभ पर मीरा को लेकर बरसने का दृश्य तापसी के अभिनय की सीमितता को बखूबी दर्शाता है| रिषभ को चिढ़ाने के लिए ओढ़े गए गुस्से के रूप में तो यह काम कर जाता लेकिन अगर यह वास्तविक गुस्से का उनका अभिनय था तो उन्हें गंभीरता से अभिनय के बारे में सोचने की जरुरत है|
फ़िल्म की गुणवत्ता को औसत से नीचे बनाए रखने में जिम्मेदार सबसे ज्यादा इसका लेखन प्रतीत होता है| रानी का चरित्र हो या रिषभ का, पल में तोला पल में माशा वाले तरीके से दोनों के चरित्र बर्ताव करते हैं| चरित्र का विकास एक दिशा में होना शुरू ही होता है कि अगले ही दृश्य में वह किसी और ही दिशा में भेज दिया जाता है| अभी रिषभ और रानी के बीच मनभेद के पल चल रहे हैं और अगले ही दृश्य में रिषभ जी पत्नी के सामने स्वाकारोक्ति लिए डाइनिंग टेबल पर बैठ जाते हैं कि रानी के सौंदर्य के समक्ष वे नर्वस हो जाते हैं| छोटे शहर में पत्नी को कैसे काबू में करके घरेलू बनाया जाए इस पर पड़ोसी मित्र उपदेश दे रहा होगा और उसी दृश्य में पिता अपने बेटे और उसके मित्र की अतरंग बातचीत में दखल दे रहा होगा| कभी रिषभ का चरित्र बेहद सीधा बन जाता है, कभी वह अति संवेदनशील बन जाता है जो पत्नी के अपने मायके में फोन पर की गई बातचीत से आहत हो जाता है और कभी रानी द्वारा उस पर फिजूल भड़कने और डांटने से उस पर कोई असर नहीं होता| छोटे से अरसे में ही वह बला का पर पीड़क बन जाता है| इंसान के व्यवहार इतनी शीघ्रता से नहीं बदला करते| दुखी होने की बात में वह दुखी होगा किन्तु अपने मूल प्रवृत्ति से हटकर एकदम उलट व्यवहार नहीं करने लगेगा| या तो रिषभ जैसे व्यक्ति में त्याग, दुःख सहने की क्षमता, प्रेम के सामने गलत को स्वीकार करके भूल जाने की क्षमता होगी या वह शुरू से ही ऐसे आवेश वाला व्यक्ति होगा जो अपनी पत्नी को मरने की साजिश भी कर ले| छोटे शहर के नाम इसकी किस फ़िल्मी अदा पर दिल लुटाये दर्शक?
कोरोना काल में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर बहुत सी फ़िल्में बस यूँ ही देख ली जाती हैं अगर सामान्य काल में सिनेमा घरों में देखने की बात हो तो दर्शक ऐसी फिल्मों पर धन एवं समय खर्च करने नहीं जाएगा, हसीन दिलरुबा ऐसी ही फ़िल्म बन पाई है जिसे ओटीटी पर समय बिताने के लिए लोग देख भी सकते हैं पर जिसे देखकर संतुष्टि कम ही लोग पा पायेंगे|
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July 10, 2021 at 6:24 AM
bakwas picture hai
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