सत्यजीत रे की चार कहानियों से प्रेरित चार फिल्मों के संग्रह में अभिषेक चौबे द्वारा निर्देशित “हंगामा है क्यों बरपा” ही एकमात्र आकर्षक फ़िल्म है जो रे की फिल्मों की टोन के साथ सुर मिला पायी है, बाकी तीनों फिल्मों को नए जमाने के दस्तूरों के हिसाब से इतना बदल दिया गया है कि उनके साथ रे की कहानियों का नाम जोड़ना भी विचित्र है|
सत्यजीत रे की फ़िल्में हों या उनका कथा संसार, सामजिक और मानवीय सरोकार एवं संवेदना, स्तरीय ह्यूमर और कल्पना का समावेश उनमें कूट कूट कर भरा रहता है| चारुलता हो, शतरंज के खिलाड़ी हो, या पीकू, स्त्री-पुरुष संबंधों के विषय में रे न कहकर या दिखाकर सब जता दिया करते थे| अब वे चूंकि नहीं है अतः उनके रचना संसार पर आगे विकसित न होने की मुहर प्रकृति द्वारा लग चुकी है, वो जैसा है उसे वैसा ही ट्रीटमेंट नए लोगों को देना पडेगा अगर वे उनके संसार से कुछ उधार लेकर अपना काम कर रहे हैं| अगर उसे बदल दे रहे हैं तो उसे प्रेरणा, ट्रिब्यूट जैसे शब्दों से न ही विभूषित करें तो बेहतर|
रे की कहानियां केवल वयस्कों की श्रेणी में तो बिलकुल भी नहीं आतीं सो उनकी कहानियों से प्रेरित सामग्री और उनका ट्रीटमेंट भी उसी व्याकरण के साथ किया जाना चाहिए जिनके साथ वे लिखी गयी थीं, इसी नाते उन पर बनी फ़िल्में केवल वयस्कों वाली फ़िल्में न बन जाएँ, इसका विशेष ध्यान रखने की जरुरत है|
केवल वयस्कों के लिए वाली फ़िल्में बनाने के लिए दुनिया भर की सामग्री उपलब्ध है, वहां हाथ आजमाइए, रे कथा और रचना संसार को बख्श दीजिये|
के के मेनन और दिब्येंदु भट्टाचार्य के अच्छे अभिनय के बावजूद बहुरूपी अंततः औसत से नीचे आकर्षित न कर पाने लायक फ़िल्म की श्रेणी में डूब जाती है| इसमें फ़िल्म का अंत भी बहुत हद तक जिम्मेदार है| बहुरूपी के ट्रीटमेंट ने भी के के मेनन जैसे बेहतरीन अभिनेता की दक्षता और मेहनत पर पानी फेर दिया| अगर इसे मूल कथा की आत्मा के साथ ज्यादा जोड़ा जाता तो यह हंगामा है क्यों बरपा के साथ दूसरी दर्शनीय और रे के रचना संसार के प्रति सही न्याय कर सकने वाली फ़िल्म हो सकती थी|
फॉरगेट मी नॉट, वास्तव में इस संघर्ष से जूझती नज़र आई कि दर्शक उसे भूल न जाएँ| रे संसार से कम और डेविड फिंचर की The Game (1997) से सुर ज्यादा मिलाती हुयी लगी, लेकिन वैसी प्रभावशाली बन नहीं पाई| अली फज़ल का हवा में उड़ता चरित्र जबरदस्ती का गढ़ा लगा| जितने आरोप मैगी ने उस पर बाद में लगाए उसके रंग इस्पित के चरित्र में दिखाई नहें दिए या दिखाए नहीं गए| वर्तमान में भी तो उसके चरित्र के शेड्स की कुछ झलकें दर्शकों को मिलनी चाहियें जिससे उन्हें लगे कि इस्पित बाबू वाकई ऐसे ही परले दर्जे के कमीने टाइप के इंसान हैं जैसा उनके बारे में बताया जा रहा है| या जिसे कनपुरिया परिचित कह सकें- इस्पित बहुत हरामी आदमी है बे! मैगी के साथ की घटना के अलावा इस्पित के अपने दोस्तों संग किये कारनामों को न गढ़ कर फ़िल्म अपने किसी भी चरित्र के साथ शुरू से ही दर्शक संग रिश्ता कायम नहीं कर पाई| श्वेता बासु प्रसाद का प्रवेश कुछ आशा लेकर आता है कि फ़िल्म धरातल पर उतर कर दर्शकों से मुखातिब होगी, पर ऐसा होता नहीं|
स्पॉटलाइट का बहुत ज्दायादा रोमदार फ़िल्म सितारे के चरित्र पर था और हर्षवर्द्धन कपूर फ़िल्म सितारे तो कहीं से नहीं लगे, किसी सितारे के बिगडैल पुत्र जैसा मेनेरिज्म उनका अवश्य ही था| सारी फ़िल्म उनके किसी अदृश्य लुक की चर्चा करती रही पर वो दिखाई तो कहीं नहीं दिया| राधे माँ के चरित्र से प्रेरित दीदी का चरित्र कहाँ जा रहा है और फ़िल्म को ले जा रहा है ऐसा कुछ भी स्पष्ट नहीं हुआ| काफ्का और लिंच की बात करते करते फ़िल्म रे से कम प्रभावित और जिम जारमुश की तरफ ज्यादा झुकती दिखाई देने लगी| सत्यजीत रे की नायक में उत्तम कुमार का चरित्र और उनका अभिनय नेनोमीटर के स्केल पर भी एक फ़िल्मी सितारे का था| पर यहाँ हर्षवर्द्धन कपूर गच्चा दे गए| न सितारे का सितारापन वे दर्शा पाए न सितारे के अहम् को लगी ठेस को ही उभार पाए, और यही दो मूल आधार थे फ़िल्म के|
क्लेप्टोमेनिया पर आधारित “हंगामा है क्यों बरपा” सत्यजीत रे की कहानी बारिन भौमिकेर ब्याराम से प्रेरित है| मनोज बाजपेयी (राजू, मुसाफिर अली), गजराज राव (असलम बेग), रघुबीर यादव (हकीम) और मनोज पाहवा (रूह सफा नामक कबाड़ी दूकान के मालिक) चारों अभिनेताओं ने अपने अच्छे अभिनय प्रदर्शनों से इस कड़ी को सबसे आकर्षक बनाया| इन चारों में फ़िल्मी सितारे के रूप में अपनी व्यावसायिक फिल्मों की सफलता के कारण मनोज बाजपेयी का सितारापन बाकी तीन के सितारापन से ज्यादा चमकदार है, लेकिन इसे कहने में कोई शक नहीं कि अगर इस फ़िल्म में चरित्र के प्रति अभिनेता का निष्ठावान अभिनय कसौटी पर रखा जाए तो बाकी तीनों अभिनेता कम से कम यहाँ मनोज बाजपेयी से बीस ही बैठते हैं| वे चरित्र की सीमाओं से बाहर नहीं गए| पर एक ग़ज़ल गायक मुसाफिर अली के रूप में गाते समय मनोज बाजपेयी कुछ ज्यादा ही हरकतें कर गए| ओंठ बिचका कर और उन्हें थरथरा कर वे जाने किस ग़ज़ल गायक की नक़ल करना चाह रहे थे? नसीरुद्दीन शाह ने सरफ़रोश में जगजीत सिंह के गाने के अंदाज़ की नक़ल करने की कोशिश की? या उन्होंने बंदिश बैंडिट वेब श्रंखला में ही किसी गायक के गाने के अंदाज़ की हुबहू नक़ल करना चाही? अभिषेक चौबे की फ़िल्म- सोनचिरिया, में मानसिंह नामक डाकू की भूमिका में मनोज बाजपेयी ने अविस्मरणीय अभिनय प्रदर्शन किया| यहाँ किस ख्याल से उन्होंने कुछ ज्यादा ही प्रयास कर दिया| मुसाफिर अली के बरक्स राजू के रूप में वे ज्यादा स्वाभाविक और प्रभावशाली लगे|
रघुबीर यादव और मनोज पाहवा तो छोटी लगने वाली भूमिकाओं में भी अपने अभिनय के जलवे बिखेरते रहते हैं यहाँ अवसर का असली लाभ उठाया है गजराज राव ने| हाले के वर्षों में यह उनका सबसे अच्छा अभिनय प्रदर्शन है| मनोज बाजपेयी के समक्ष वे मुख्य भूमिका में थे और इस अवसर को उन्होंने खोया नहीं और इस पारी में चौकों छक्कों और आकर्षक बेटिंग के बलबूते शतक लगाकर एक यादगार पारी खेली है बाकी तीन बल्लेबाजों के बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद ‘मैन ऑफ़ द मैच’ का खिताब जीतने में कामयाब रहे हैं| एक भूतपूर्व पहलवान, जिसकी बुद्धि थोड़ी ठस है, के बहुरंगी चरित्र को उन्होंने खूब निभाया है| दस बरस बाद ट्रेन की बोगी में यह जानने पर कि सामने खड़े शख्स ने ही दस बरस पहले उनकी प्रिय जेबी घड़ी – खुशवक्त, चुराकर उनका नसीब ही चुरा लिया था, जिस तरह वे नाराज होकर वे मुड कर मनोज बाजपेयी की तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं और मनोज बाजपेयी के उनके कंधे पर हाथ से छूने पर बिदक जाते हैं, गजराज राव का याद रखने लायक अभिनय प्रदर्शन है| एक पहलवान में शारीरिक बल होने के नाते जो निश्चिन्तता और ठहराव होता है उसे उन्होंने पूरे समय बरकरार रखा है| स्टेशन पर मनोज बाजपेयी के हाथ में घड़ी सौंपते समय जो उनकी हडबडाहट है, आत्मविश्वास की कमी है, लेकिन किसी बात की राहत भी है, क्योंकि उन्हें निश्चित पता है कि आने वाले कल को मनोज बाजपेयी के चरित्र को सच्चाई पता चल जायेगी, उस जटिल मिश्रित भाव को भी गजराज राव ने शानदार तरीके से निभाया है| दिल्ली स्टेशन से कुछ पहले ही ट्रेन के रुकने पर नीचे उतर कर मामला समझने के लिए आगे बढ़ते गजराज राव को हाथों को घुमाकर व्यायाम करते देखिये तो अंदाजा लगता है कि उनके अन्दर एक बड़ा अभिनेता छिपा हुआ है जिसे और अवसरों की आवश्यकता है|
“हंगामा है क्यों बरपा” में हर दृश्य में हास्य के छोटे छोटे क्षण आते रहते हैं और सटीक संवाद और चारों अभिनेताओं द्वारा उनकी बेहतरीन अदायगी फ़िल्म को कभी भी रोचकता की पटरी से उतरने ही नहीं देती| और एक थ्रिलर न होते हुए भी कथा का मूल रहस्य आराम से चलकर दर्शक के पास आता है तो उसे और ज्यादा आनंद आता है|
अभिषेक चौबे और उनके चार अभिनेताओं – रघुबीर यादव, मनोज पाहवा, मनोज बाजपेयी, और गजराज राव, की पांच सदस्य टीम ने सत्यजीत रे के नाम से जुडी इस चार फिल्मों की श्रंखला की लाज रख ली| बाकी तीन फिल्मों ने रे रचना संसार में सेंध सी लगाईं है
…[राकेश]
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July 10, 2021 at 5:25 AM
Mujhe bhi bas ek yahi episode achchha laga. bakee episodes ko bhasha aur nagnata ke scenes ke karan parivar ke saath dekh pana hee asambhav hai aur unmen pakad bhi nahin thi. aapne mere man kee baat likh dee. Manoj bajpeyi mere pasandida actor hain, unhone maja lafga diya story mein do roles karke. wo pahalwan wala actor ki koi picture pahle nahin dekhi, aapne itnee tarif likhi hai ab unke pahle ki picturein dekhni padengee. Manoj Bajpeyi ki Pinjar picture par bhi likho aap. Un tak pahunchne ka koi medium ho to bataiye unhen kitnee galiyan we parde par dene lage hain aajkal. Unke nam se family man web series dekhi thi, itni galiyan hain usmen. ye achchhe actors ko kya hota ja raha hai, ashleel bhasha kaa itna upyog picturon mein karne lage hain ki dekhna mushkil ho gaya hai
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