इरफ़ान खान ने अपने फ़िल्मी जीवन में तरह तरह की भूमिकाएं निभाईं हैं जिनकी खूब चर्चाएँ होती रही हैं| लेकिन उनकी एक फ़िल्म – तुलसी की मुश्किल से ही चर्चा होती है जबकि इरफ़ान ने इसके एक सीक्वेंस में अपने पूरे फ़िल्मी जीवन का एक सर्वश्रेष्ठ अभिनय प्रदर्शन करके दिखाया है|
इरफ़ान ने अपनी अभिनय शैली ऐसी रखी कि उनके पास जो भूमिकाएं आयीं उनमें वे अपने स्तर पर लार्जर-देन-लाइफ किस्म का प्रभाव छोड़ते रहे| परदे पर निरीह तो वे अपवाद स्वरूप ही दिखाई देंगे| फ़िल्म – तुलसी ने उन्हें यह मौका दिया और उन्होंने कमाल कर दिया इसमें|
1983 में एक अमेरिकन फ़िल्म आई थी Who Will Love My Children, इसका भारत में रीमेक नब्बे के दशक के शुरू में पहले मलयालम में बना फिर तेलुगु में उसके बाद कन्नड़ में और 2008 में हिन्दी में इसे के. अजय कुमार ने इरफ़ान खान, मनीषा कोइराला, यशपाल शर्मा, कुलभूषण खरबंदा, विक्रम, टीनू आनंद, अंजना मुमताज़ और सदाशिव अमरापुरकर के साथ बनाया| इसके अंतिम 30 मिनटों के भावुक कर देने वाले दृश्यों के कारण इसे देखना हरेक के लिए आसान नहीं है| निर्देशक ने इसे पिछली सदी के 70 और 80 के दशक में बनने वाली भावुकता से भरपूर पारिवारिक फिल्मों जैसा ट्रीटमेंट दिया है|
इरफ़ान ने इसमें ऐसे भटके हुए युवक- सूरज की भूमिका निभाई है जिसे जीवन में सब कुछ मिला है, घर पर उसके परिवार में सुघड़, पढी लिखी पत्नी तुलसी (मनीषा कोइराला ) है, चार बच्चे हैं, लेकिन सूरज को शराब पीने की बुरी आदत है और इसके बारे में उसके स्पष्ट विचार हैं कि वह अपने पैसे से शराब पीता है, किसी से उधार लेकर नहीं|
उसकी शराब मंडली के साथी विक्रम (यशपाल शर्मा) को दो बातें बहुत अखरती हैं| एक तो सूरज को इतनी खूबसूरत और सुशील पत्नी क्यों मिली? और दूसरे तुलसी उसे नापसंद क्यों करती है, जबकि उसका अपना पति सूरज भी शराबी है?
विक्रम द्वारा सूरज को धोखे से शहर भेजकर तुलसी पर आक्रमण करने के प्रयास को सूरज के बच्चे असफल कर देते हैं लेकिन उसकी साजिशें सूरज और तुलसी के जीवन की शान्ति भंग कर देते हैं| सूरज पर बिजली गिरती है यह जानकर कि तुलसी को ब्लड कैंसर हो गया है और वह कुछ ही माह की मेहमान है| सूरज की शराब की अय्याशी इसी आधार पर चल रही थी कि तुलसी जैसी कुशल गृहणी और सुघढ़ पत्नी उसके बच्चों को संभाल रही थी|
इरफ़ान अपने चरित्र के अभी तक के आर्क में भी बेहतरीन अभिनय दिखाते हैं लेकिन इसके बाद जो इरफ़ान करते हैं वह देखे बिना उसके बारे में सिर्फ पढ़ना अविश्वसनीय और अतिश्योक्ति से भरा लगेगा|
तुलसी के ब्लड कैंसर की जानकारी के बाद से फ़िल्म में जब तक सूरज की भूमिका है तब तक इरफ़ान के अभिनय को अवश्य देखा जाना चाहिए| और ऐसा अगर अभी तक कोई इरफ़ान का प्रशंसक नहीं बना जीवन में, इन 15-20 मिनटों की फ़िल्म को देखने के बाद संभव ही नहीं कि वह इरफ़ान के अभिनय का प्रशंसक न बन जाए|
तुलसी, सूरज से शराब न पीने और लड़ाई झगडा न करने का वचन ले लेती है| सूरज के घरेलू मोर्चे से अनभिज्ञ विक्रम सूरज से जंगल के सुनसान रास्ते पर भिड जाता है| सूरज तुलसी से किये वादे को निभाने के लिए लड़ाई को टालता हुआ विक्रम से मार खाता रहता है यह सोचकर कि थोड़ी देर में वह शांत हो जायेगा लेकिन उसकी विनती का विक्रम पर कोई असर न होता देख वह अपना बचाव करता है और विक्रम को पकड़ लेता है, विक्रम को हारा मानकर वह उसे छोड़ने लगता है लेकिनुसे यह ज्ञात नहींहै कि विक्रम अकेला नहीं है बल्कि उसके साथ अन्य लोग भी हैं जो उस पर हमला कर देते हैं और विक्रम पीछे छिपकर सूरज की पीठ में छुरा घोंप देता है|
अब सूरज की समझ में आ जाता है कि विक्रम उसे जान से मारने के इरादे से अपने गुंडों को लेकर आया है| वह विक्रम से प्रार्थना करता है कि उसे न मारे, उसकी पत्नी कुछ ही दिन में मरने वाली है, उसके बच्चे अनाथ हो जायेंगे…
और इरफ़ान का इन दृश्यों में बेबस होकर अपने प्राणों की भीख मांगना ऐसा है कि जिस बात के लिए वह गिडगिडा रहा है, उसका असर दर्शक को प्रभावित कर जाता है|
इस फ़िल्म से ज्यादा भावुकता, निराशा, असुरक्षा, और गिडगिडाने के भाव इतनी कुशलता से किसी पुरुष अभिनेता ने मुश्किल से ही हिंदी सिनेमा में दर्शाए होंगे जैसे इरफ़ान ने तुलसी के कुछ दृश्यों में कर दिखाया है|
फिल्म की शूटिंग बहुत ही अच्छी जगह पर हुयी है, जहां का प्राकृतिक सौंदर्य मन मोह लेता है| किसी और बात के लिए न भी सही लेकिन इरफ़ान खान और यशपाल शर्मा के बीच मुठभेड़ के दृश्यों में घायल इरफ़ान के अभिनय के लिए इसे देखा जाना चाहिए| हिंदी सिनेमा के मुख्य चरित्रों को निभाने वाले अभिनेता कभी कभार ही ऐसी बेबसी, तड़पन, और मानवीय कमजोरी को परदे पर प्रदर्शित कर पाते हैं|
…[राकेश]
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