विजय आनंद ने एक निर्देशक के तौर पर अद्भुत गीतों को सिनेमा के परदे पर जन्माया है|
विजय आनंद ने शुरू की नौ फ़िल्मों में से एक तीसरी मंजिल को छोड़कर शेष 8 फ़िल्में देव आनंद को नायक बनाकर ही बनाई थीं| तीसरी मंजिल भी निर्माता नासिर हुसैन और निर्देशक विजय आनंद ने देव आनंद को ध्यान में रखकर ही विकसित की थी लेकिन बाद में नासिर हुसैन और देव आनंद के मध्य कुछ रचनात्मक मतभेदों के कारण देव आनंद फ़िल्म छोड़ गए और शम्मी कपूर फ़िल्म से जुड़ गए|
गाइड बनने के बाद हिंदी सिनेमा में विजय आनंद– देव आनंद की जोड़ी को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक-अभिनेता की जोड़ी सभी ने मान लिया था| जलनखोर लोग इस जोड़ी को तोड़ने के प्रयास में भी लग गए थे तब भी इस जोड़ी ने इसके बाद भी तीन और सुपर क्लास फ़िल्में और दो साधारण फ़िल्में साथ बनाईं| देव आनंद को अभिनेता से आगे जाकर एक निर्देशक बनने के आकर्षण ने घेरा तो विजय आनंद को इस बात ने आकर्षित किया कि एक तो वे अभिनय में भी अपने गुण दिखाएँ और दूसरे देव आनंद से अलग सुपर हिट फ़िल्में बनाएं| तीसरी मंजिल एक सुपर हिट फ़िल्म थी लेकिन वह शुरू में देव आनंद की छवि के इर्द गिर्द बुनी फिल्म थी और अब वे शुरू से ही किसी और अभिनेता के साथ एक अच्छी और सफल फ़िल्म बनाना चाहते थे| उधर प्रेमपुजारी के अति साधारण प्रदर्शन के बाद देव आनंद भी हरे राम हरे कृष्ण के रूप में एक सुपर हिट फ़िल्म निर्देशित कर चुके थे और दोनों भाई मानसिक रूप से एक दूसरे से स्वतंत्र हो चुके थे|
विजय आनंद साइंस फिक्शन, सामाजिक और थ्रिलर तत्वों को मिला कर एक फ़िल्म बनाने की संकल्पना पर विचार कर रहे थे और उन्हें ब्लैकमेल का विचार सूझ गया| भारत ऊर्जा संकट से प्रभावित देश रहा है, सो ब्लैकमेल में फ़िल्म के साइंस वाले भाग में विजय आनंद ने सौर ऊर्जा पर शोध आधारित बैटरी के उत्पादन को केंद्र में रखा, और इसी के फ़ॉर्मूले की चोरी के ऊपर थ्रिलर वाला भाग केन्द्रित किया और सामाजिक भाग को प्रेम त्रिकोण और दोस्ती में धोखेबाजी को दर्शाया|
कल्याण जी आनंद जी का संगीत अच्छा प्रसिद्ध रहा है, विशेषकर किशोर कुमार के दो गीत, – पल पल दिल के पास तुम रहती हो, और – शरबती तेरी आँखों की गहराई में मैं डूब जाता हूँ, बहुत सुने जाने वाले गीत हैं| लता मंगेशकर प्रशसंक लता जी के दोनों गीतों – आशा ओ आशा , और – नैना मेरे रंग भरे, को भी खूब सुनते हैं| इन चारों एकल गीतों के मध्य एक दोगाना (किशोर–लता) पीछे रह जाता है|
फ़िल्म के संगीत के ऑडियो संग्रह में दोगाना – मिले मिले दो बदन, इतना नहीं सुना जाता लेकिन जो गीतों के फिल्मांकन को देखा करते हैं, और यूट्यूब आदि पर फिल्मों के गीतों के वीडियो देखकर ही गीत सुना करते हैं, उन संगीत और फ़िल्म रसिकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण गीत बन जाता है विजय आनंद द्वारा इस गीत को एक अनूठा फिल्मांकन प्रदान करने के कारण|
जहां न जाए रवि, वहां पहुँच जाए कवि जैसे भावों को लिए विजय आनंद ने इस गीत के फिल्मांकन की योजना बनाई होगी| पर पहले दो स्थितियां –
(1) ऐसा किशोरावस्था में बहुत से लोग करते हैं कि ऐसी स्थिति सामने रखते हैं कि अगर व्यक्ति को यह पता लग जाए कि जीवन का यह आख़िरी दिन/घंटा/ मिनट है तो उस सीमित अवधि में एक जीवित व्यक्ति क्या करेगा? सभी लोग इस स्थिति में अपने जीवन की वास्तविक स्थितियों के अनुसार, अपने स्वभाव, अपनी प्रकृति और उस समय अपनी मानसिक अवस्था के अनुसार अलग अलग बातों का वर्णन करते हैं जो कि वे उस लघु अवधि में अपनी अंतिम सांस लेने से पूर्व करना चाहेंगे|
(2) अंगरेजी शासन के काल में किसी समय की बात है| काशी नरेश को सर्जरी सुझाई गयी| समस्या यह थी कि काशी नरेश ने तब तक कभी भी एलोपैथी की कोई दवाई नहीं खाई थी और उन्होंने सर्जरी के लिए बेहोशी का इंजेक्शन लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया| आमंत्रित अंग्रेज डॉक्टर परेशान थे कि बिना मरीज को एनेस्थिसिया देकर बेहोश किये हुए सर्जरी कैसे की जायेगी? काशी नरेश ने डॉक्टर से कहा कि वे सर्जरी करें और वे ध्यान में बैठेंगे| डॉक्टर को विश्वास नहीं हुआ कि ऐसी एब्सर्ड बातें भी कोई पढ़ा लिखा आदमी और वह भी राजा स्तर का व्यक्ति, कर सकता है| नरेश के आग्रह पर सर्जरी शुरू की गयी| काशी नरेश ध्यान में डूब गए और उनकी सर्जरी संपन्न हुयी| उन्होंने अंग्रेज डॉक्टर को बिना किसी दावे के प्रत्यक्ष दिखा दिया कि जीवित रहते व्यक्ति योग साधना के माध्यम से अपने शरीर से अलग अपनी चेतना को नियंत्रित कर सकता है और कि व्यक्ति, अगर उसका नियंत्रण है तो, अपने आसपास घट रहे किसी भी तरह के घटित से अपने को सर्वथा अलग कर सकता है|
विजय आनंद वास्तविक जीवन में स्वंय ध्यान के अभ्यासी बन चुके थे और ध्यान संबंधी प्रयोग किया करते थे|
ब्लैकमेल फ़िल्म में नायक कैलाश (धर्मेन्द्र) और नायिका आशा (राखी) की शादी की पहली रात शुरू होने से पहले ही नायक का दोस्त – जीवन (शत्रुघ्न सिन्हा), जिसने यह विवाह करवाया है, उनके वैवाहिक जीवन को मार डालने के लिए ज़हर का इंजेक्शन लगा देता है जिससे धीरे धीरे यह रिश्ता मरता जाए| ऐसा होता भी है, एक मोड़ पर आकर पति पत्नी के मध्य गलतफहमियां दूर होकर थोड़ा सुधार होता है तो फिर से उनके जीवन में खलनायक उपद्रव मचा देते हैं|
फ़िल्म के लगभग क्लाइमेक्स में नायक-नायिका खलनायक के गुंडों से अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हैं और गुंडों को बिलकुल नजदीक पाकर निहत्थे नायक-नायिका विवश होकर जंगल में लकड़ी की एक टाल में कटी हुयी लकड़ियों के ढेर के अन्दर जगह बनाकर घुस जाते हैं|
अब फ़िल्म के अंतिम 10-15 मिनट में, वह भी तब जब एक्शन का टाइम है, कौन निर्देशक सोच सकता है कि वह तो यहाँ एक युगल गीत रखेगा!
विजय आनंद कोई साधारण निर्देशक तो थे नहीं अतः उन्होंने ऐसा सोचा ही नहीं बल्कि इस तरह से करके दिखाया कि हिंदी सिनेमा के सारे इतिहास में दूसरा ऐसा कोई गीत है ही नहीं| पूरी फ़िल्म की बात न करके सिर्फ इसी एक गीत पर चर्चा की जा सकती है|
चारों तरह गुंडे बंदूकें, और अन्य हथियारों सहित नायक नायिका को खोज रहे हैं और उनसे कुछ ही कदम की दूरी पर पड़े हुए लकड़ी की बल्लियों के ढेर के अन्दर नायक नायिका आधी सांस लिए छिपे हुए हैं| अन्दर जितनी जगह है और जिस जल्दबाजी में वे घुसे हैं उससे नायक के पैर नायिका के चेहरे की ओर और नायिका के पैर नायक के चेहरे के पास हैं|
पूरे विवाहित जीवन में वे इतना पास कभी नहीं रहे कि दो मिनट इतनी निकटता में साथ बैठ सकते| बाहर मौत खडी है, एक हल्का सा सुराग और दोनों को इस जीवन से छुटकारा दे दिया जायेगा| और शायद किशोरों द्वारा पूछी गयी बात कि अगर कुछ ही मिनट हों आदमी के पास तो वह क्या करेगा, यहाँ लागू हो जाती है, और नायक नायिका तो कहीं जाने क्या हिलने के लिए भी स्वतंत्र नहेने हैं, सो उनके शरीरों के आपसी स्पर्श के माध्यम से वैवाहिक जीवन में पहली बार एक दूसरे के लिए स्नेह की भावनाएं रईस कर एक दूसरे की ओर जाने लगती हैं और महीनों से गैर हाजिर रहा वैवाहिक जीवन का साथ वे कुछ पल में यहाँ जी लेते हैं|
काशी नरेश की भांति वे अपने को बाहर घटते हुए माहौल से अपने को कुछ पलों के लिए अलग कर लेते हैं, उनके इर्द गिर्द भय का माहौल तो है पर वे इस नरक में भी दोनों की नज़दीकी से उपजे प्रेम से एक स्वर्ग का निर्माण भी कर लेते हैं|
जिसे सिनेमा और देश ही-मैन कहने लगा था वह अभिनेता (धर्मेन्द्र) ररदे पर अब तक जो खोया और अब जो मिला तो जिस स्थिति में मिला उसमें कितनी देर तक कायम रहेगा और अपने पत्नी के प्रति अपने उदासीन व्यवहार पर लज्जित हो आंसू बहाता दिखाई देता है|
वह जब नायिका के पैरों से कांटे खींच कर निकालता है तो दर्द और नायक के ऐसा करने के स्नेह भरे अहसास से नायिका की सिसकी निकलने को हो जाती है जिसे रोककर और दर्द को सहकर इस नजदीकी और प्रेम के बंधन और प्रदर्शन से वह हल्की सी मुस्कान चेहरे पर लाती है और विजय आनंद ये सब सूक्ष्म बातें कैमरे से पकड़वाते हैं|
राखी की भूरी आँखों के क्लोज अप शॉट्स, धर्मेन्द्र की पनहीली आँखें और सूखे होठों और चेहरे पर पत्नी को बचाने के लिए भय के भाव, सब कुछ इतनी नजदीकी से कैमरा दिखाता है कि विजय आनंद द्वारा प्रस्तुत यह गीत दर्शक को नायक नायिका के वर्तमान जीवन की स्थिति में उनके बगल में ही ले जाकर बिठा देता है और उनके साथ दर्शक भी बन्दूक लिए घूम रहे शिकारी गुंडों से बचने के रास्ते खोजने लगता है|
कल्याण जी आनंद जी की धुन पर राजेन्द्र कृष्ण ने जो बोल लिखे वे नायक नायिका के वैवाहिक जीवन के उतार चढ़ाव और आज अभी की स्थिति को सटीकता से बयान कर देते हैं|
मिले, मिले दो बदन
खिले, खिले दो चमन
यह जिंदगी कम ही
सही, कोई गम नहीं
तेज गति से भागता गीत एक तरह से बैक ग्राउंड म्यूजिक जैसा लगता है जहां नायक नायिका की भावनाएं गीत के बोल प्रकट कर रहे हैं|
देर से आई, आई तो बहार
अंगारों पे सोकर जागे प्यार
तूफानो में फूल खिलाये
कैसा यह मिलन
मिले मिले दो बदन
होंठ वही है, है वही मुस्कान
अब् तक क्यूँ कर दबे रहे अरमान
बीते दिनों को भूल ही जाएँ
अब हम तुम सजन
मिले मिले दो बदन
और अगर प्रेमी की पंक्ति में सवाल है पछतावा है तो नायिका की पंक्ति में दिलासा है, उसे पछतावे से बाहर लेन का आश्वासन है|
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विजय आनंद की शुरू की नौ फिल्मों की गुणवत्ता की तुलना में ब्लैकमेल काफी साधारण है| धर्मेन्द्र और शत्रुघ्न सिन्हा मिलकर भी वैसा असर परदे पर नहीं ला पाते जैसा देव साब विजय आनंद की फिल्मों में अकेले ही ले आये थे उस समय तक की फिल्मों में|
ब्लैकमेल को विजय आनंद के निर्देशन में जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत है और उस दौर में बहुत से निजी कारणों से उनकी रचनाधर्मिता प्रभावित होने लगी थी| इस दौर के विचलन के बाद वे देव आनंद के साथ (छुपा रुस्तम और बुलेट) भी पहले जैसी कालजयी फ़िल्में नहीं बना पाए| और निर्देशकों की तुलना में उनकी सत्तर के दशक की फ़िल्में और अस्सी के दशक में प्रदर्शित फ़िल्में (राम बलराम और राजपूत) अच्छी गुणवत्ता वाली हैं लेकिन ये चारों फ़िल्में उनके शीर्ष प्रदर्शन के काल की फिल्मों जैसी चमकदार नहीं हैं|
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