लखनऊ के इतिहासकार योगेश प्रवीण ने लखनऊ का एक पुराना किस्सा सुनाया जो बेहद लोकप्रिय हो गया| ******** "1920 में लखनऊ में पहली बार म्यूनिसिपैलिटी के चुनाव हुए तो चौक के इलाक़े से कारपोरेटर के चुनाव के लिये लखनऊ की मशहूर... Continue Reading →
प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक बाबूराव पटेल ने दलीप कुमार की पहली फिल्म ज्वार भाटा (1944) की समीक्षा में दलीप कुमार की बेरहमी से आलोचना की थी| Review Courtesy : Jhinjhar @ IMDB
और क्या अहद-ए-वफ़ा होते हैंलोग मिलते हैं, जुदा होते हैं कब बिछड़ जाए, हमसफ़र ही तो हैकब बदल जाए, एक नज़र ही तो हैजान-ओ-दिल जिसपे फ़िदा होते हैं और क्या अहद-ए-वफ़ा होते हैं जब रुला लेते हैं जी भर के... Continue Reading →
ज़हीन आप के दर पर सदाएँ देते रहेजो ना-समझ थे वो दर-दर सदाएँ देते रहे (~वरुन आनन्द) संजीव कुमार और गुलज़ार की शानदार सिनेमाई जोड़ी की अंतिम दो प्रस्तुतियों में से एक है "नमकीन"| नमकीन में एक गीत है -... Continue Reading →
कौन बदन से आगे देखे औरत कोसब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में (~हमीदा शाहीन) पश्चिमी देशों में ऐसे बहुत सारे पुरुष डॉक्टर्स मिलेंगे जो स्त्री-रोग विशेषज्ञ हैं, प्रसूति विभाग के अध्यक्ष हैं, बल्कि अक्सर ही सबसे ज्यादा जाने... Continue Reading →
हिंदी सिनेमा में तीन ऐसे खुशनुमा चेहरों वाली अभिनेत्रियाँ रही हैं जिनके चेहरों पर उदासी कभी भी फ़बी नहीं और उनके उदास चेहरे देख दर्शक भी बैचेनी महसूस करने लगते हैं कि ये स्त्रियाँ हंस क्यों नहीं रहीं? क्योंकि उनकी... Continue Reading →
ओटीटी मंचों पर देखने लायक कोई हल्की फुल्की फिल्म खोजी जा रही हो या ऐसी कोई फिल्म एकाएक सामने आ जाए तो ऐसी फिल्मों के वर्ग में लेखक, निर्देशक और निर्माता लव रंजन का नाम अपनी विश्वसनीयता कायम कर चुका... Continue Reading →
नवोदित निर्देशक के तौर पर आर्यन खान ने आत्मविश्वास से भरी शुरुआत की है| उनकी वेब सीरीज की सामग्री को देखा जाए तो भाषा के स्तर पर वह कुछ वर्षों पूर्व AIB के एक कुख्यात कार्यक्रम जैसी है, जिसे अंततः... Continue Reading →
दुखांत न भी हों लेकिन दुःख भरे मार्गों से गुजरने वाली प्रेम कहानियों पर आधारित महत्वपूर्ण हिन्दी फ़िल्में हर दशक में 2-3 के औसत से बनती ही आ रही हैं| कभी लता मंगेशकर के आयेगा आने वाला गीत (महल) को... Continue Reading →
वो कमसिन हैं उन्हें मश्क़-ए-सितम को चाहिए मुद्दतअभी तो नाम सुन कर ख़ंजर-ओ-पैकाँ का डरते हैं [~ हाज़िक़] ओटीटी के भारत में पैर जमाने से दो अच्छे काम सिनेमा के माध्यम में हुए, एक तो बचपन को समाहित करने वाली... Continue Reading →
उपन्यास में एक सहूलियत होती है कि लेखक घटनाओं को विस्तार दे सकता है, इधर उधर की व्याख्या या वर्णन कर जो दर्शाना है उसे ज्यादा गहराई और विस्तार से पाठक को समझा सकता है| एक कहानी जैसी कहानी तो... Continue Reading →
निर्देशक सार्थक दासगुप्ता की फ़िल्म - Music Teacher के पास, एक कहानी है, जिसे उन्होंने स्वंय ही लिखा है, और उसके भावों को विस्तार और गहराई से दर्शकों तक पहुंचाने के लिए अच्छे अभिनेता, शानदार कैमरा निर्देशक एवं स्वंय का... Continue Reading →
लेखक निर्देशक बाबू राम इशारा की बहुचर्चित व कुख्यात फ़िल्म चेतना में कैमरे के विशिष्ट प्रयोग किये गए, जिन्होंने दर्शकों के सम्मुख भ्रम उत्पन्न किये, सेंसर बोर्ड के सदस्यों ने भी भ्रम को सच मान इसे "A" श्रेणी में सर्टिफाइड... Continue Reading →
पंचायत के सीज़न 4 का मुख्य शरीर ग्राम प्रधान के चुनाव के इर्दगिर्द पसरी राजनीति से बना है और बाकी उप-कथाएं इधर उधर पैर पसारती हैं| इस बार राजनीति के अखाड़े में ग्राम प्रधान के चुनाव में यूं तो आमने... Continue Reading →
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