बुरे विचार, बुरे संस्कार और झूठी शानो-शौकत के भुलावे सात संमुदर पार भी पीछा नहीं छोड़ा करते। वे सब मनुष्य के साथ इस तरह स्थायी पैरहन की तरह चिपके रहते हैं जैसे कर्ण के साथ उसके कवच और कुंडल। दूसरे देश में और दूसरे परिवेश में जाकर आदमी धन-दौलत तो इकट्ठा कर लेता है और अति-आधुनिक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन शैली अपना लेता है पर अपने पुरातनपंथी विचारों का साथ नहीं छोड़ पाता। वह दूसरे देश में भी अपनी पुरानी दुनिया का क्लोन बनाकर दोहरी ज़िंदगी जीने लगता है। घर से बाहर तो उसे उस देश के मूल निवासियों एवम नागरिकों की तरह के अधिकार और सुख-सुविधायें चाहियें और राज्य से इन सब लाभों को पाने के लिये वह किसी हद तक जा सकता है पर अपने घर की चारदीवारी के अंदर वह चाहता है कि उस देश, जहाँ वह प्रवासी है, के कानून प्रवेश न करे। घर से बाहर अपने लिये वह लोकतंत्र की सबसे प्रभावशाली स्वतंत्रता चाहता है पर अपने घर में वह अपना पुरातनपंथी शासन लादना चाहता है। उसकी पत्नी और बच्चे, उसकी निजी मिल्कियत हैं। वह जैसे चाहे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ व्यवहार करे।
ऐसा विकसित पश्चिमी देशों में रहने वाले प्रवासी समुदाय के लगभग हर घर में होता है। भिन्न सभ्यताओं के इस संघर्ष पर ढ़ेरों किताबें लिखी जा चुकी हैं, हजारों कहानियाँ छप चुकी हैं, ढ़ेरों फिल्में बन चुकी हैं।
प्रवासी लोग अपनी पुरातनपंथी विचारधाराओं को बनाये रखने के तरीके खोज ही लेते हैं। वे तो दोहरी ज़िंदगी जीते रहते हैं पर असली दिक्कत होती है उनके बच्चों को। वे एक बिल्कुल ही नयी पीढ़ी के नुमाइंदे हैं। उनका जन्म इन विकसित पश्चिमी देशों में हुआ होता है, वे वहीं पले बढ़े होते हैं। उनके माता-पिता उन्हे अपने मूल देश की सामाजिक बुराइयाँ भी ओढ़ाना चाहते हैं और ये बच्चे अपने माता-पिता के मूल देश की सामान्य बातों को भी नहीं समझ पाते हैं क्योंकि स्कूल में और अपने हमउम्र साथियों के साथ वे एक अलग ज़िंदगी समझ रहे होते हैं।
बचपन में स्कूल में जाते ही सबसे पहली परेशानी उन्हे होती है अपनी त्वचा के रंग को लेकर। उनके माता-पिता तो कार्यस्थल पर कुछ घंटे बिताकर अपने समुदाय के लोगों के मध्य समय व्यतीत करते हैं पर बच्चों को तो उस देश के मूल निवासियों के बच्चों के साथ पढ़ना पड़ता है। बच्चे हर जगह एक से होते हैं और हर जगह के बच्चे अलग रंग-रुप के बच्चों से कुछ दूरी महसूस करते हैं, कुछ उन्हे चिड़ाते भी हैं। प्रवासी लोगों के बच्चे एक बहुत ही जटिल बचपन से गुजरकर स्कूली शिक्षा समाप्त करते हैं। किशोरवास्था आने तक उनकी हालत ऐसी हो जाती है कि उन्हे ऐसा लगता है कि उन्हे अलग अलग दिशाओं में खींचा जा रहा है। माता-पिता चाहते हैं कि वे उनके मूल देश की परिभाषाओं के अनुसार संस्कारी बनें जबकि इन सामाजिक संस्कारों का वहाँ कोई अर्थ नहीं हैं। और दूसरी तरह मूल देश का वातावरण उन्हे बताता है कि उन्हे यहीं रहना है, तरक्की करनी है तो यहीं के परिवेश को अपनाकर ही ऐसा हो सकता है वर्ना वे जटिलता से भरा हुआ जीवन जीने के लिये विवश हो जायेंगे। प्रवासी लोग विकसित देशों में भी हर बात में अपनी ही मर्जी अपने बच्चों पर लादते हैं।
भारत से गये लोगों में तो यह बीमारी बहुत बड़ी है। अगर माँ-बाप भारत में इंजीनियर, डॉक्टर या अन्य सम्मानजनक डिग्रियाँ न ले पाये तो वहाँ पश्चिमी देशों में वे अपने बच्चों को विवश करते हैं कि इन डिग्रियों को लेने के लिये पढ़ो और अपने जीवन एक अंधी दौड़ में होम कर दो। जबकि वहाँ इतनी सहुलियतें हैं, इतना खुला और प्रेरक वातावरण है कि बचपन से ही अपनी मनचाही दिशा में विकास किया जा सकता है और ज़िंदगी को सुलझे तरीके से जिया जा सकता है।
अगली और सबसे बड़ी दिक्कत प्रवासी लोगों के बच्चों के सामने तब आती है जब वे युवावस्था में कदम रखते हैं और परिवार के लोग उनसे अपेक्षा करते हैं कि भले ही वे विकसित देशों की स्वतंत्र हवा में सांस लेकर बड़े हुये हों, और भले ही परिवेश हरेक को अपने निर्णय खुद लेने की क्षमता प्रदान करता हो पर उनके विवाह वहीं होंगे जहाँ उनके माता-पिता चाहेंगे। भारत से गये जो समुदाय दूसरे देशों में संस्थागत तरीके से सामुहिक सामुदायिक पॉवर इकट्ठी करके रहते हैं उन समुदायों में ऐसा बहुत ज्यादा है।
नाक का सवाल ऐसे समुदायों में बहुत बड़ा है। झूठी शान उनके साथ ताउम्र चिपकी रहती है और इस झूठी शान की खातिर अगर उन्हे अपने अजीज़ों की बलि भी चढ़ानी पड़ जाये तो वे ऐसा कर गुजरने से परहेज नहीं करते।
कुछ दशक पहले तक बहुत सारे पश्चिमी देशों में कानून बहुत हद तक मानवीय हुआ करते थे। प्रवास के कानून तक ढ़ीले ढ़ाले थे। जैसे जैसे प्रवासी लोगों की आमद बढ़ती रही और वे अपने साथ अपने यहाँ की बुराइयाँ साथ लाने लगे, कानून सख्त होते चले गये। अपराधी किस्म के प्रवासियों के कारण सभी के लिये सख्त से सख्त कानून बनते चले गये। कनाडा जैसे देश तो प्रवास को बहुत ज्यादा समर्थन देते थे। पर लोगों ने अच्छी व्यवस्थाओं का दुरुपयोग किया और माहौल बिगाड़ने में सक्रिय भूमिका निभायी। गलत तरीके से प्रवास पाना ऐसे दुरुपयोगों में सबसे ऊपर था। ऐसे-ऐसे केस भी सामने आये जहाँ भाई-बहन पति-पत्नी बन कर पश्चिमी देशों के अधिकारियों को धोखा देकर वहाँ जाकर बसने में कामयाब हो गये। ऐसे धोखेबाजों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि भारत की साख पर ऐसी कारगुजारियों का कितना बुरा असर पड़ता है।
ऐसे ही लोग पश्चिम से कमाये धन से भारत में अपने मूल राज्य में जाकर अपनी शानो-शौकत दिखाते है और वहाँ भी भिन्न किस्म की गैर-कानूनी हरकतें करते रहते हैं। कानून व्यवस्था को वे अपने पैसे के बल पर खरीदने का विचार वे हरदम अपने साथ लेकर चलते हैं।
Murder Unveiled के नायक- सु्रिन्दर सिंह (Chenier Hundal) और नायिका – देविन्दर सामरा (Anita Majumdar) ऊपर ऐसी ही बातों के शिकार बनते हैं। यह फिल्म कनाडा निवासी जसविंदर कौर सिद्धू (उर्फ जस्सी) की दर्दनाक हत्या पर आधारित है। पंजाब में ऑनर किलिंग कोई नया मामला नहीं है बल्कि बहुत समय से ऐसे मामले सामने आते रहे हैं जहाँ अपने स्तर से कम स्तर वाले के साथ शादी करने पर माता-पिता ने अपनी ही संतान को मार डाला है।
अट्ठारह वर्षीय देविन्दर कनाडा से अपने माता-पिता के साथ भारत आयी है पंजाब में अपने किसी रिश्तेदार की शादी में भाग लेने। रिश्तेदार के छोटे कस्बे में रहने वाले सुरिन्दर के साथ उसकी मुलाकात कबड्डी के एक मैच के दौरान होती है और दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित हो जाते हैं। रोमियो की तरह, नये जन्मे प्रेम की भावनाओं के वशीभूत होकर सुरिन्दर, देविन्दर के कमरे की खिड़की के बाहर पहुँच जाता है जहाँ उसे पता चलता है कि देविन्दर तो असल में कनाडा निवासी है और अगले दिन वापिस कनाडा जा रही है।
सुरिन्दर टैम्पो चलाकर अपनी जीविका कमाता है और रेलवे स्टेशन पर देविन्दर को कहता है कि वह उसकी नियति है।
अगले कुछ समय तक वे खतों के जरिये सम्पर्क में रहते हैं और अपनी भावनाओं का इजहार करते हैं। परिवार के दुर्भाग्य से और देविन्दर के सौभाग्य से उसकी नानी के बीमार पड़ने के कारण सामरा परिवार फिर से भारत आता है और अपने माता-पिता के उनकी पसंद वाले लड़के से इसी यात्रा में शादी करने के दबाव के कारण देविन्दर चुपके से सुरिन्दर से शादी कर लेती है।
वह सोचती है कि वह चुपके से सुरिन्दर को कनाडा बुला लेगी और वहाँ वे दोनों आसानी से वैवाहिक जीवन को आरम्भ कर सकते हैं। पर वह प्रवास के कानूनों से परिचित नहीं है और उसकी अर्जी खारिज़ कर दी जाती है क्योंकि वह सुरिन्दर के बारे में ज्यादा नहीं जानती है। उसके कनाडा में प्रयास करने और सुरिन्दर के भारत में प्रयास करने के कारण इमीग्रेशन विभाग के अधिकारी उसके घर आते हैं और देविन्दर के माता-पिता पर उसकी शादी की बात जाहिर हो जाती है। यह रहस्योदघाटन देविन्दर और सुरिन्दर के जीवन पर गाज गिराने के लिये काफी है। जब दबाव काम नहीं करता तो देविन्दर के माता-पिता उससे चालबाजी करके पंजाबी में लिखी अर्जी पर दस्तखत करवा लेते हैं यह कहकर कि इससे वे सुरिन्दर को कनाडा बुला सकते हैं। देविन्दर पंजाबी बोल और समझ सकती है पर वह पढ़ नहीं सकती। जब तक उसे पता चलता है उसके साथ धोखा हुआ है उसके पिता भारत जाकर सुरिन्दर की ज़िंदगी पुलिस की सहायता से नर्क बनाने के कार्य में जुट जाते हैं।
कनाडा में जन्मी और पली-बढ़ी देविन्दर 911 डायल करके अपने अधिकार का प्रयोग करके घर की कैद से स्वतंत्र होकर भारत तो आ जाती है। देविन्दर के माता-पिता के लिये यह बात मुख्य है कि उनके समुदाय के लोगों में उनकी नाक ऊँची रहे और वे कोशिश करते हैं कि सुरिन्दर को इतना प्रताड़ित किया जाये जिससे कि वह देविन्दर को तलाक दे दे। न मानने पर देविन्दर के पिता के गुण्डे सुरिन्दर को अधमरी हालत में सड़क पर छोड़ देते हैं और देविन्दर का अपहरण कर लेते हैं।
देविन्दर के माता-पिता को अपनी साख बचानी है और वे समझते हैं कि अब जब सुरिन्दर मर गया है तो देविन्दर उसे भूलकर उनके पास वापस कनाडा आ जायेगी। देविन्दर को अपनी स्मृतियों में बसाकर जीने की बात करने वाली बेटी उनके लिये कलंक के समान है और समुदाय में साख कायम रखने के लिये ऐसे कलंक का मिट जाना श्रेयकर है।
साख का सवाला इतना बड़ा हो जाता है कि एक माँ फोन पर अपने खरीदे गुण्डों से कह दे कि मार दो मेरी बेटी को? हजारों किमी दूर गुण्डों के चंगुल में फंसी बेटी की चीख पुकार को फोन पर सुनते उसके कान उसकी ममता को नहीं झझकोरते तो वाकई नाक उसकी बहुत ऊँची रही होगी।
फिल्म तो दिखाती है कि अंत में गुरद्वारे में देविन्दर के अंतिम संस्कार की प्रार्थना सभा के बाद उनके समुदाय के लोग उनसे मुँह मोड़ कर चले जाते हैं पर वास्तविक जीवन में ऐसा कतई होता नहीं दिखायी देता और ऑनर किलिंग की शिकार जस्सी के परिवार वाले आज भी अपनी धन-दौलत के बलबूते सामाजिक जीवन जी रहे हैं। जस्सी के कनाडियन सहपाठी और मित्र उसकी याद में आँसू बहा सकते हैं पर उसके परिवार के लोग आज भी जस्सी के पति मिट्ठु को भारत में प्रताड़ित करने का कोई भी मौका नहीं चूकते। अपनी पुत्री के प्रति उनका प्यार इतना ज्यादा था कि एक बार वे एक साठ वर्षीय धनी कनेडियन सिख से उसकी शादी कर रहे थे।
जस्सी के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ा जा सकता है। Justice For Jassi
भारत में पुलिस जाँच में जस्सी की माँ और उसके मामा को उसकी हत्या की साजिश करने और गुण्डों को इस काम के लिये खरीदने का दोषी पाया गया पर दोनों को कनाडियन अधिकारी अभी तक भारत को नहीं सौंप सके हैं। जस्सी के मित्र न्याय की आस लगाये हुये हैं। जस्सी के पति को भी आशा है कि एक दिन असली दोषी सजा जरुर पायेंगे।
Vic Sarin की फिल्म, कमजोरियों के बावजूद, विषय को ऐसे ढ़ंग से प्रस्तुत करती है कि देविन्दर और सुरिन्दर के साथ दर्शकों की भावनायें जुड़ जाती हैं। फिल्म के लिहाज से जस्सी की मूल कथा में कुछ बदलाव किये गये हैं। फिल्म में एक अटपटी बात लगती है कि पटकथा लेखकों एवम निर्देशक दिखाते हैं कि देविन्दर के सुरिन्दर के लिये कनाडा आने का प्रबंध करने के लिये वह इमीग्रेशन विभाग के एक उच्चाधिकारी से मिलती है और वह उसे बताता है कि देविन्दर कभी भी कनाडा नहीं आ सकता क्योंकि उस पर आतंकवाद के आरोप हैं। बाद में पूछने पर सुरिन्दर देविन्दर को बताता है पंजाब में आतंकवाद मामले में आरोपी बनाया गया और बाद में सब मामले खत्म हो गये। देविन्दर को अट्टारह साल की दिखाया गया है। सुरिन्दर हद से हद पच्चीस से लेकर अट्ठाइस साल के बीच की आयु का होगा जब वह देविन्दर से शादी करता है, उस लिहाज से क्या देविन्दर को बचपन में ही आतंकवाद में लिप्त होने का आरोपी बना दिया गया था। यह फालतू का कोण लेखकों एवम निर्देशक ने फिल्म में एक बेहद महत्वपूर्ण समय पर ठूँसा।
देविन्दर की भूमिका को Anita Majumdar बड़े ही प्रभावी ढ़ंग से प्रस्तुत कर गई हैं। देविन्दर का अपना जीवन अपने ढ़ंग से जीने की इच्छा, प्रेम में होने से जगी भावनाओं, प्रेम के कारण उत्पन्न परेशानियों का मुकाबला करने का साहस, प्रेमी और माता-पिता के बीच बँटी भावनाओं, और अन्य बहुत सारे भावों को उन्होने उजागर किया है। यह उनकी पहली ही फिल्म थी और इस लिहाज से यह अच्छा प्रयास था। परवरिश से वे बंगाली मूल की कनेडियन हैं पर उन्होने एक पंजाबी मूल की कनेडियन लड़की को बहुत अच्छे ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। Chenier Hundal भी उतने प्रभावी नहीं लगे सुरिन्दर की भूमिका में। उनका काम कठिन था क्योंकि Anita Majumdar की तरह वे कनेडियन चरित्र नहीं निभा रहे थे बल्कि उन्हे एक पंजाबी ग्रामीण की भूमिका निभानी थी और इस काम के लिये यदि किसी विदेशी अभिनेता को लिया जायेगा तो उसके अभिनय प्रदर्शन में वांछित गहराई आ पाना थोड़ा मुश्किल काम है। भावनाओं को अच्छे ढ़ंग से प्रस्तुत करने के बावजूद वह लोकल टच गायब रहता है जो अभिनय प्रदर्शन को और ज्यादा स्वीकृती दिलवा सकता था।
बहरहाल फिल्म को कनाडा की जनता के लिये बनाया गया था और उस लिहाज से यह जस्सी हत्याकांड के बहुत सारे पहलुओं पर रोशनी डालती है और दर्शकों को भारत में व्याप्त ऑनर किलिंग की अमानवीय सामाजिक बुराई के ऊपर विचार करने के लिये प्रेरित करती है और खासतौर पर भारतीय मूल के कनेडियन लोगों को सोचने के लिये प्रेरित करती है।
भारत से लौटने पर जस्सी ने अपनी दोस्तों से कहा था कि उसकी प्रेमकहानी और उसके जीवन पर फिल्म बन सकती है। तब जस्सी को ऐसा भान भी नहीं होगा कि उसके जीवन पर फिल्म तो बनेगी पर वह खुद इस घटना को देखने के लिये जीवित नहीं रहेगी और उसका जीवन ऑनर किलिंग की भेंट चढ़ जायेगा।
जस्सी हत्याकांड पर आधारित कनेडियन टेलीविज़न की डॉक्यूमेंटरी –The Murdered Bride
…[राकेश]
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