Vinod Khanna1सन 1984 के किसी दिवस की बात है| एक शिष्य अपने गुरु दवारा बसाए गये शहर में उनके आवास के बाहर रोते हुए गुरु की निजी सचिव से कह रहा है,” भगवान, ने मुझे किस मुसीबत में डाल दिया| मुझे तो भीतर कहीं प्रतीत नहीं होता कि मुझे बुद्धत्व प्राप्त हो गया है| भगवान ने मेरा नाम उस सूची में कैसे रख दिया| दो दिन से मैं सो नहीं पाया हूँ| भगवान को गलत भी नहीं कह सकता पर अपने अंदर के सच को भी जानता हूँ| मैं तो दो हिस्सों में बंट गया हूँ| भगवान से कहो मुझे सच बता दें|”

मसला सिर्फ इतना सा था कि आश्रम में एक सूची जारी गई थी जिसमें इक्कीस ऐसे संन्यासियों के नाम थे जिनके बारे में कहा गया था कि उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो गया है| और यह शिष्य, जो कि गुरु के व्यक्तिगत बगीचे में माली का काम देखता है, इसीलिये अपने गुरु के आवास के पास आकर रो रहा था कि उसे तो बुद्धत्व जैसी कोई बात अपने अंतर्मन में दिखाई नहीं देती और वह तो अभी पुरजोर प्रयास कर रहा है ध्यान में गहरे उतर कर विचलित मन से पार जाकर स्थायी शान्ति पाने के लिए तो कैसे गुरुदेव ने उसका नाम उस सूची में डाल दिया? क्या उसे स्वयं पता न लगता अगर ऐसा कुछ होता?

बाकी बीस शिष्यों में से जरूरी नहीं सभी ने ऐसे ही प्रतिक्रया दी हो, बहुतों में यह अहंकार भी उत्पन्न हो गया होना संभव था कि गुरुदेव ने उनमें बुद्धत्व देख लिया है सो वे वाकई बुद्धत्व की स्थिति को प्राप्त हो गये हैं|

बहरहाल यह घटना शिष्य दवारा ध्यान और संन्यास का पालन बेहद गंभीरता से करने की ओर इशारा करती है और यह भी दर्शाती है कि कैसे शिष्य ने अपनी अध्यात्मिक यात्रा पर चलते हुए अपने अहं पर विजय प्राप्त कर ली थी|

शिष्य के अंदर अध्यात्मिक खोज की इच्छा के बीज बचपन से ही मौजूद थे| हालांकि माता-पिता लगभग हर साल हरिद्वार-ऋषिकेश की धार्मिक यात्रा पर उसे उसके अन्य भाई-बहनों के संग बचपन से ही ले जाते रहे थे पर उसकी जिज्ञासा ऐसी तीर्थ यात्राओं से संतुष्ट होने वाली नहीं थी| कहीं गहरे में उसके अंदर अपने ‘मैं’ को पहचनाने की इच्छा बलवती हो चुकी थी| यूं तो बड़े होते होते वह बहुत सारी सामान्य गतिविधियों में संलग्न रहा जैसे उसके अन्य साथी रहते थे, पर उसके अंदर एक अंतर्द्वंद ने उसका पीछा कभी नहीं छोड़ा| बम्बई के एक मशहूर पहलवान से पहलवानी सीखकर अपने हष्ट-पुश्ट शरीर को फौलादी बना लेने के शौक से लेकर वह अपने कालेज के दौर में दुनिया भर में प्रसिद्द हो चुके बीटल्स के संगीत का भी दीवाना था| पढ़ने का शौक ऐसा कि एक तरह जेम्स हैडली चेज़ के उपन्यास उसके हाथों में दिखाई देते तो दूसरी तरफ वह गंभीर साहित्य भी उसी ललक के साथ पढता और वह योग, ध्यान और अध्यात्म से सम्बंधित पुस्तकों को पढते भी पाया जाता| कालेज की पढ़ाई के दौरान ही उसका रुझान नाटकों आदि की तरफ हो गया था, जिसे उसके पिता सख्त नापसंद करते थे| पिता ने कभी उसकी पसंद – नापसंद जानने की कोशिश नहीं की बल्कि हमेशा उसके लिए निर्णय लेकर उस पर अपनी राय थोपी और वह इस जबरदस्ती का सख्त विरोधी था| नतीजन घर में लगभग हर मामले में पिता –पुत्र में ठनी रहती और उसकी माँ को बीच-बचाव करके मामले को टालना पड़ता| वह चाहता था इंजीनियरिंग करे परन्तु उसके पिता ने उससे बिना पूछे ही बारहवीं के बाद उसका दाखिला बम्बई में कामर्स पढ़ाने वाले कालेज में करा दिया, ताकि वह डिग्री लेकर उनके कारोबार में उनका हाथ बंटाएं| कुछ बरस पहले देखी फिल्म मुगल-ए-आज़म ने उसका ध्यान फिल्मों की ओर आकर्षित कर लिया था|

कालेज में उसका एक बड़ा सा गैंग हुआ करता था जिसमें लड़के लडकियां दोनों ही थे जो उसकी अगुआई में विभिन्न गतिविधियों में सलंग्न रहा करते थे जिसमें थियेटर एक महत्वपूर्ण गतिविधि उन लोगों के लिए हुआ करती थी| कालेज में उसकी मुलाक़ात उस लड़की से हुयी जिससे उसे पहले प्रेम हुआ और कुछ साल बाद जिससे उसने विवाह किया| साठ के दशक के अंतिम बरसों में किसी शाम एक पार्टी में मशहूर फिल्म अभिनेता से उसकी मुलाक़ात हुयी और अभिनेता, जो कि अपने भाई को हिंदी फिल्मों में स्थापित करने के लिए उसे नायक की भूमिका में लेकर एक फिल्म बना रहे थे, ने उसे अपने भाई के सामने एक अन्य भूमिका फिल्म में करने का प्रस्ताव दिया| थियेटर और फिल्मों की तरफ उसके रुझान को देखते हुए उसके लिए यह एक अच्छा अवसर था फिल्मों में काम करने का, पर घर पर बात पता चलते ही उसके पिता ने उसके सिर पर बन्दुक तान दी| माँ दौडी आई और मामले को शांत करते हुए एक प्रस्ताव रखा कि लड़के को दो साल की छूट दी जाए अगर वह फिल्मों में नाकामयाब रहता है तो दो साल बाद वह फिल्मों और नाटकों को पूरी तरह से भुलाकर घर के बिजनेस की बागडोर संभालेगा| नाकामयाब तो क्या होता, लड़के को पहली ही फिल्म में दर्शकों और फिल्म समीक्षकों की भूरी-भूरी प्रशंसा मिली बल्कि उस फिल्म- मन का मीत, का सबसे होनहार और सबसे शानदार अभिनेता वही था| फिल्म प्रदर्शित होने के एक हफ्ते के भीतर ही वह १५-१६ फ़िल्में साइन कर चुका था जिनमें वह सहायक या खलनायक की भूमिकाओं में था| यह वही साल था जब आराधना के बाद राजेश खन्ना के नशे ने समूचे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया था|

फिल्मों में काम और अच्छी सफलता मिलने के बावजूद उसके अंदर का संघर्ष जारी था और अपने अस्तित्व को लेकर प्रश्न उसके अंदर मंडराते रहते थे और वह अपनी अध्यात्मिक यात्रा शुरू करने के लिए तडपता था|

ऐसे ही समय उसके हाथ परमहंस योगानंद की प्रसिद्द पुस्तक ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी’ लगी और योगी का फोटो देखकर उसे लगा कि वह इस योगी को पहले से जानता है और पुस्तक पढ़ना शुरू करते ही उसे लगने लगा कि योगी के इन विचारों से वह भली-भांति परिचित है| इस भाव का राज उसके सामने खुला तकरीबन तेरह-चौदह साल बाद जब अमेरिका में एक मनोविश्लेषक ने सम्मोहन के दवारा उसके पूर्व जन्म के बारे में उसे बताया कि पिछले जन्म में वह परमहंस योगानंद का अमेरिकी शिष्य था और दूसरे विश्वयुद्ध में उसकी मृत्यु हुयी थी|

उसी समय उसने ट्रान्सीडेंटल मेडिटेशन सीखा और उसका अभ्यास करते हुए उसे अपने अंदर कुछ हद तक ठहराव मालूम होता था| पर उन्ही दिनों उसने जे. कृष्णामूर्ति के प्रवचन सुने और कृष्णमूर्ति इस तरह की विधियों के पूर्णतया विरोध में थे| उनकी बातें उसे तार्किक और सही लगती थीं पर ट्रान्सीडेंटल मेडिटेशन से अल्पकालिक लाभ भी हो रहा था| विरोधाभासों से उसके अंदर गतिरोध आ गया| इन्ही अंतर्द्वंदों के मध्य उसकी मुलाक़ात ऐसे बुद्ध पुरुष दार्शनिक से हुयी जिन्हें देखते और उनकी वाणी सुनकर ही उसके अंदर शान्ति छा गयी और उसे लगा अंततः वह प्रकृति दवारा उसके लिए निर्धारित अपने गुरु की छत्रछाया में पहुँच गया है|

गुरु ओशो, जिन्हें तब उनके चाहने वाले लोग भगवान श्री रजनीश के नाम से पुकारते थे, ने शिष्य विनोद खन्ना की सारी उलझनें हर ली|

विनोद खन्ना फिल्म संसार में सफलता की सीढियां चढ़ते जा रहे थे पर वह भाग उनके जीवन में एक पार्ट-टाइम गतिविधि जैसा ही था| अभिनय करते हुए वे उसमें सौ प्रतिशत नहीं राम पाते थे, जैसा वे उस समय महसूस करते थे जब ध्यान आदि में डूब जाते थे या गुरु के प्रवचन सुनते थे| मुख्य शान्ति विनोद खन्ना को अपने गुरु के आश्रम में उनके सानिध्य में ही प्राप्त होती थी| वह मौका मिलते विनोद खन्ना बम्बई से पूना चले जाते, गुरु दवारा उत्सर्जित उर्जा क्षेत्र में साधना लीन हेतु| अपने कालेज के दिनों की प्रेयसी गीतांजलि से विवाह वह कर चुके थे और दो बेटों- राहुल और अक्षय के पिता भी बन चुके थे| पर न तो फ़िल्मी दुनिया का ग्लैमर, न इससे मिलने वाले सुख-संपत्ति, एश्वर्य और प्रसिद्धि और न ही घर पर पत्नी और बेटों का साथ, कुछ भी ऐसा नहीं था जो कि विनोद की अध्यात्मिक यात्रा से उनका ध्यान अपने ओर खींच लेता| अध्यात्मिक यात्रा की उनके ललक बनी ही रही| ओशो का सामीप्य पाकर विनोद की गुरु की तलाश समाप्त हो चुकी थी और ध्यान के माध्यम से अध्यात्म की यात्रा शुरू हो चुकी थी| यहाँ यह जिक्र करना गैर-मुनासिब न होगा कि लगभग उन्ही सालों में प्रसिद्द निर्देशक विजय आनंद और उस वक्त नामालूम से संघर्षरत निर्देशक महेश भट्ट भी ओशो के संन्यासी बनने की प्रक्रिया में थे पर दोनों ही उन्हें छोड़कर बाद में यू.जी कृष्णमूर्ति से जुड़ गये, हालांकि महेश भट्ट का रजनीश ऑब्सेशन आज भी समाप्त नहीं हुआ है और वे उनके खिलाफ बोलने का एक भी मौका चूकते नहीं हैं| बाद में विनोद ने एक बार कहा भी कि अच्छा होता विजय आनंद और महेश भट्ट बौद्धिकता से परे जाकर सहे में ध्यान आदि से जुड़ते|

अध्यात्मिक यात्रा की ललक इतनी सांद्रता के साथ विनोद के भीतर उपस्थित थी कि जब वे हिंदी सिनेमा के ऊपर के तीन सबसे सफल और सबसे अच्छे नायक अभिनेताओं में सम्मिलित थे, तब उन्होंने घोषणा कर दी कि वे फ़िल्मी संसार छोड़कर स्थायी रूप से गुरु के आश्रम में रहने जा रहे हैं| हिंदी सिनेमा का एक बेहतरीन अभिनेता जो एक बहुत बड़ा सितारा भी था, सुख, और ऐशो- आराम की ज़िंदगी और बेहद अच्छे दाम्पत्य जीवन की सुरक्षा को छोड़कर अंजान जीवन में छलांग लगाने जा रहा था| फ़िल्मी दुनिया में कुछ अभिनेताओं ने अंदर ही अंदर राहत की साँस ली होगी क्योंकि उनके सामने से एक सशक्त प्रतियोगी स्वेच्छा से हट रहा था और बाकियों ने विनोद को पागल समझा होगा| सैंकड़ों जोड़ी सूट, कपड़े, जूते और अन्य साजो सामान को लोगों में बांटकर विनोद ने आश्रम में स्थायी निवास करके सारे समय पहले गेरुआ और बाद में आश्रम दवारा निर्धारित मेरून चोगा पहनना शुरू कर दिया|

Vinod Khanna3 ओशो, अमेरिका में ओरेगान में कम्यून स्थापित करने चले गये तो विनोद खन्ना  भी उनके साथ अमेरिका चले गये और विनोद ने अपने गुरु की निजी वाटिका की देखभाल के लिए माली का काम करने में जीवन का सुख प्राप्त करना शुरू कर दिया| विनोद चार साल वहाँ रहे और साधना करते रहे|

विनोद का वैवाहिक जीवन टूट चुका था| यहाँ महात्मा बुद्ध के जीवन की एक घटना का जिक्र करना मुनासिब रहेगा|

राजकुमार सिद्धार्थ रात के अँधेरे में अपनी पत्नी यशोधरा और नये जन्मे शिशु राहुल को छोड़कर और बरसों बाद जब वे गौतम बुद्ध बन कर उस राज्य में वापिस आए जहां यशोधरा, बेटे राहुल के साथ रहती थीं तो इतने बरसों बाद मिलने पर यशोधरा ने बुद्ध से पूछा या कहा कि अगर वे उसे बता कर जाते कि उनके लिए साधना और अध्यात्मिक यात्रा इतनी बड़ी बात है तो क्या वे उन्हें जाने से रोकतीं, या इस यात्रा को करने से मना कर देतीं? बुद्ध ने मौन रहकर इस बात का कोई जवाब नहीं दिया| यशोधरा ने बरसों इस बात के ताप को सहा कि सिद्धार्थ क्यों रात के अँधेरे में घर छोड़कर चले गये| पर यह निश्चित नहीं है कि अगर सिद्धार्थ यशोधरा से सलाह करके जाने की इच्छा प्रस्तुत करते तो वह उन्हें बिना किसी विरोध के जाने देती|

विनोद खन्ना ने तो बाकायदा सबको बता कर अपना निर्णय लिया था और निर्णय की सूचना काफी पहले सबको दे दी थी| पत्नी से भी खूब चर्चा इस संबंध में हुयी होगी और पत्नी की रजामंदी बिल्कुल न रही होगी तभी एक प्रेम-विवाह की परिणति इस बिंदु के कारण कानूनी अलगाव में परिवर्तित हो गई| कौन सी पत्नी दो छोटे बच्चों के भविष्य को देखते हुए पति को साधना करने दूर आश्रम में रहने जाने देगी? ओशो ने हालांकि संन्यास का रूप ही बदल दिया और अब तो पति और पत्नी दोनों ही संन्यासी रहकर साधनारत रहते हैं| घर और संन्यास का भेद ही उन्होंने मिटा दिया| आज तो विनोद एवं उनकी धर्मपत्नी कविता दोनों ही ओशो के संन्यासी अनुयायी हैं| विनोद खन्ना की पहली पत्नी को ओशो में रूचि नहीं थी या कालेज के समय से प्रेम संबंध के कारण उन्हें ऐसा लगना भी स्वाभाविक है कि उनके प्रेमी और पति ने उनसे ज्यादा गहरा संबंध अपने गुरु से कायम किया| दो बेटों की उपस्थिति भी विनोद खन्ना और उनकी पहली पत्नी गीतांजलि को अलग होने से नहीं रोक पायी|

बहरहाल जब अमेरिका सरकार ने ओशो के कम्यून रजनीशपुरम को नष्ट करने की ठान ली और इस तरफ सक्रिय कदम बढ़ा कर ओशो को येन केन प्रकारेण अमेरिका से बाहर निकाल दिया तो विनोद खन्ना भी भारत लौट आए| उनके दिमाग में अब नई उलझनें उत्पन्न हो गई थीं| संशय के समय भांति भांति के विचारमनुष्य के सोचने समझने की शक्ति को ग्रसित कर लेते हैं| जिस फ़िल्मी दुनिया को छोड़कर वे ओशो के पास गये थे अब उन्हें लगने लगा कि उन्हें फिर से फिल्मों में काम करके फिर से अपना व्यवसाय शुरू करना चाहिए| कुल्लू – मनाली में वे ओशो से मिले और अपनी मंशा उनके सामने जाहिर की तो ओशो ने उनसे पूछा कि क्या वे फिर से फिल्मों में काम कर सकेंगें| विनोद के हाँ कहने पर ओशो ने उनसे भारत में पूना के मुख्य आश्रम और समूचे एशिया में ओशो के काम का नेतृत्व संभालने के लिए कहा| विनोद बाद में जवाब देने की बात करके बम्बई आ गये| गुरु को ना कहना उनके लिए जीवन का सबसे कठिन फैसला रहा होगा| ओशो के बहुत नाम वाले शिष्य इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए उत्सुक रहते| बाद में फ्रांसिस फोर्ड कपोला की The Godfather के निर्माता Albert S Ruddy की पत्नी ने ओशो आश्रम का काम संभाला| विनोद फ़िल्मी दुनिया में लौट आए जिसने उन्हें फिर से आँखों पर लिया और शीघ्र ही इंसाफ और सत्यमेव जयते जैसी फिल्मों से विनोद खन्ना हिंदी फिल्म उधोग में सितारे के रूप में वापसी कर चुके थे| विनोद अब इस संसार में रहते हुए अपनी साधना करना चाहते थे और संभवतः इसी संभावना के कारण कि विनोद के अंदर दो अलग हिस्से न हो जाएँ, और बाहर की दुनिया की मुसीबतों में विनोद गुरु के सामीप्य को और आश्रम को अपना अस्थायी सहारा ना बना लें, ओशो ने विनोद को अपने से दूर कर दिया और ओशो के देह छोड़ने से पहले विनोद फिर कभी उनके दर्शन नहीं कर पाए| गुरु कभी साथ देकर और कभी जरुरत के अनुसार दूरी बरतकर शिष्य की सहायता करते हैं, अध्यात्मिक यात्रा पर| ओशो ने विनोद की उस समय की मानसिकता को देखते हुए को सांसारिक जीवन में ढकेल दिया ताकि विनोद आधे अधूरे ढंग से सब कुछ न करके वही करें जिसमें उस समय उनका मन रमा हुआ था| जिसमें मन रमे वही काम साधना बन जाता है| ओशो ने यही सिखाया था| यहाँ तक कि चेन स्मोकर विनोद को सिगरेट भी होशपूर्वक साक्षी भाव से पीने की राह दिखाई थी| आश्रम में व्यतीत समय और गुरु के सामीप्य में उपलब्ध विशुद्ध अनुभूतियों के कारण विनोद के पास अस्त्र-शस्त्र थे आश्रम से बाहर की दुनिया, जिसे वे कभी खुद ही छोड़ कर आश्रम चले गये थे, की मुसीबतों से पार पाने के लिए| सांसारिक जीवन में उनके पहले विवाह से उत्पन्न दो बेटे थे, जिनके जीवन में उन्हें सहायता प्रदान करनी थी और हो सकता है कि वे पुनः विवाह करते, जो उन्होंने किया, तो दैनिक जीवन में बहुत सी बातें होती हैं जहां एक इंसान को समझौते करने पड़ते हैं अब विनोद को तय करना था कि वे किस तरह इन सबको जीते हुए अध्यात्मिक जीवन की यात्रा की शुद्धि को बरकरार रखें| अब गुरु का साथ उनके साथ भाव में था, गुरु हरदम उनके साथ थे, पर उनकी भौतिक उपस्थिति उनके साथ न थी| पांच साल बाद तो सभी के साथ ओशो का ऐसा ही अशरीरी संबंध बन गया, जब उन्होंने देह का त्याग कर दिया|

विनोद खन्ना के जीवन से उनकी ओशो के साथ की गई यात्रा और उनकी अध्यात्मिक यात्रा के पहलुओं को नहीं निकाला जा सकता और इन सब बातों का उल्लेख उनके फिल्मों में अभिनय जीवन का विश्लेषण करते हुए भी बेहद जरूरी है|

(ज़ारी)

…[राकेश]

 

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