Pikuघर में लगे फोटो से जाहिर होता है कि या तो सत्तर वर्षीय वृद्ध पिता भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) या उसकी अविवाहित पुत्री, जो कि उम्र के तीसरे दशक के किसी पड़ाव पर रुकी जिंदगी जी रही है, या दोनों ही सत्यजीत राय के घनघोर प्रशंसक हैं, और अगर पिता हैं तो उन्होंने ही सत्यजीत राय की लघु फिल्म पीकू [Pikoo (1980)] से प्रभावित होकर अपनी इकलौती पुत्री का नाम पिकू (Piku) रखा होगा| सत्यजीत राय की फिल्म के बालक पीकू की तरह शूजित सरकार की फिल्म पिकू की नायिका पिकू का जीवन भी जटिलताओं से भरा है| पीकू बालक था इसलिए अपनी माँ, और अपने पिता के विचारों, और कर्मों से प्रभावित था पर पिकू वयस्क होकर भी अपने पिता की सनक से बंधी हुयी है|

क्रोनिक कब्जियत जानलेवा न भी हो पर इससे ग्रसित ज्यादातर आदमी विचित्र रूप से सनकी हो जाते हैं| और भास्कर बनर्जी हद दर्जे के सनकी इंसान हैं| बरसों पहले उनकी पत्नी का देहांत हो चुका है, और तब उनकी पुत्री बेहद छोटी थी| उन्होंने अकेले ही अपनी पुत्री को बड़ा किया है और अब उनकी तीस साल से बड़ी पुत्री उनकी देखभाल किया करती है| दोनों दिन भर भास्कर बनर्जी के कब्ज की बातें ही किया करते हैं| हाइपोकोंड्रिया से पीड़ित भास्कर बनर्जी के कारण पिकू को भी विभिन्न रोगों की अच्छी जानकारी हो गई है| भास्कर के कब्ज और विष्ठा की बातें वे दोनों और उनके साथ उनके पड़ोसी डाक्टर श्रीवास्तव (रघुवीर यादव) इतने स्वाभाविक अंदाज में किया करते हैं कि उन्हें ध्यान ही नहीं आता कि अन्य सामान्य लोगों के लिए यह इतना सामान्य विषय नहीं भी हो सकता है| पिकू डेटिंग पर अपने साथी के सामने ही फोन पर अपने पिता के कब्ज की बातें उनके डाक्टर से इस खुले अंदाज में करती है कि उसके साथी को वितृष्णा हो जाती है और वह खाने का आर्डर देने का साहस भी नहीं कर पाता|

फिल्म भास्कर के कब्ज को एक रूपक की तरह भी इस्तेमाल करती है| भास्कर और पिकू दोनों ही अपने जीवन को एक ही ढर्रे से बांध चुके हैं और इस पुराने ठहरे ढर्रे को वे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं|

भास्कर को इस बात की कतई चिंता नहीं है कि पिकू का विवाह अभी तक नहीं हुया है, बल्कि परम्परागत भारतीय पिता की तरह यह भय उन्हें छू तक नहीं पाता कि अगर खुदा न खास्ता उनका देहांत हो गया तो अकेली पिकू के जीवन की दिशा क्या होगी? बल्कि वे तो पिकू के विवाह के नाम से ही चिड़ते हैं| उनका स्पष्ट विचार है कि बिना प्रयोजन के किया गया विवाह स्त्री के निम्न स्तरीय आई. क्यू का धोतक है|

पिकू का जीवन जटिल है| एक स्तर पर वह अपने पिता के जीवन से बांध कर अपने जीवन को उसी अनुसार ढाल चुकी है और बेहद परम्परावादी है, पर दूसरी ओर वह पूर्णतया स्वतंत्र और आधुनिक स्त्री है| अपनी मौसी (मौशुमी  चटर्जी) के पूछने पर कि क्या उसकी सैक्स लाइफ एक्टिव है, वह जवाब देती है,”इट्स अ नीड”|

कम से कम तीन दशकों से विधुर, वृद्ध पिता के साथ रह रही अकेली कामकाजी युवती क्या करे? या तो वह परम्परागत तरीके से विवाह करके उसी शहर में बसे पति के घर रहने चली जाए पिता को सेवाटहल करने वाले घरेलू सहायकों के भरोसे, और उनसे लगातार हालचाल पूछती रहे और दूर से प्रबंधन करे|  (आखिर दिन भर तो सहायक ही उनकी देखभाल करता है और वह अपने दफ्तर से फोन से घर को संचालित करती है) या वह विवाह का ख्याल छोड़ कर पिता के साथ ऐसे ही रहे जैसे कि वह तब रहा करती थी जब विवाह का प्रश्न भी सामने नहीं था|

यह तर्क का विषय हो सकता है कि जिस चितरंजन पार्क के इलाके में बंगाली पड़ोसी इतनी नज़र रखते हैं कि भास्कर बनर्जी का ड्राइवर काम छोड़ कर जा चुका है, वे अविवाहित पिकू के स्वछन्द जीवन जीने के तरीके को लेकर टीका टिप्पणी नहीं करते होंगे, यह मानने का कारण आसान नहीं है| जब सत्यजीत राय की पीकू बनी थी उसी काल के आसपास, बंगाली भद्रजनों और उच्चवर्गीय तबके के दोहरे चरित्र को उकेरती एक किताब प्रकाशित हुयी थी, अश्लील (हिंदी अनुवाद का शीर्षक), जिसे समरेश बसु ने लिखा था और जिसे बंगाली समुदाय ने अदालत में चुनौती दी थी और वर्षों तक किताब अदालत में फंसी रही|

भारत में कामकाजी और आर्थिक रूप से स्वतंत्र युवतियों के लिए वैवाहिक जीवन कष्टकारी साबित हो जाता है अगर उसमें तनाव उत्पन्न हो जाएँ| कामकाजी महिलायें घर पर वे सब जिम्मेदारियां उसी तरह से नहीं निभा सकतीं जिस तरह घरेलू महिलायें निभा सकती हैं| पति-पत्नी बाकी परिवार से अलग रह रहे हैं तो कामकाजी दम्पत्तियों के वैवाहिक जीवन चल जाते हैं पर भरी पूरी ससुराल में (जब तक कि दंपत्ति की मजबूरी ही  न हो, बच्चों के कारण परिवार की सहायता लेना) तनाव घर कर ही लेता है|

पिकू” में पिकू के अविवाहित (पर ब्रहमचर्य का पालन न करने वाली) स्त्री का चरित्र एक नया मॉडल प्रस्तुत करता है, जिसमें विवाह शायद संतानोत्पत्ति के लिए आवश्यक हो (या उसके लिए भी न हो)| और अपने पिता के घर रहकर भी पुरुष साथी के साथ संबंध कायम रखकर स्त्री रह सकती है| फिल्म की कामेडी के हल्ले गुल्ले में यह पक्ष शायद दब कर रह जायेगा, परंतु वर्तमान दौर की जरूरतों के हिसाब से यह एक गंभीर मुद्दा है, जिस पर फिल्म चुपके से इशारे करती है|

रात को पार्टी से लौटकर नशे में धुत पिता को बंगाली गीत पर आनंद में झूमते पिता को देख वह भी उस समय सब भुलाकर अपने पर लट्टू आफिस के अपने साथी, जो उसका बॉस भी है, को अपने घर अपने कमरे में ले जाती है| अपने साथी बॉस के साथ शारीरिक संपर्क बनाने में उसे संकोच नहीं और इसी के साथ वह अपने लिए अन्य उचित साथी भी ढूंढती रहती है| एक तरह से देखा जाए तो वह अपने इर्द गिर्द के पुरुषों को संचालित करती है| बस अपने पिता के समक्ष उसे कभी कभी झुकना पड़ता है|

भास्कर इस हद तक सनक गये हैं कि एक पार्टी में जब पिकू की मौसी उसे एक युवक से मिलवाती है यह कहकर कि युवक भी सिंगल है तो भास्कर इस भय से कि कहीं युवक पिकू को शादी के लिए न बहका ले, उससे कहते हैं,” मेरी बेटी वर्जिन नहीं है”|

भास्कर का केवल शरीर ही कब्जियत से पीड़ित नहीं है बल्कि भास्कर और पिकू का संयुक्त जीवन भी अगर एक शरीर मान लिया जाए तो यह शरीर भी जीवन में जो कुछ भी अनर्गल है, बेकार है उसे त्यागने को तैयार नहीं दिखाई देते|

उनके जीवन में हवा एके नये झोंके की तरह प्रवेश होता है राणा चौधरी (इरफ़ान खान) का, जो उनके विचारों में उथल पुथल मचा देता है और दोनों को विवश कर देता है अपने ढर्रे से अलग हटकर तार्किक रूप से सोचने के लिए| नये के प्रति थोड़ी बहुत उत्सुकता और स्वीकार्यता अपनाने के लिए|

भास्कर और पिकू दोनों आने जीवन की सीमितताओं को पूरी तरह और बुरी तरह से स्वीकार कर चुके हैं| दिल्ली से कोलकाता की यात्रा के दौरान जब तंग आकर राणा, भास्कर को डांटता है, और उन पर आरोप लगाता है कि वे पिकू का इमोशनल ब्लैकमेल कर रहे हैं तो पिकू और भास्कर दोनों अवाक रह जाते हैं| शायद पिकू सोचती है कि राणा वही सब कुछ कह रहा है जो वह नहीं कह सकती पर जो भास्कर को कहा जाना चाहिए| यही वह क्षण है जब शायद उसे अपनी माता की कमी खलती है या शायद एक अदद भाई की| क्योंकि परिवार में अगर एक भी और इंसान होता तो वह या शायद वही भास्कर को सही और तार्किक बात कह पाते जो कि अभी उसके लिए मुमकिन नहीं हो पाता| फिल्म के सबसे अच्छे कुछ दृश्यों में से एक है यह दृश्य|

फिल्म में एक निरंतरता बनी रहती है जो लुभाती है| मसलन कोलकाता में राणा और मौसी को बैडमिंटन खेलते देख पिकू मकान के दूसरे तल्ले से उतर कर नीचे आती है पर तब तक खेल बंद हो चुका है और वह राणा से पूछती है,” बैडमिंटन खतम?”

शायद वह राणा के साथ बैडमिंटन खेलना चाहती थी|

बाद में दिल्ली में चितरंजन पार्क में अपने घर के प्रांगण में वह राणा के साथ बैडमिंटन खेलती है और इस संसर्ग में बाधा न हो इसलिए घरेलु कार्य के लिए सहायिका को, जो कि भास्कर के कारण काम छोड़ गई थी, और जो कि गेट पर खड़ी पूछती है अंदर आकर काम करने के लिए, अगले दिन से काम पर आने के लिए कहती है|

चरित्र की भावनाओं में ऐसी निरंतरता कथा-पटकथा लेखन और निर्देशन की मुस्तैदी और गहराई को दर्शाती है|

पिकू और राणा के मध्य धीरे-धीरे पनपते लगाव, परस्पर सम्मान और रोमांस  की संभावना के भाव दर्शक को धीमी आंच पर पका स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने का अहसास कराते हैं|

फिल्म रोचक है और भरपूर मनोरंजन करती है|

अदाकारी के हिसाब से देखें तो दीपिका पादुकोण का यह अभी तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय प्रदर्शन है| “लव-आज-कल” के भावुक दृश्यों से शुरुआत करके, “कॉकटेल” “ये जवानी है दीवानी” और “फाइंडिंग फैनी” में अपने निखरे अभिनय की पारी खेलकर “पिकू” में उनकी अभिनय कला पूरे शबाब पर है और बंगाली युवती की तरह सही उच्चारण में संवाद न बोल पाने के बावजूद, भावनाओं के प्रदशन में वे बेहतरीन प्रदर्शन कर गई हैं| ऐसा ही संवरा और निखरा उनका अभिनय प्रदर्शन रहा तो वे हिंदी फिल्म उधोग के कमर्शियल सेक्टर को अच्छी अभिनेत्री की कमी नहीं खलेगी|

इरफ़ान तो जादूगर अभिनेता हैं और परदे पर अपने अभिनय से जादू ही बिखेरते हैं और यहाँ इस फिल्म में भी वे साबित करते हैं कि इस दौर में वे जबर्दस्त फॉर्म में हैं| एक दृश्य में जरुर दर्शकों को पहले ही पता लग जाता है कि अब इरफ़ान क्या करने वाले हैं और निर्देशक उस सीक्वेंस को बेहतर तरीके से निबटा सकते थे| टुल्लू पम्प वाले सीन में इरफ़ान बिना चिल्लाये ज्यादा अच्छा असर प्रस्तुत कर सकते थे खासकर तब जबकि दीपिका का चरित्र वहीं बैठा मंद मंद मुस्कराकर सारे घटनाचक्र का आनंद ले रहा हो|

दीपिका और इरफ़ान दोनों की तारीफ़ करनी चाहिए कि फिल्म निर्माण के अलग अलग व्याकरण वाली फिल्मों के पक्ष से आने के बावजूद दोनों ने क्या खूब संगत परदे पर दिखाई है और एक उज्जवल भविष्य का दरवाजा खोल दिया है| इरफ़ान की की आँखें तो हमेशा ही बोलती हैं और उन्हें तो संवाद की भी जरुरत नहीं होती इस फिल्म में दीपिका के नयनों ने भी खूब सम्प्रेषण किया है भावों का| दोनों का संयुक्त प्रयास परदे पर मधुर संगीत बिखेरता है|

मौशुमी चटर्जी फिल्म में बड़े ही स्वाभाविक अंदाज में प्रकट होती हैं और अच्छे अभिनय से दर्शक का मन लुभाकर यह संभावना जगाती हैं कि उम्र के इस पड़ाव पर चरित्र अभिनेता के रूप में वे स्मरणीय अभिनय प्रदर्शन कर सकती हैं|

रघुबीर यादव भी संक्षिप्त सी भूमिका में जमे हैं और अन्य अभिनेता भी सहायक भूमिकाओं में अच्छा अभिनय करके फिल्म को एक सुदृढ़ धरातल प्रदान कर गये हैं|

सबसे बड़ी भूमिका अमिताभ बच्चन की है और यह देखना सुखद है कि सत्तर पार के अभिनेता को केन्द्रीय भूमिका देकर भी हिंदी फ़िल्में बन सकती हैं| परन्तु अमिताभ बच्चन का अभिनय प्रदर्शन अनियमित है| जिस दमदार आवाज और अभिनय के बल पर उन्होंने बरसों फिल्म उधोग में अपनी धाक बनाए रखी है वे दोनों ही इस फिल्म में उतार चढ़ाव से भरे हुए हैं| बंगाली उच्चारण में उनके बोले संवाद कानों को थोपे हुए लगते हैं| संवाद अदायगी में भी वे कहीं तो अग्निपथ के विजय दीनानाथ चौहान की तरह घरघराहट भरी आवाज में और उसी अंदाज में संवाद बोलने लगते हैं और कहीं “पा” फिल्म में नाक से बोलने वाले लड़के के अंदाज में संवाद बोलने लगते हैं| अमिताभ बच्चन बल्कि किसी भी बड़े सितारे के अभिनय प्रदर्शन में कमी निकालने की परम्परा हिंदी फिल्मों के समीक्षकों और आलोचकों में नहीं रही है और इस फिल्म के लिए भी उन पर चारों तरफ से प्रशंसा की बरसात होगी पर उनके जैसे अभिनेता के लिए यही तथ्य विचारणीय है कि दीपिका और इरफ़ान दोनों उनके अभिनय प्रदर्शन से कहीं ज्यादा बेहतर अभिनय प्रदर्शन प्रदान कर गये हैं और मौशुमी चटर्जी भी उनसे ज्यादा सहज और स्वाभाविक अभिनय कर गई हैं जबकि वे अपने चरित्र को प्रदर्शित करने में प्रयास सा करते प्रतीत होते हैं| कई दृश्यों में तो ऐसा लगता है कि दर्शक अमिताभ बच्चन का कैरीकेचर देख रहे हैं| शायद अगर उनका किरदार बंगाली न होता तो वे ज्यादा सहज रहते| उन्हें सितारों वाली जकडन छोड़ स्थायी पहचान बन चुकी अपनी दाढ़ी, आदि की बलि देकर चरित्र जैसा दिखाई देने में लचीलापन दिखाने की जरुरत है| उनकी विग तक अजीब लगती है|

फिल्म फिल्म में भी अंतर होता है, हृषिकेश मुखर्जी की जिस कालजयी फिल्म “आनंद” में अमिताभ दवारा निभाए गये चरित्र – ड़ा. भास्कर बनर्जी, से आयातित करके पिकू में अमिताभ बच्चन को भास्कर बनर्जी नाम दिया गया है, उस आनंद में अमिताभ बच्चन के अभिनय प्रदर्शन में कोई कमी आज भी नहीं लगती जबकि एक भी शब्द अमिताभ ने उसमें बंगाली लहजे में नहीं बोला| यहाँ वास्तविकता का  पुट लाने का प्रयास करने के बावजूद उनका प्रदर्शन सटीक नहीं लगता| बंगाली लोगों पर जोक करने के लिहाज से ही तो चरित्र में अभिनय प्रदर्शन जबर्दस्त हो नहीं जाता, अभिनय में सच्चाई मायने रखती है|

इसे फिल्म की रूपरेखा की कमी भी कह सकते हैं कि दीपिका और इरफ़ान के चरित्रों के मध्य मूक रहकर आँखों से भरपूर भावों का आदान प्रदान होता है पर बेहद नजदीक पिता अमिताभ और पुत्री दीपिका के मध्य ऐसा एक भी दृश्य सामने नहीं आता जबकि भावनाओं के प्रदर्शन के अवसर कई बार आते हैं| अमिताभ के बीमार पड़ जाने पर दीपिका को तो अवसर मिलता है भावनाएं प्रदर्शित करने का पर अमिताभ  के पास ऐसा एक भी दृश्य नहीं है जहां उन्हें पिता की पुत्री के प्रति भावनाएं प्रदर्शित करने का मौक़ा मिला हो|

उन्होने ओवर द टॉप तरीके से अभिनय करके अपने चरित्र को अतिनाटकीय बना दिया है| यहाँ तक कि कोलकाता में घर बेचने के मुददे पर भी वे अतिनाटकीयता के शिकार हो गये, जबकि उनके छोटे भाई और उसकी पत्नी की भूमिका निभा रहे अभिनेताओं ने अपने भय और चिंता को बखूबी प्रदर्शित किया|वे कई दृश्यों में जहां उनका चरित्र ऐसी बातें बोलता है जिनसे दर्शकों में हास्य उत्पन्न हो, अपने संवादों को कामेडियन की तरह से सचेत होकर बोलते हैं जबकि उनके चरित्र की जरुरत गंभीर होकर वह सब कहने की जरुरत है और हास्य दृश्य का सह-उत्पाद है, न कि स्पष्ट लक्ष्य|

अमिताभ का बड़े  सितारे वाला स्तर उनके चरित्रों को ईमानदारी से निभाने में उनके आड़े आ रहा है, मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा किस्म की फिल्मों के दौर हवा हुए जब सब कुछ काल्पनिक लोक में हुआ करता था और वे किसी भी तरह के दृश्य को अपने तरीके से प्रस्तुत करके दर्शकों को लुभा पाने में अति सक्षम हुआ करते थे| वास्तविकता से भरे चरित्रों की भीड़ में उन्हें भी बदल जाना चाहिए| वे आज भी सितारों की तरह ही अभिनय कर रहे हैं| शमिताभ में भी उनका यही तरीका रहा और उनके सितारे के कद ने एक अच्छे किरदार को दबा दिया|

तेरे घर के सामने” और “बावर्ची” में उत्कृष्ट अभिनय प्रदर्शन कर चुके हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय को यह भूमिका मिली होते तो वे इसे क्लासिक बना डालते| उत्पल दत्त भी अपने समय में इस भूमिका को अविस्मरणीय बना डालते| और आज के दौर में भी विक्टर बनर्जी या धृतमान चटर्जी इस भूमिका में किसी अन्य अभिनेता को फिल्म में अपने अभिनय प्रदर्शन से ऊपर का स्तर न पाने देते|

अमिताभ बच्चन से कई गुना कम फीस पाने वाले नसीरुद्दीन शाह या पंकज कपूर (जिनमें से कोई भी बंगाली पृष्ठभूमि का नहीं है) में से एक भी इस अच्छी भूमिका को जानदार और शानदार बना डालता| अमिताभ बच्चन के एक बहुत अच्छा मौक़ा खोया है| उनके जैसे उच्च स्तरीय अभिनेता से ऐसी अच्छी भूमिका में ऐसे औसत अभिनय प्रदर्शन को पाना निराशाजनक है|

…[राकेश]

 

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