कम अक्ल, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ऐसी छोटी मोटी साजिश भारी हरकतें, जिन्हे सब जानते हों, करने वाले बुजुर्ग के चरित्र से दर्शक कैसे जान-पहचान कर पाएंगे? अगर वह अपना मुंह ढके रहे और आँखें भी बेहद मोटे चश्मे के पीछे छिपी रहें तो टुच्ची सी चालकियाँ, जो मूर्खतापूर्ण ज्यादा हैं, करते वक्त उसके चेहरे के हाव भाव, और आँखों की क्षणिक चमक आदि सिनेमा का कैमरा न पकड़ पाये, तो क्या खाक वह चरित्र दर्शकों से संबंध बना पाएगा? हिंदी सिनेमा में अमिताभ बच्चन का नाम इतना बड़ा है कि अधिकतर निर्देशक तो उन्हे अपनी फिल्म में कास्ट करके ही धन्य महसूस करने लगते हैं| ऐसे बहुत से निर्देशक अमिताभ की अभिनय क्षमता का भरपूर उपयोग कर ही नहीं पाते| शूजित सरकार की गुलाबो सिताबों भी ऐसी ही फिल्मों की श्रेणी में आती है| फ़िल्म के बहुत सारे हिस्से अमिताभ और आजकल के चमकते सितारे आयुष्मान खुराना के बोझ तले दब कर बोझिल हो गए हैं| इन दोनों की बेदम प्रस्तुति का आलम यह है कि फ़िल्म में एक ताजगी भरी जान पड़ती है जब फ्रेम में विजय राज का आगमन होता है और फ़िल्म कुछ रोचकता की और बढ़ती है| पर्दे पर अपेक्षाकृत कम समय के लिए रहने वाले पुरातत्व विभाग के कर्मचारी ज्ञानेश शुक्ला के रूप में विजय राज और एक बड़े बिल्डर के दलाल वकील- क्रिस्टोफर क्लार्क के रूप में बृजेन्द्र काला द्वारा अपने अपने चरित्रों के अभिनय प्रदर्शन में फ़िल्म के दोनों मुख्य चरित्रों मिर्ज़ा नवाब (अमिताभ) और बाँके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) के चरित्रों में दोनों अभिनेताओं के अभिनय प्रदर्शन से बेहतर काम कर गए हैं| जब तक फ़िल्म में विजय राज का प्रवेश नहीं होता हर मिनट यह स्पष्ट होता जाता है कि मिर्ज़ा और बाँके के चरित्र फ़िल्म को अपने कंधों पर ढो पाने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं|
इसकी तुलना में इश्किया और डेढ़ इश्किया में नसीरुद्दीन शाह और अरशद वारसी के चरित्रों की जोड़ी को देखें तो वहाँ इस जोड़ी ने ऐसी रोचकता उत्पन्न की कि दर्शक अन्य चरित्रों का इंतजार नहीं करता|
अमिताभ के चेहरे पर क्या सोचकर नकली नाक लगाई गई होगी? अमिताभ कोई कमजोर अभिनेता तो हैं नहीं कि उनके चेहरे को ऐसे गेट अप के पीछे छिपाया जाये कि उनके चेहरे के हाव भाव ही दिखाई न दें| ज्यादतर तो अमिताभ के चरित्र का सिर एक बड़े से कपड़े से ऐसे ढका रहता है जिससे उनका आधा चेहरा ही ढक जाता है ऊपर से करेले पर नीम चढ़े वाले अंदाज में अमिताभ के चरित्र मिर्ज़ा को अधिकतर बेहद कम रोशनी में उठते, बैठते, लेटते दिखाया गया है| परदों की इतनी परतों के पीछे से अमिताभ कर भी क्या लेते? चाल तो उनकी बेहद अटपटी ली गई है| जब 95 साल की उनकी बेगम एक सामान्य महिला होकर सामान्य रूप से चलती हैं तो 77 साल के मिर्ज़ा के किरदार को क्यों इतनी विचित्र चाल चलते दिखाया गया? ये सब बातें जो उनके चरित्र को विशिष्ट बनाने के लिए उनके चरित्र में समाहित की गई होंगी असल में उनके चरित्र को अटपटा और कमजोर बनाती हैं| मानवीय भावों के पहलू इस गिमिक के पीछे छिप कर चरित्र की रोचकता समाप्त कर देते हैं|
फ़िल्म की लेखक और निर्देशक की टीम की कल्पना में मिर्ज़ा के चरित्र का कायदे का ढांचा था ही नहीं| ऊपर दिये दो फ़ोटोज़ को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि मिर्ज़ा के चेहरे का ढांचा कहाँ से उधार लिया गया है| फोटो में दिखाई देने वाले अभिनेता का नाम है वी एन मिश्रा (विश्व नाथ मिश्रा) और लखनऊ दूरदर्शन द्वारा प्रसारित एक बेहद चर्चित टीवी धारावाहिक “बीबी नातियों वाली” में उन्होंने मिर्ज़ा की भूमिका निभाई थी| स्वर्गीय के॰पी॰सक्सेना द्वारा लिखित इस धारवाहिक में न केवल हिन्दू-मुसलिम साझा तहजीब से भरे सामाजिक परिवेश, भाषा और बेहद जीवंत चरित्रों का ही समावेश था बल्कि धारवाहिक मिर्ज़ा की भूमिका में मिश्रा जी के बेहद प्रभावशाली अभिनय के लिए भी जाना जाता है| गुलाबो सिताबो के निर्देशक शूजित सरकार ने तो संभव है “बीबी नातियों वाली” का नाम भी न सुना हो परंतु फ़िल्म की लेखिका ने अवश्य ही इस धारावाहिक को देखा होगा और इसलिए फ़िल्म ने मिर्ज़ा जैसे गेट अप को अमिताभ अभिनीत्त मिर्ज़ा के चरित्र पर चस्पा कर दिया| लेकिन जहां मिश्रा जी के मिर्ज़ा की सारी मानवीय भावनाएं उनके जीवंत चेहरे और आँखों से अभिव्यक्त हो जाती थीं अमिताभ तो बेचारे नकली नाक और सिर पर पड़े पल्लू के पीछे ही छिप कर रह गए| अमिताभ के साथ ऐसी कारस्तानी देखकर दिलीप कुमार द्वारा अपने निर्देशकों से हर कदम पर सलाह मशविरा करने की आदत ज्यादा सटीक लगने लगती है| कोई भी निर्देशक दिलीप कुमार के साथ यह नहीं कर सकता था जो गुलाबो सिताबो फ़िल्म ने अमिताभ के साथ किया है| यह देखना हास्यास्पद है कि ऐसे परिदृश्य में भी ऐसे फ़िल्म समीक्षक हैं जो अमिताभ के अभिनय प्रदर्शन की प्रशंसा के पुल बाँध रहे हैं| प्रसार भारती की कृपा से धारावाहिक
“बीबी नातियों वाली” यूट्यूब पर उपस्थित है और मिर्ज़ा के चरित्र की भाषा, चरित्र चित्रण और वी एन मिश्रा के अभिनय और धारावाहिक के सांजीक तानेबाने के लिए इसे देखा जाना चाहिए|
जो निर्देशक अमिताभ बच्चन जैसे महंगे अभिनेता और आजकल के सफल सितारे आयुष्मान खुराना को अपनी फिल्म में ले रहा है उसके पास बजट की कोई स्पष्ट कमी तो थी नहीं| के पी सक्सेना तो रहे नहीं पर लखनऊ पर विश्वसनीय फिल्म बनानी हो जिसमें सौ साल से ज्यादा पुरानी हवेली एक चरित्र की भांति सामने आती हो. उसके लिए और लखनऊ की पुरानी संस्कृति की झलक दिखाई दे इसके लिए कोई भी जानकार निर्देशक शमा जैदी, जावेद सिद्दीकी और या अशोक मिश्रा को फिल्म की लेखकीय टीम में अवश्य ही शामिल करना चाहेगा और ऐसा नहीं किया जाता तो स्पष्ट है कि विश्वसनीयता पर नहीं बल्कि दो बड़े सितारों की दर्शक खींचने की क्षमता पर ज्यादा ज़ोर था|
देश, काल, वातावरण केवल साहित्य ही नहीं बल्कि फिल्मों के विश्लेषण के लिए भी महत्वपूर्ण कसौटियाँ हैं| फ़िल्म में जब तक ज्ञानेश शुक्ला (विजय राज) पेड़ पर चढ़कर अपने मोबाइल से मिर्ज़ा की हवेली के प्रांगण की तसवीरें नहीं खींचता दिखाई देता, फ़िल्म यह भी स्थापित करने में असमर्थ रहती है कि किस काल खंड में फ़िल्म आधारित है| बाँके की छोटी बहन रंगीन टीवी पर टॉम एंड जेरी देख रही है सो उससे इतना अवश्य पता चलता है कि फ़िल्म 1982 के तो बाद के काल खंड में आधारित है|
बेगम के मरने के इंतजार में बैठे, और बाहरी दुनिया को हवेली का मालिक होने का मुगालता देने वाले मिर्ज़ा और मामूली सा किराया भी न दे सकने वाले छठी पास और स को ह और फ की ध्वनियों के साथ बोलने वाले बाँके के चरित्रों की मुठभेड़ में बहुत से हास्य की गुंजाइश थी पर यह उभर कर आ न सका| आयुष्मान ने बाला में ही कानपुर के चरित्र को बेहतरीन ढंग से निभाया था पर यहाँ वे जूझते नज़र आते हैं| जन्म से ही लखनवी होने के बावजूद वे क्यों अपने संवाद कानपुरी तरीके से बोलते हैं यह समझ में नहीं आता| कुछेक दृश्यों में उनके अभिनय को छोड़ दें तो यह फ़िल्म ऐसा मैच लगती है जहां वे अच्छी फ़ॉर्म पाने के लिए संघर्षरत दिखाई दिये और मैच जीतने के लिए जीतोड़ मेहनत तो की पर निरंतरता के अभाव में जीत नहीं पाये|
आधुनिक काल में आधारित होने के बावजूद फिल्म किसी भी तरह के अन्य सामाजिक प्रभाव से मुक्त रहती है इसी नाते एक हवेली के ऊपर कब्जा करने के प्लॉट में इतनी जान नहीं थी कि दो घंटे की एक रोचक फिल्म बन जाती| कहानी में ही सामग्री नहीं होगी तो निर्देशक भी कितना रोचक फिल्म को बना पाएगा और वह भी तब जब फ़िल्म के दो मुख्य किरदारों में से एक को लगभग बुर्के में ढक कर रखा गया|
इस फ़िल्म के अखाड़े के लिए हास्य-व्यंग्य की जिस इमारत की तलाश थी फ़िल्म में दिखाई गई फातिमा हवेली उस पर खरी नहीं उतरती| एक वकील डॉक्टर बनकर बेगम के पास आता है पर यह बात फ़िल्म में खुलासे के वक्त न तो रोमांच उत्पन्न करती है न गुदगुदी|
चरित्र की रोचकता के हिसाब से बेगम का चरित्र मिर्ज़ा के चरित्र से ज्यादा रोचक प्रतीत होता है| मनोरंजन के हिसाब से भी मिर्ज़ा और बाँके के बजाय बेगम और मिर्ज़ा या बेगम और बाँके के और ज्यादा दृश्य और मिर्ज़ा और बेगम के भूतकाल की उपकथाओं का प्रदर्शन फ़िल्म को ज्यादा रोचक बना सकता था|
बेगम के रूप में फरुख जफर, और अपने काम के लिए अपने शरीर का बेझिझक इस्तेमाल करने वाली गुड्डो के रूप में सृष्टि श्रीवास्तव दोनों ही, अमिताभ और आयुष्मान के अभिनय प्रदर्शनों से बेहतर अभिनय दिखाती नज़र आयीं| विजय राज और बृजेन्द्र काला का जिक्र तो बेहतर थे ही| यह कहना कतई भी अतिशयोक्ति नहीं कि छोटी छोटी सहयोगी भूमिकाओं मेन नज़र आने वाले अभिनेता ज्यादा विश्वसनीय लगे बनिस्पत मुख्य भूमिकाओं वाले अमिताभ और आयुष्मान के|
फ़िल्म में लाइटिंग की व्यवस्था, खासकर हवेली के अंदर के दृश्यों में ऐसी है मानों किसी सस्पेंस थ्रिलर को फिल्माया जा रहा हो| फ़िल्म में पृष्ठ भूमि में बजता संगीत (बैक ग्राउंड म्यूजिक) भी अखरता है, यह ऐसे बजाया गया हो मानो बहुत बड़ी हास्य कथा की कहानी सुनाई जा रही है|
कोरोना काल में सिनेमा घरों में प्रदर्शित न हो पाने अमेजन प्राइम वीडियो पर प्रदर्शित होना इस औसत दर्जे की फ़िल्म के लिए अच्छा ही है क्योंकि सिनेमाघरों में प्रदर्शित फिल्मों के प्रति दर्शकों और समीक्षकों दोनों का रवैया अलग ही होता है और इस बात में संदेह है कि ऐसी बोझिल फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई झंडे गाड़ पाती| ओटीटी प्लेटफॉर्म पर लोगों को इसे देखने के लिए कोई अलग से टिकट तो लेना नहीं है सो एक नई फ़िल्म देखने का लोभ उन्हे इसे दिखवा ही देगा|
…[राकेश]
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