हिन्दी सिनेमा के अब तक के इतिहास में राजनीतिक थ्रिलर वर्ग में श्रेष्ठ फ़िल्मों में गुलज़ार लिखित और रमेश शर्मा निर्देशित “न्यू दिल्ली टाइम्स (1987)” के बाद हाल में अमेज़न प्राइम वीडियो पर प्रदर्शित क्राइम और राजनीतिक थ्रिलर वैब सीरीज़ – “पाताल लोक” को आसानी से रखा जा सकता है|
इसकी सबसे बड़ी खूबी इसके द्वारा रचे गए वातावरण और इसके कुछ चरित्रों की विश्वसनीयता है और इस विश्वसनीयता के प्रतिनिधित्व का नेतृत्व करते हैं इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी की भूमिका में अभिनेता जयदीप अहलावत| अगर नेट्फ़्लिक्स पर प्रदर्शित सेक्रेड गेम्स के इंस्पेक्टर सरताज सिंह (सैफ अली खान) और पाताल लोक इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी को देखें तो सरताज सिंह कहने को इंस्पेक्टर है लेकिन वैब श्रंखला उसके चरित्र के तौर तरीके इंस्पेक्टर वाले नहीं रख पाई| एक वक्त था हिन्दी फ़िल्मों में नायक पुलिस इंस्पेक्टर हुआ करते थे और उनके उच्च अधिकारी की भूमिका कोई वरिष्ठ चरित्र अभिनेता निभाया करता था| पुलिस में इंस्पेक्टर रीढ़ की हड्डी वाली पोस्ट होती है और एक इंस्पेक्टर फील्ड से लेकर थानों में महत्वपूर्ण भूमिका में सक्रिय रहता है| सत्तर के दशक के अंत तक भी बड़े-बड़े सितारे पुलिस इंस्पेक्टर की ही भूमिका निभाया करते थे| अस्सी के दशक में अभिनेता राजकुमार और देवानंद ने बड़ी उम्र में भी पुलिस अधिकारी की भूमिकाएँ कीं तो वे सीधे पुलिस कमिश्नर बन जाते थे और तब भी पर्दे पर पुलिस इंस्पेक्टर जितनी सक्रिय भूमिका में दिखाई देते थे, इस बात ने उनकी फ़िल्मों की विश्वसनीयता कम कर दी या समाप्त कर दी|
नब्बे के दशक के मध्य के बाद से एक नया ट्रेंड शुरू हुआ, खास कर आमिर खान की सरफरोश की सफलता के बाद कि सारे सितारे अब आई॰ पी॰ एस॰ अधिकारी तो बनने लगे पर फील्ड में वे अभी भी पुलिस इंस्पेक्टरों वाली सक्रियता दिखाते रहते थे और इंस्पेक्टर्स उनके साथ ऐसे चिपके रहते जैसे पहले इंस्पेक्टर्स के साथ हवलदार और सिपाही रहते थे|
पाताल लोक में चरित्रों में कुछ लोचे भी हैं|
पाताल लोक की एक भूल लगता है चित्रकूट के बाहुबली दुनलिया और उसके नेता साथी ग्वाला और समर्थित सांसद बालकिशन वाजपेयी के चरित्रों को जातिगत पहचान देना| अगर ये बात माने नहीं रखती तो ये चरित्र श्रंखला के लेखकों, निर्देशक और निर्माताओं की तर्ज पर बालकिशन शर्मा, दुनलिया रॉय या चोपड़ा और ग्वाला मेहता क्यों न कहलाए? वेब श्रंखलायेँ फ़िक्शन कथाओं में जातियों के कारण सतत रूप से संघर्ष से घिरे भारत में जातिगत टाइपकास्ट बनाने से अपने को रोक ही सकती हैं| आखिर प्रथम नाम से भी उनका काम चल जाएगा|
पाताल लोक में भी अन्य वैब श्रंखलाओं की भांति गालियों की भरमार है और सारे ही चरित्र जम कर गालियों का इस्तेमाल करते हैं| पुलिस के सारे सदस्य एक से एक गालियां मुंह से ऐसे निकालते हैं जैसे प्रार्थना कर रहे हों लेकिन गालियों की इस भारी भरकम बौछार के बीच एक मुसलिम सब इंस्पेक्टर अंसारी ऐसा भी है जो नफीस भाषा बोलता है, मृदु भाषी है, कभी गाली नहीं देता| क्या उसे मुसलिम चरित्र दिखाया गया है तो इसलिए उससे गालियां नहीं दिलवायीं? जबकि महिला पुलिस की सदस्य भी ऐसे ही गालियां देती हैं जैसे उनके पुरुष सहकर्मी| तो ऐसे माहौल में एक अकेले अंसारी ही क्यों गालियों का उपयोग नहीं करते| मुस्लिम चरित्र का ऐसा प्रदर्शन और बचाव अखरने की हद तक अटपटा है| यह ऐसा ही प्रयास लगता है जैसे सत्तर के दशक की फिल्मों में हिन्दू गुंडे बदमाशों की भीड़ में एक सच्चा, नेक और उसूलों के पक्के मुस्लिम चरित्र को रख दिया जाता था जिस पर सारे चरित्र एतबार किया करते थे| अंसारी आई ए एस की मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके हैं और अब साक्षात्कार देने का इंतजार कर रहे हैं पर यह बात भी उनके द्वारा अन्य पुलिस वालों जैसी भाषा न बोलने का न्यायोचित कारण नहीं बनती क्योंकि प्रशासनिक अधिकारी और आई पी एस अधिकारी भी इस उस वेब श्रंखला में गालियों का रस्सावादन करते दिखाई दे जाते हैं|
पाताल लोक में दिल्ली में मीडिया जर्नलिस्ट की हत्या की साजिश के आरोपी चारों अपराधियों की अपनी अपनी कथाएँ हैं जिनमें उनके अपराधी बनने को एक तरह से न्यायोचित ठहराया गया है और दर्शाया गया है कि किसी तरह के वर्ग या सामाजिक संघर्ष या उत्पीड़न को सहने के कारण वे अपराध जगत की और मुड़ने के लिए विवश हुये| लेकिन यही सहूलियत, श्रंखला बहुसंख्यक हिन्दू चरित्रों को नहीं देती कि किसी कारण वश ही वे ऐसे हुये होंगे जैसा उन्हे दिखाया गया है| उनके ऐसे होने की पार्श्व कथा से इस श्रंखला को कोई सरोकार नहीं है!
“साहब, मैंने जिसे मुसलमान तक नहीं बनने दिया उसे आपने जेहादी/आतंकवादी बना दिया”| एक अपराधी कबीर एम का पिता पुलिस से कहता है| सिर्फ खतने के लिए सामान्य मेडिकल सर्जरी का प्रमाणपत्र लेने भर से वह सोचता है कि अब कबीर को लोग मुसलमान नहीं मानेंगे| यह और ऐसा सरलीकरण श्रंखला को पूर्वाग्रही बनाता है| मुसलिम चरित्रों के कोण पर आकर श्रंखला मेनिपुलेटेड हो जाती है| और ऐसा लगने लगता है कि मुसलिम चरित्र इस कथा के प्राकृतिक हिस्से न होकर ऐसे हिस्से हैं जिन्हे अपनी छवि गढ़ने के कारण दर दर कर तराशा गया है और फिर अलग से प्रक्षेपित किया गया है|
दुनलिया गुज्जर का तो ऐसा आतंक दिखाया है कि समूचा इलाका उसकी उँगली के इशारे पर मतदान किया करता है, यह संसामायिक न लग कर आजकल के हिसाब से कुछ पहले का दृश्य लगता है|
विशाल उर्फ हथौड़ा त्यागी का चरित्र इतना विद्रुप और प्रभावशाली रचा गया है कि उसकी खामोशी के सन्नाटे से ग्रसित दृश्य भी पर्दे पर भय उत्पन्न करने में सक्षम हैं| इस भूमिका में अभिषेक बनर्जी की आँखें ही सब कुछ बयान कर देती हैं| लगभग बिना संवादों के रचे चरित्र को देख गोविंद निहलानी की फ़िल्म आक्रोश के आदिवासी चरित्र लहनियाँ (ओम पुरी) की स्मृति ताजा हो जाती है, जो खामोश रहकर भी इतना कुछ पर्दे पर संप्रेषित करता है जितना जोरदार संवाद बोलकर भी नहीं किया जा सकता| चीनी या मेरी लिंगदोह की भूमिका में एम॰ रोनाल्डो सिंह पर्दे पर बेहद प्रभावशाली उपस्थिति बनकर उभरते हैं| उस पात्र की निरीहता, बेबसी, दर्द, प्रताड़ना, और रहस्य को रोनाल्डो ने बेहद अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है और उनके बहुत से दृश्य दर्शकों के जेहन में लंबे समय तक जीवित रहेंगे|
सीबीआई वाला कोण कुछ ज्यादा ही सरलीकरण का शिकार हो गया है और वह बेहतर तरीके से बुना जा सकता था जिससे दर्शक को इतने आसान निष्कर्ष निकालने का मौका न मिल पाता|
बहरहाल पाताल लोक में हाथीराम चौधरी के व्यक्तिगत जीवन के पहलू भी खासे विश्वसनीय लगते हैं| उसकी पत्नी के रूप में गुल पनाग निम्न मध्यवर्गीय घरेलू गृहिणी की भूमिका इतने असरदार तरीके से निभाने के बाद यह एहसास कराती हैं कि उन्हे और ज्यादा भूमिकाओं में नज़र आना चाहिए|
हाथीराम चौधरी के पुलिस वाली नौकरी उसके तनाव, और इस कारण निजी जीवन पर पड़ते असर और उसके उतार चढ़ाव को श्रंखला असरदार तरीके से प्रस्तुत करती है और जयदीप अहलावत अपने अभिनय जीवन का अभी तक का श्रेष्ठ प्रदर्शन करके घोषणा कर देते हैं कि उनका अच्छा वक्त आ गया है|
हाथीराम और उसके बेटे के बीच का संबंध भी रोचक है| पहले तो लड़का अपने पुलिसिया पिता से दूर ही दूर रहता है| पिता ने अपने पुलिस अधिकारी से कहकर बेटे को सबसे अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवाया है ताकि वह पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बन सके| पर धनिकों के बच्चों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित इस स्कूल में लड़का अपने को तुच्छ समझ हीन भावना से ग्रसित रहता है| न तो वह धन और रुतबे में अपने सहपाठियों की बराबरी कर सकता है और न ही अँग्रेजी बोलने या लिखने में| अपनी आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण वह दबा छिपा रहता है स्कूल में और अपने सहपाठियों के उपहास का पात्र बना रहता है|
स्कूल में वर्ग संघर्ष के कारण हीन भावना से ग्रस्त होने और पिता के प्रति नापसंदगी के कारण वह अपने घर के आसपास अपराध की दुनिया में नवजात लड़कों की संगत करने लगता है| जब फंस जाता है तब पिता द्वारा साहसिक तरीके से उसका बचाव करते देख और पिता को धाराप्रवाह गालियां बकते देख वह पिता को प्रशंसा भरी निगाहों से देखने लगता है|
राजनीतिक या क्राइम थ्रिलर वाले हिस्सों से ज्यादा प्रभावी हाथीराम की निजी ज़िंदगी वाले हिस्से बन पड़े हैं|
ऐसा ही मीडिया जर्नलिस्ट संजीव मेहरा (नीरज कबी) की उपकथा के साथ भी है| एक टॉप मीडिया जर्नलिस्ट के जीवन की झलकियाँ बखूबी दिखाई गई हैं| उसके व्यावसायिक जीवन के ग्लैमर, दबाव और तनाव, भ्रष्ट और अनैतिक तौर तरीके, महत्वाकांक्षा और निजी जीवन के भटकाव, पत्नी से बेवफाई और अपनी जूनियर सहकर्मी युवती से छिपा हुआ संबंध कायम करना और इसी कारण मानसिक रूप से अवसाद, और चिंता की मरीज पत्नी को नज़रअंदाज़ करना, अपने मीडिया चैनल के मालिक से तनावग्रस्त संबंध, प्रतिद्वंद्वी धनाढ्य से हाथ मिलाकर अपने ही मीडिया समूह पर कब्जे आदि की उप कथा की गत्यात्मक प्रकृति को श्रंखला भली भांति प्रस्तुत करती है| ये हिस्से खासे विश्वसनीय प्रतीत होते हैं और नीरज कबी और अन्य सहयोगी कलाकारों के अच्छे अभिनय के कारण आकर्षक भी प्रतीत होते हैं|
सारांश में प्राचीन भारत के मिथक कथाओं के स्वर्ग, धरती और पाताल लोक के विभाजन के समांतर आधुनिक दिल्ली में भी ऐसे विभाजन को परिभाषित करते हुये तीनों लोकों की कथाओं को श्रंखला रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है|
यह अचरज की बात है कि तरुण तेजपाल के उपन्यास – The Story of My Assassins से प्रेरित होने के बाद भी श्रंखला इस उपन्यास को कोई श्रेय नहीं देती|
कमियों के बावजूद पाताल लोक, वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक संसार से चुनी गई कथाओं के समावेश से निर्मित एक आकर्षक वैब श्रंखला है| दुर्दांत अपराधियों के क्रूर अपराधों के जीवंत प्रदर्शन से लेकर उनमें पशु प्रेम जैसी कोमल मानवीय भावनाओं के दो धुरों के बीच श्रंखला आसानी से भ्रमण कर लेती है और मानव मस्तिष्क एवं हृदय में बदलाव की संभावना हर स्थिति में जीवित रह सकती है इस बात को लक्षित करती है|
…[राकेश]
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