कारगिल का युद्ध एक ऐसा कड़वा इतिहास है जो भारतीय जनमानस से आसानी से हट नहीं पायेगा| जिसने भी उस दौर का मंजर देखा है, उसे कश्मीर की तरफ कूच करती बोफोर्स तोपें और सेना की टुकडियों के वाहनों की लम्बी कतारों के दृश्य भूले नहीं होंगे| कारगिल युद्ध में शहीद हुए भारत के जांबाजों के मृत शरीरों के पीछे आंसू पोंछते चलती लोगों की भीड़ के मन में गहन दुःख के साथ साथ पाकिस्तान के प्रति आक्रोश भरा हुआ रहता था| कारगिल से ठीक पहले के काल में भारत की तरफ से सदभावना यात्रायें भेजी जा रही थीं, और भारत के नामचीन लोग उन सद्भावना यात्राओं का हिस्सा बनकर भार-पाक मित्रता के सपने को साकार करने में लगे हुए थे|

पाकिस्तान से अहमद फ़राज़ लिख रहे थे

तुम्हारे देस में आया हूँ दोस्तों अब के

ना साज़ो-नग्मों की महफिल ना शायरी के लिये

अगर तुम्हारी आना ही का सवाल है तो

चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिये।

तो जवाब में भारत से अली सरदार ज़ाफरी लिख भेज रहे थे…

तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश

हम आये सुबह बनारस की रोशनी लेकर

और उसके बाद ये पूछें कि कौन दुश्मन है?

लेकिन कलाकारों के इस प्रयास के उलट सन 1999 के मई माह में पाकिस्तान ने कारगिल पर आक्रमण कर दिया।

इस धोखे से समूचा भारत स्तब्ध रह गया था|

हमारी तो विरासत है जानकर विष पीने की

सो नीलकंठ बने बैठे हैं|

तुम्हे दिखायी न दिया हो तो

चेताना हमारा कर्तव्य है

नफरत के ज्वालामुखी पर खड़ा तुम्हारा देश

भस्मासुर बन गया है

और एक दिन यह अपने ही बनाये

तेजाब से गल जायेगा|

कसक जरुर रह जायेगी धोखे की

पर देर सवेर भर जायेगा

हमारे वतन की पीठ का घाव

पर

तुम्हारे वतन के हाथ से

बेगुनाहों का रक्त

छुटाये न छुटेगा।   [जूलाई १९९९ …राकेश]

पाकिस्तान की भारत में अलगाव फैलाने की गतिविधियों की वजह से इन तमाम बरसों में भारत को तो जो भी नुकसान उठाना पड़ा है वह अपनी जगह है परन्तु कारगिल युद्ध के बाद के बरसों में और वर्तमान में पाकिस्तान के हालात बखूबी दर्शा रहे हैं कि कट्टरता की आँधी में अंधे होकर बह जाने से उसका कितना बड़ा नुकसान हुआ है।

कारगिल पर कुछ भी रचा जाए वह भारतीयों की भावनाओं को स्पर्श करता है| पिछले बीस सालों में कारगिल युद्ध पर संवेदनाओं से भरपूर फ़िल्म- धूप बनी, निरुद्देश्य जीवन जीते युवा से एक कर्मठ सैनिक बनने की यात्रा दिखाती एक युद्ध फ़िल्म – लक्ष्य बनी, जिसे अटपटे मेकअप के बावजूद हृतिक रोशन और संक्षिप्त सी भूमिका में ओम पुरी के बेहतर अभिनय के लिए याद किया जाता है| भारत-पाक के मध्य जासूसी को लेकर राज़ी बनी, भारत द्वारा पाक पर सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर ऊरी बनी| ये सब फ़िल्में स्मरणीय बन गयीं| बीच में गुंजन सक्सेना आई जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सिनेमाई छूट के नाम उटपटांग स्वतंत्रता ले ली गई, जिससे निस्संदेह बचा जा सकता था| बीच में जे पी दत्ता की बेहद औसत एल ओ सी भी आ गयी|

शेरशाह फ़िल्म, कारगिल और भारत -पाक सैन्य संघर्ष पर पिछले बीस बरसों में बनी उन तमाम हिन्दी फिल्मों में कहाँ ठहरती है? क्या यह कारगिल संघर्ष के बारे में कुछ ऐसा नया दिखा पाई जो पिछली फिल्मों में नहीं था? क्या यह कथा, कथानक, अभिनय, निर्देशन, या फ़िल्म निर्माण के अन्य पहलुओं में पिछली फिल्मों से बेहतर कर पाई?

ये प्रश्न वाजिब हैं और शायद अलग अलग दर्शकों के समूहों के लिए इनके उत्तर अलग होंगे| उसी तरह “शेरशाह” अलग अलग दर्शकों को अलग तरह से प्रभावित करेगी| जो दर्शक पहली बार कारगिल युद्ध पर बनी कोई फ़िल्म देख रहे होंगे उन्हें यह बेहद अच्छी प्रतीत हो सकती है और “धूप“, “लक्ष्य” “ऊरी” आदि देख चुके दर्शकों को संभवतः कुछ नयापन महसूस होना कठिन बात लगे|

कारगिल चूंकि भारतीय जनमानस के लिए भावुकता से भरा मसला है सो व्यावसायिक रूप से उस पर फ़िल्म बनाना हमेशा ही लाभ का काम रहा है और आगे भी रहेगा| लेकिन सिनेमाई प्रगति के कोण से देखें तो जब तक पिछली फिल्मों से अलग, ज्यादा गहरा और श्रेष्ठ प्रदर्शन कोई फ़िल्म सभी विभागों में न कर पाए तक तक औसत फिल्मों की ही रचना होती रहेगी|

शेरशाह में ऐसी कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन साथ ही ऐसा कुछ असाधारण भी नहीं दिखाई देता कि दर्शक को ऐसा एहसास हो कि हाँ एक बेहतरीन युद्ध फ़िल्म देखी|

कारगिल पर आधारित कथानक में बाद में समझे घटनाओं के विवरण के आधार पर अपनी समझ से कुछ नहीं डाला जा सकता| उस वक्त के ज़िंदा और वहां सक्रिय फौजियों की ज़िंदगी पर अगर फ़िल्म बन रही है तो फ़िल्म को सिलेसिलवार ढंग से एक समय में उतना ही दिखाना होगा जितना उस समय के फौजी जान रहे थे| व्यक्तिगत व्याख्या जो बाद में उस वक्त की घटनाओं के विवरण के आधार पर जन्मी समझ से उत्पन्न हुयी, फ़िल्म में शामिल नहीं की जा सकती. भले ही कल्पना आधारित फ़िल्म क्यों न बनाई जा रही हो| कारगिल के समय जितना उस वक्त वहां तैनात फौजी जा रहे थे केवल उसी पर नियंत्रित ढंग से रहा जाये तो चरित्रों के सामने अनजाने दुश्मन से लड़ने का तनाव बढ़ जाता है| “शेरशाह” इन तथ्यों का ध्यान रखती तो अनजाने का सामना करने वाला रोमांच बढ़ जाता|

धर्मा प्रोडक्शन जैसे बड़े और सुविधा संपन्न निर्माताओं की फिल्मो का बजट इतना सुविधाजनक होता है कि कायदे की रिसर्च करके सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्मों में किसी काल का संतोषजनक प्रस्तुतीकरण हो सके|

कर्नल जोशी का चरित्र साधारण काल में ड्यूटी पर दाढी कैसे बढ़ाकर घूम सकता है? युद्ध के मैदान में बात अलग होती है| कर्नल जोशी हर समय दाढी में ही नज़र आते हैं| सेना में केवल सिख लोग ही स्थाई रूप से दाढी रख सकते हैं|

विक्रम बत्रा (सिद्धार्थ मल्होत्रा) संग पिकनिक पर रॉक गार्डन में घूम रही डिम्पल (कियारा अडवाणी) जिस वेशभूषा को धारण किये हुए है क्या उसका अस्तित्व भी १९९७ के आसपास भारत में हुआ करता था?

सिद्धार्थ के हिस्से कुछ अच्छे दृश्य आते हैं और वे श्रम करते भी दिखाई देते हैं लेकिन उनके द्वारा दर्शाए सम्पूर्ण चरित्र चित्रण में पूर्ण रूप से धांसू अभिनय देखने का भाव दर्शक के अन्दर उभरना मुश्किल है| यही चरित्र यदि विक्रम बत्रा का न कहलाकर कारगिल युद्ध के समय फौजियों से प्रेरित एवं कल्पित किसी युवा फौजी अधिकारी का होता तो बात अलग हो जाती क्योंकि तब हर बात में कल्पना का समावेश होता| वास्तविक चरित्र रखने से शुरू से ही दर्शक की अपेक्षाएं अलग किस्म की हो जाती हैं| विक्रम बत्रा के चरित्र के लिए अभिनेता की न्यायोचित उपस्थिति ग्लैमर विहीन होनी चाहिए थी| चूंकि दर्शक भावुक होकर इस फ़िल्म को देखेगा अतः उतनी समस्या उसे सिद्धार्थ मल्होत्रा के अभिनय प्रदर्शन से नहीं आयेगी लेकिन एक अभिनेता के रूप में प्रगति की निगाहों से देखें तो सिद्धार्थ मेहनत तो करते हैं लेकिन वे उस चरित्र को एक स्टार बनकर और बनाकर ज्यादा प्रस्तुत करते हैं| शाइनी आहूजा या आयुष्मान खुराना सरीखा व्यक्तित्व कहीं ज्यादा प्रभावशाली लगता विक्रम की भूमिका के सटीक प्रस्तुतीकरण के लिए क्योंकि वे इसे स्टार की तरह से कम और एक नए फौजी, भले ही वह कितना ही जिंदादिल क्यों न हो, की तरह से निभा पाते| सिद्धार्थ और बहुत बेहतर कर सकते थे| “शेरशाह” में डॉ बार ऐसा होता है कि उनकी टुकड़ी युद्ध के दौरान असमंजस में फंस जाती है और दोनों बार वे जेब से एक हेण्ड ग्रेनेड निकाल कर दुशमन पर आक्रमण करने के लिए खुले में आ जाते हैं| जब वे हेण्ड ग्रेनेड की सेफ्टी पिन निकालते हैं तो दोनों बार अपनी टुकड़ी के साथियों की और देखते हैं, ये मौक़ा था सैनिक वाले भाव चेहरे और आँखों में लाने का और एक अनजाने लक्ष्य में जानते बूझते कूदने से पहले के डर को दरकिनार कर निश्चय पर पहुँच जाने के भाव के अभिनय को दिखने का, यहाँ स्टार और मॉडल वाला पोज़ देने वाला तरीका अभिनय के स्तर को नीचे खींच लेता है| विक्रम के सहयोगी सूबेदार रघु के चरित्र का अभिनय कर रहे अभिनेता के भय को देखिये जब वह अपने केप्टन को जान कर मौत के मुंह में जाते हुए देखता है, उसकी तुलना में सिद्धार्थ चूक गए| वे जैसे अपनी टुकड़ी की और देखते हैं वह युद्ध में मौत के कगार पर खड़े सैनिक का भाव नहीं है बल्कि एक ऐसे अभिनेता का है जिसे पता है यह सब शूटिंग का हिस्सा है| यहाँ अभिनेता चरित्र में समाया या खोया नहीं और अभिनेता सिद्धार्थ ने अपने अभिनय जीवन का एक महत्वपूर्ण क्षण गँवा दिया| कियारा अडवाणी संग रोमांटिक दृश्यों में वे आकर्षक लगते हैं और संभावना जगाते हैं कि वे किसी अच्छी रोमांटिक फ़िल्म में बेहतर कर सकते हैं| हास्य वाले उनके दृश्यों को देख ऐसा आभास बार बार होता रहा कि मानों वे उन दृश्यों को इस तरह कर रहे हैं कि शाहरुख़ खान होते तो इस दृश्य को ऐसे करते, जैसे मिलेट्री कैंटीन में शराब मांगने वाला दृश्य हो, कियारा के साथ फ्लर्ट में हास्य प्रस्तुत करने वाले दृश्य हों|

कियारा अडवाणी, जितने भी दृश्य उन्हें मिले, चरित्र के भावों के अनुसार ध्यान आकर्षित कर पाने में सफल रहती हैं|

सहायक भूमिकाओं में कई अभिनेता बेहतर काम करते हैं|

विक्रम बत्रा के चरित्र को कई फ़िल्में अपना हिस्सा बना चुकी हैं लेकिन उनके साथ फ़िल्म के लिए विक्रम के शहीद हो जाने के बाद डिम्पल का जीवन बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है| जिन्होंने बीस इक्कीस साल विक्रम बत्रा की याद में गुज़ार दिए हों और जिनका वास्ता चंहु ओर फैले भ्रष्टाचार और लोगों के दैनिक जीवन के हर क्षेत्र में लगातार टपकते लालच से पड़ता हो, और जो देश हित से ऊपर स्व-हित को रखने वाले लाखों करोड़ों भारतीयों को देखती रही हों, उनके विचार बेहद महत्वपूर्ण बन जाते हैं| उनकी तपस्या बहुत महत्त्व रखती है|

एक फ़िल्म उसके विक्रम के बाद के जीवन पर बननी ही चाहिए अगर डिम्पल चीमा उसकी अनुमति दें|