Talvar-001 सीबीआई निदेशक अपने कनिष्ठ अधिकारी से कहता है –

‘अश्विन, तुमने इंसाफ की मूर्ति देखा है, उसके हाथ में तराजू है, आँखों पे पट्टी, अक्सर लोग देखना चूक जाते हैं कि उस मूर्ति के हाथ में एक तलवार भी है, इंसाफ के हाथों की वो तलवार हम हैं पुलिस वाले, मगर पिछले साठ सालों में उस पर जंग लग गया है और जब तक वो जंग साफ़ नहीं होता तक तक यही होगा और यूँ ही होगा’|

मेघना गुलज़ार दवारा निर्देशित और विशाल भारद्वाज दवारा लिखी गई फिल्म ‘तलवार’ का शीर्षक पुलिस रूपी तलवार पर ही रखा गया है| चूँकि यह फिल्म नोयडा के बहुचर्चित आरुषि तलवार और हेमराज के दोहरे हत्याकांड पर आधारित है अतः फिल्म का शीर्षक ‘तलवार परिवार’ के जातिगत नाम से जुड़ा दिखाने के लिए भी रखा गया हो सकता है| फिल्म देखने से पहले तो हर दर्शक इसे ‘तलवार परिवार’ के नाम से ही फिल्म के शीर्षक को जोड़ेगा| फिल्म में तलवार परिवार के आधार पर टंडन परिवार को रचा गया है और फिल्म उनके परिवार में घटे हत्याकांड की कहानी दिखाती है|

इंसाफ की देवी न्यायालय में न्यायाधीश के माध्यम से न्याय करती है और न्याय के मंदिर के दरवाजे तक मामले की बारीकियां लेकर जाने का काम पुलिस का है, पुलिस ठोस सुबूत एकत्रित करके, न्यायालय पहुँचती है जहां वकील उन सुबूतों के पक्ष और विपक्ष में विश्लेषण प्रस्तुत करके उनकी सच्चाई निर्धारित करते हैं और उन सच्चे सिद्ध हो चुके सुबूतों के आधार पर न्यायाधीश मुकदमों का फैसला सुनाया करते हैं| अगर पुलिस अपना काम सही नहीं कर पाई और अनमने और अटपटे ढंग से सुबूत जुटा कर अदालत में पहुँच गई तो बहुत संभावना इसी बात की है कि न्याय कतई नहीं हो सकता, क्योंकि जज को तो अदालत में प्रस्तुत किये गये तथ्य और सुबूत के आधार पर ही निर्णय देना है| अगर मुकदमा क़त्ल का है तो मामला पेचीदा हो जाता है और पुलिस की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है| अगर वारदात के स्थल पर से पुलिस ने सुबूतों को कायदे से चुन चुन कर नहीं उठाया और फोरेंसिक विज्ञान दवारा उपलब्ध कराई गई आधुनिक और बेहतरीन सुविधाओं का भरपूर उपयोग नहीं किया तो सच का सामने आना कठिन हो जाता है|

तलवार’ फिल्म में यही होता है और एक रात टंडन परिवार के घर में टंडन दंपत्ति की इकलौती बेटी- चौदह साल की श्रुति, की ह्त्या उसी के शयनकक्ष में कर दी जाती है और तफ्तीश करने आई नोयडा पुलिस के अधिकारी श्रुति के कमरे में पड़ोसियों, रिश्तेदारों और मीडिया के लोगों की आवाजाही ऐसे होने देते हैं जैसे बहुत मामूली अपराध हुआ हो और वे बिना सुबूतों को मौक़ा-ए-वारदात से एकत्रित किये ही चुटकी बजाते ही मामले का समाधान ढूँढ लेंगें और हत्यारे को दबोच लेंगें और अदालत में उसका जुर्म भी साबित कर देंगें| पुलिस की लापरवाही इस मामले पर भारी पड़ती है और पुलिस की जांच टीम अपनी भावी असफलता को देख कर ह्त्या का आरोप श्रुति के माता-पिता के ऊपर मढ़ कर इस मामले से फारिग हो जाना चाहती है| और श्रुति और उसके माता-पिता के चरित्रों का हनन करके पुलिस श्रुति के माता पिता को हत्यारा घोषित करते हुए चार्जशीट दाखिल कर देती है|

मामला सी.बी.आई के पास जांच के लिए जाता है और सी.बी.आई का काबिल अधिकारी अश्विन (इरफ़ान खान) इस मामले की जांच शुरू कर देता है और उसे यह देख कर ताज्जुब होता है लोकल पुलिस के जांच अधिकारियों ने इस मामले के साथ बलात्कार किया है और उन्होंने जितने सुबूत जुटाये नहीं उससे ज्यादा नष्ट कर दिए| लोकल पुलिस की तफ्तीश ने हत्याकांड को इतना उलझा दिया है कि अब सीबीआई के लिए इसमें से झूठ को बाहर फेंक कर सच को सामने लाना टेढी खीर बन चुका है|

तलवार’ दिखाती है कि अगर पुलिस ऐसे ही ह्त्या जैसे संगीन जुर्म के मामलों की तफ्तीश इस लापरवाह अंदाज में करती है तब पीड़ित पक्ष को न्याय पाने की उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए| न तो पुलिस वालों को आधुनिक तौर तरीकों की ट्रेनिंग ही प्राप्त है और न ही उनका मन जांच में लगता है| वे पचास और कामों के साथ जांच भी निबटा दिया करते हैं| उनमें ऐसी लगन नहीं है कि अब यह मामला सामने आया है तो जब तक वे सच्चाई का पता नहीं लगा लेते तब तक उन्हें चैन नहीं आ सकता| ‘तलवार’ फिल्म पुलिस की कार्यप्रणाली पर बेहद गंभीर सवाल उठाती है| पुलिस जिसे चाहे छोड़ सकती है और जिसे चाहे अपराधी ठहरा सकती है| जब तक पुलिस अधिकारी की प्रगति रपट से उसे दिए गये मामलों की सफलता को जोड़ा नहीं जायेगा तब तक पुलिस ऐसे ही अकर्मण्यता और अक्षमता का परिचय बार-बार देती रहेगी|

स्थानीय पुलिस के मुख्य अधिकारी का मित्र और उसका बैचमेट सीबीआई का नया निदेशक बन जाता है और अपने मित्र का बचाव करने और सीबीआई के पुराने निदेशक से प्रतिद्वंद्विता रखने के कारण उससे पुराने हिसाब चुकता करने की दबी लालसा के कारण नया निदेशक, अश्विन के सहायक को अपनी ओर मिलाकर, अश्विन दवारा बेहद मेहनत से संजोयी हुयी जांच को संदिग्ध बनवा देता है और उसे बट्टे खाते में डाल कर नई टीम से नये सिरे से जांच शुरू करने का निर्णय लेता है और अश्विन को सीबीआई से बाहर निकलवा देता है| नई टीम का काम अश्विन दवारा की गई जांच के उलट मामले को करवट दिलवाना है| अश्विन की जांच टंडन दंपत्ति को बेक़सूर और उनके नौकर खेमपाल के साथियों कन्हैया और राजपाल को ह्त्या का दोषी ठहरा रही थी और नया जांच दल कन्हैया और राजपाल को निर्दोष और टंडन दम्पत्ति को श्रुति और खेमपाल की हत्याओं का दोषी ठहरा कर सुबूत इस दिशा में इकट्ठे कर रहा था| सीबीआई के नये निदेशक की कृपादृष्टि पाने के लिए नया जांच दल इस निर्णय को पहले निश्चित कर लेता है कि श्रुति की ह्त्या उसी के माता पिता ने की थी और अब बस उन्हें सुबूत भर जुटाने हैं जिससे टंडन दम्पति पर कानून का शिकंजा कसा जा सके|

फिल्म डराती है कि किस तरह पुलिस ह्त्या जैसे मामलों में भी लापरवाही दर्शा सकती है, कैसे पुलिस अधिकारियों की अक्षमता, अकर्मण्यता और उनकी आपसी प्रतिद्वंदिता किसी मामले को प्रभावित कर सकती है और बेगुनाहों को क़ानून की नजरों में दोषी करार दे सकती है|

फिल्म दोनों जांच दलों के पक्ष को दिखाती तो है लेकिन फिल्म स्पष्टतया यह स्थापित करती है कि अश्विन की जाँच सही दिशा में थी और स्थानीय पुलिस और सीबीआई की दूसरी जांच पक्षपात से परिपूर्ण थी| फिल्म में बिल्कुल ऐसा नहीं है जैसा अकीरा कुरोसावा की रशोमन में था कि तीन अलग अलग कोणों से एक ही घटना को देखने पर हर कोण सही लगे| ‘तलवार’ में बिल्कुल साफ़ तरीके से अश्विन की जांच को सही और दूसरे दल की जांच को पक्षपातपूर्ण और गलत दिखाया गया है| सो रशोमन से इस फिल्म की तनिक सी भी तुलना पूर्णतया गलत है| दोनों फिल्मों में कोई सामंजस्य नहीं है| ‘तलवार’ अगर रशोमन की भांति यह उद्देश्य लेकर चली थी कि दो अलग अलग दिशाओं से जांच दिखाकर दर्शक के ऊपर निर्णय को छोड़ देगी तो इसमें फिल्म असफल रही है| फिल्म कतई भी दर्शक के ऊपर निर्णय को नहीं छोड़ पाती|

कुछ साल पहले खोजी पत्रिका ‘तहलका’ की पत्रकार शोमा चौधरी ने आरुषि हत्याकांड में अदालत का निर्णय आने पर अपनी तरफ से खोज की थी और अपने लेख (विस्तृत लेख यहाँ पढ़ा जा सकता है और शोमा दवारा खुलासा किये जाना वाला वीडियो

यहाँ देखा जा सकता है) में उपलब्ध सुबूतों के आधार पर विश्लेषण करते हुए यह सिद्ध किया था कि कैसे पुलिस और सीबीआई ने कोई सुबूत न होते हुए भी तलवार दंपत्ति को अपनी ही बेटी के ह्त्या का आरोपी ठहरा दिया और कैसे गंभीर सुबूतों के होते हुए भी उनके नौकर हेमराज के साथियों को जांच से बाहर रखकर मामले से सच को बिल्कुल ही बाहर निकाल दिया|

पत्रकार अविरुक सेन की किताब ‘आरुषि’ भी ऐसे ही निर्णय पर पहुँचती है| विशाल भारद्वाज दवारा लिखी गई कथा-पटकथा में और शोमा चौधरी के शोधपरक लेख के निष्कर्षों काफी समानताएं हैं बल्कि ऐसा ही लगता है कि शोमा चौधरी के लेख के ऊपर ही फिल्म के लेखन को आधारित किया गया है| अगर देखने में भूल न हुयी हो तो फिल्म शोमा चौधरी के शोधपरक लेख को कोई क्रेडिट नहीं देती|

सत्य घटनाओं, और वह भी हाल ही में घटी घटनाओं, पर आधारित फिल्मों को देखने में दर्शकों को परेशानी आती है क्योंकि वे स्वयं भी आखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से मामले से परिचित होते रहते हैं और चरित्रों को वे असली जीवन के व्यक्ति समझ कर ही फिल्म को देख पाते हैं| अगर घटना भूतकाल में घटी हो और बीच में काफी साल बीत गये हों तो दर्शक का घटना से अंतराल बढ़ जाता है और विषय से यह दूरी उसे घटित के कल्पित रूप को देखने में आसानी से देखने और हर बात को पचा पाने में सहायता प्रदान करती है|

तलवार’ में भले ही नाम बदल दिए गये हों पर शीर्षक और अन्य बातों के सामंजस्य के कारण सभी दर्शकों को फिल्म देखते हुए यह बोध रहता है कि यह फिल्म आरुषि तलवार हत्याकांड पर आधारित है और उस हत्याकांड और उसकी जांच प्रक्रिया को तफसील से दिखा रही है|

अब इस सेटअप में कायदे से नायक तो कोई भी नहीं हो सकता लेकिन किन्ही अज्ञात कारणों से फिल्म अश्विन (इरफ़ान खान) के चरित्र के निजी पहलुओं को भी दिखाती है| पति पत्नी या प्रेमी और प्रेमिका का रिश्ता गुलज़ार की फिल्मों का एक अहम हिस्सा रहा है और उस लिहाज से यहाँ भी सबसे ज्यादा परतदार हिस्सा अश्विन और उसकी पत्नी रीमा (तबू) के बीच के रिश्ते को दिखाने वाला हिस्सा ही है लेकिन फिल्म के मुख्य कथानक से इस हिस्से का कोई सीधा ताल्लुक है नहीं| अगर दूसरे जांच दल के अधिकारी के बेटे को छोड़ दें तो किसी और चरित्र के निजी जीवन को फिल्म में दिखाया भी नहीं गया है| इरफ़ान के आकर्षक अभिनय (जिसे जरूरी नहीं भूमिका की हदों में रहने वाला प्रभावशाली अभिनय माना जाए) और तबू के दमदार अभिनय के बावजूद उनके जीवन का कोण फिल्म के मुख्य फार्मेट से भिन्न फार्मेट दे देता है और श्रुति नहीं बल्कि अश्विन फिल्म का मुख्य चरित्र बन जाता है| अश्विन और रीमा के मध्य बिगड़ते-बनते रिश्ते की झलकियां फिल्म में एक अन्य, जो कि अच्छा भी लगता है, स्वाद तो लेकर आती हैं और वे इस ओर भी इंगित करती हैं कि मेघना गुलज़ार ऐसे रिश्ते पर बेहद संवेदनशील और बेहतरीन फिल्म बना सकती हैं, लेकिन कहीं न कहीं यह कोण फिल्म को एक काल्पनिकता का पुट देकर इसे सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म और काल्पनिकता से बुनी फिल्म के घालमेल में फंसा देता है और फिल्म के वर्ग की आदर्श स्थिति में यह कोण एक तरह से मिलावट का काम करती है|

और इस मिलावट के लिहाज से देखें तो जहां बाकी कलाकार बेहद सहज नज़र आते हैं और हरेक ने अपनी उपस्थिति अभिनेता होने से ज्यादा चरित्र ही होने में दर्शाई है, वहीं इरफ़ान को एक स्टार की भांति उभारा गया है| गजराज राव जहां उ.प्रदेश पुलिस के एक खांटी पुलिस अधिकारी का प्रतिनिधित्व सफलतापूर्वक कर पाते हैं, कोंकणा सेन और नीरज कबी, श्रुति के ग़मगीन माता-पिता के चरित्रों को बेहद ईमानदारी और प्रभावी तरीके से परदे पर उतार पाते हैं, अन्य अभिनेता भी अपनी अपनी भूमिकाओं की हदों में सफलता पूर्वक रहते हैं वहीं इरफ़ान थोड़ा सा स्टारडम की ओर ज्यादा चले गये हैं| केस से अलग हटाये जाने और अपने सहायक से मारपीट करके हाथ में चोट लगवाकर घर वापिस आने पर तबू के सामने विवशता में क्रंदन करते हुए दृश्य को तो वे बिल्कुल ही बिगाड़ देते हैं| इरफ़ान जैसे जहीन कलाकार के लिए तलवार एक खतरे की घंटी है| सहज अभिनय उनकी विशेषता राही है अगर वे स्टार की भांति उभरा हुआ अभिनय करने के जंजाल में फंस जायेगें तो दुनिया बेहद प्रतिभाशाली इरफ़ान के चमत्कारी अभिनय प्रदर्शन से वंचित रहती जायेगी| यह फिल्म बिल्कुल ही कपोलकल्पित फिल्म नहीं है| यह हाल के बरसों के बेहद चर्चित मामले पर आधारित है और इसमें वास्तविकता का पुट होना जरूरी था|

अश्विन-रीमा और इजाज़त :-

बहरहाल इस एक बात से हटें और अश्विन और रीमा के व्यक्तिगत रिश्ते को कल्पित फिल्म का हिस्सा स्वीकार कर फिल्म देखें तो इसमें मेघना गुलज़ार और विशाल भारद्वाज की जोड़ी ने गुलज़ार की बेहद अच्छी फिल्म इजाज़त का इस्तेमाल ख़ूबसूरती से पार्श्व में किया है जिसके असर थोड़ा गहराई से देखने पर संकेतों में सामने नज़र आते हैं| गुलज़ार की इजाज़त ने दिखाया था कि स्त्री-पुरुष के मध्य रिश्ते में वही सच नहीं होता जो आँखों से दिखाई दे रहा है और किसी घटित के पीछे कुछ ऐसे कारण अवश्य  ही हो सकते हैं जो दूसरे पक्ष को दिखाई नहीं दे रहे और इसीलिए एक पक्ष आधे अधूरे तथ्य को देख अपना पक्ष तय कर लेता है ऐसे निर्णय ले लेता है जो दो नजदीकी लोगों के मध्य रिश्ते को समाप्त कर देता है| फिल्म में सुधा (रेखा), अपने पति महेंद्र (नसीरुद्दीन शाह) और माया (अनुराधा पटेल) के रिश्ते को लेकर भ्रमित हो जाती है और महेंद्र की जीवन से दूर चली जाती है, जब रिश्ते को पुनर्जीवित करने के अंतिम प्रयास के रूप में महेंद्र को फोन करती है तो फोन माया उठाती है और सुधा सोचती है कि अब माया महेंद्र के साथ ही रहती है और अब महेंद्र को उसकी कोई जरुरत नहीं है, और वह इस रिश्ते को तोड़ देने का निर्णय कर लेती है (सच्चाई उसे बाद में पता चलती है कि महेंद्र को दिल का दौरा पड़ा था और माया महेंद्र की देखभाल के लिए वहाँ रुकी हुयी थी, बाद में ही उसे पता चलता है कि माया कुछ समय बाद एक्सीडेंट में मारी गयी| और अब उसने खुद ही दूसरी शादी कर ली है, तो सुधा और महेंद्र का जो रिश्ता पूरा सच जानने से बच सकता था उसका अंजाम ऐसी स्थायी जुदाई में होता है)|

अश्विन इजाज़त फिल्म को पसंद करता है और शायद उसके कथानक से प्रेरणा भी पाता है, किसी मामले को सुलझाने में भी यह दृष्टि उसकी सहायता करती है और रीमा के साथ बिगड़ते जा रहे निजी रिश्ते में भी इजाज़त ही उन दोनों की सहायता करती है| तलाक लेने पर आमदा रीमा इजाज़त देख कर ही इस बात को समझ पाती है कि अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने में बेहद मितव्ययी अश्विन का भी कोई पक्ष हो सकता है जहां वह सच्चा है| अश्विन नहीं चाहता कि उसका रीमा से रिश्ता बिगड़े लेकिन वह उसे सुधारने की इच्छा रखने के अतिरिक्त सतह पर कुछ ऐसा नहीं करता जिससे बात बने| वह चाहता है रीमा खुद ही बात को समझ जाए| और इस स्थिति में इजाज़त उसकी सहायता करती है| रीमा के माइग्रेन के लिए डाक्टर दवारा दी गयी दवाई का नाम बताने वाला लम्हा ऐसा है जब रीमा को महसूस होता है कि जिस दवा का नाम वह खुद भूल गयी उसका नाम अश्विन को याद है और वह संकेत ग्रहण कर लेती है कि अश्विन को उसकी परवाह है, उसके मामलों की परवाह है, भले ही ऊपर से वह लापरवाही दर्शाता हो|

अश्विन रीमा का कोण एक पूरी फिल्म की सामग्री है| अपनी खूबसूरती और गहराई के बावजूद यहाँ ‘तलवार’ में यह पूरा हिस्सा एक तरह से फिल्म के साथ अजनबी प्रतीत होता है| अच्छा होता विशाल भारद्वाज और मेघना गुलज़ार इस कोण को इस विस्तार से न दिखाते और इरफ़ान को एक चरित्र के रूप में ही प्रस्तुत करते, न कि एक स्टार की तरह|

आकर्षक लेकिन फ़िल्मी अंदाज़ न अपना कर अगर अंडर प्ले का सहारा लिया जाता तो उनकी भूमिका अविस्मरणीय बनती|

आरुषि तलवार हत्याकांड के सभी पहलुओं से लोग परिचित रहे हैं और इस तथ्य को मद्देनज़र रखते हुए इस बात की एहसास फिल्म देखने का बाद होता है कि जज दवारा टंडन दंपत्ति पर ह्त्या का मुकदमा चलाये जाने, सीबीआई के दूसरे जांच दल की तफ्तीश और सर्वप्रथम लोकल पुलिस दवारा की गई जांच को एक साथ जोड़कर बाद में अश्विन का पक्ष दिखाया जाना चाहिए था जिससे दर्शकों को यह भान रहता कि एक अन्य पहलू भी था जांच का और कैसे सीबीआई ने खुद ही उसे दरकिनार कर दिया| अब पुलिस के बाद सिलेसिलेवार तरीके से अश्विन और बाद में दूसरा जांच दल सामने आता है और चूँकि अश्विन की जांच से दर्शक जुड़ चुका होता है तो दूसरे जांच दल की जांच में शुरू से दर्शक के मन में यह भाव रहता है कि ये लोग अश्विन को गलत ठहराने के लिए जांच कर रहे हैं| रहस्य वाला भाव गायब हो जाता है|

फिल्म के ऐसे प्रस्तुतीकरण के बाद यह कहना कि सभी पक्षों को ऐसे दिखाया गया है कि दर्शक खुद निर्णय ले लें, और कि रशोमन की भांति अलग अलग कोण से एक ही घटना को दिखाया गया है, सही प्रतीत नहीं होता| फिल्म तलवार, का निश्चित मत है कि आरुषि तलवार हत्याकांड में तलवार दंपत्ति निर्दोष हैं और उनके घरेलू सहायक  के मित्रों ने दोनों हत्याकांडों को अंजाम दिया|

ऐसा पक्ष बनाना कोई गलत बात नहीं है, यह एक पक्ष है पर तब ऐसा सच कहकर ही फिल्म को प्रचारित किया जाना चाहिए|

आखिर सच तो यह भी है कि जेल में सजा काट रहे तलवार दंपत्ति ने अगर वाकई अपनी बेटी की ह्त्या की होती तो इतने बरसों में अब तक उन्हें अपराध बोध न हुआ होता? अब उनके जीवन में बचा क्या है जिसके कारण वे इससे चिपके रहें और अपराध करने के बावजूद अपने को निर्दोष साबित करने के लिए जेल से ही प्रयास करते रहें? चौदह साल जिस बेटी को दिन रात बड़े होते देखा, जिससे जीवन की इतनी यादें जुड़ गयीं, क्या उसकी ह्त्या करने के बाद एक पल को भी ऐसा नहीं महसूस होगा कि स्वीकार कर लें अपना अपराध और अपने जी को हल्का कर लें| अब तक ऐसा नहीं हुआ यही बहुत कुछ बताता है कि उन्होंने यह अपराध नहीं किया था| जिस तरह से उन्होंने स्वयं ही पुलिस को ला लाकर सुबूत दिए वह कोई अपराधी नहीं करता|

शोमा चौधरी के शोध, अविरुक सेन की किताब और विशाल भारद्वाज और मेघना गुलज़ार की फिल्म ‘तलवार’ को सही मानें तो देश ने, और इसके क़ानून ने तलवार दंपत्ति के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है और यह मामला देश की क़ानून व्यवस्था पर एक सवालिया निशान की भांति चस्पा है, देश और सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं ही इस मामले का संज्ञान लेकर न्याय की स्थापना करनी चाहिए|

…[राकेश]