हाल ही में दिवंगत श्री राजेन्द्र यादव, हंस पत्रिका के यशस्वी संपादक और प्रसिद्द हिंदी लेखक और चिन्तक, ने कहीं लिखा था कि अब तो अमृत नाहटा इस बात से ही इनकार करते हैं कि उन्होंने कभी “किस्सा कुर्सी का” नामक फिल्म बनायी भी थी| संभवतः यह विवरण इस फिल्म के मूल संस्करण के बारे में था, जिसके बारे में कहा जाता है कि देश में आपातकाल के दौरान इस फिल्म के सभी प्रिंट्स और निगेटिव जला कर नष्ट कर दिए गये थे| बहरहाल प्रस्तुत है हिंदी सिनेमा के इतिहास की एक सबसे ज्यादा विवादास्पद फिल्म “किस्सा कुर्सी का” का इतिहास, फिल्म के निर्माता अमृत नाहटा की लेखनी से :-
बहुत साल पहले मैंने “Becket (1964)” फिल्म देखी थी और Peter O’Toole द्वारा निभाये चरित्र ने मुझे बहुत प्रभावित किया। कुछ समय बाद मैंने ओम शिवपुरी को नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा द्वारा प्रस्तुत नाटक “The Miser” में अभिनय करते देखा और मुझे लगा कि अगर सही चरित्र और अवसर दिये जायें तो ओम भी बहुत ऊँचाई तक उठ सकता है।
बहुत सालों से मैं एक राजनीतिक फिल्म बनाना चाहता था। अपने छात्र जीवन के दौरान मैंने कुछ राजनीतिक और Shadow plays किये थे और मैंने पाया था कि लोगों ने उन्हे काफी पसंद भी किया था।
मैंने ओम शिवपुरी को ध्यान में रखते हुये एक पोलिटिकल फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी। लिखते समय Becket भी दिमाग में थी। मैंने फिल्म का शीर्षक रखा “सबसे बड़ा सवाल“। अब तक मैं संत ज्ञानेश्वर फिल्म बना चुका था और संसद में मैं एक सांसद के तौर पर भी चुना जा चुका था। उस वक्त्त हिम्मत सिंह Film Finance Corporation के चेयरमैन थे। वे उस वक्त्त राज्यसभा के सदस्य भी थे। मेरे एक मित्र ने उनसे मेरा परिचय करवा दिया। मैंने उनसे पूछा कि क्या FFC मेरी फिल्म को बनाने में आर्थिक सहयोग दे सकता है? मैंने उन्हे स्क्रिप्ट भेज दी। कुछ समय बाद उन्होने मुझे लिखा कि स्क्रिप्ट में एक अच्छी फिल्म बनाने लायक सामग्री नहीं है। मामला समाप्त हो गया!
समय बीता। 1971 में हुये मध्याविधि चुनावों में मैं फिर से सांसद चुन लिया गया। उन दिनों में एक ऐसे राजनीतिक समूह का हिस्सा था जो कथित रुप से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के करीब माना जाता था। एक शाम, इस समूह के कुछ सदस्य श्रीमति गाँधी के साथ डिनर कर रहे थे और बातचीत के दौरान श्रीमति गाँधी ने मुझसे पूछा,” नाहटा जी, राजनीति में सही या गलत क्या है”?
मैं स्तब्ध रह गया। गांधी और नेहरु के देश की प्रधानमंत्री के लिये परिणाम ही सब कुछ था और उसे पाने के लिये उपयोग में लाये गये साधन चाहे जो हों या जैसे भी हों। बाद के राजनीतिक घटनाक्रमों ने मुझे विश्वास दिलाया कि श्रीमति गांधी के रुप में देश को एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जिसका विशवास नैतिकता में नहीं था।
इस बीच मैंने NSD द्वारा प्रस्तुत अन्य नाटक भी देखे और मुझे उनमें से कुछ में अभिनय करने वाले मनोहर सिंह को देखने का भी मौका मिला। अब तक ओम शिवपुरी बम्बई फिल्म उद्योग में स्थापित होने चला गया था और मनोहर सिंह में मुझे एक प्रतिभाशाली और संभावना वाला अभिनेता दिखायी दिया। मुझे एक हिंदी फिल्म – “फिर भी” देखने को मिली। मैं इसके निर्देशक श्री शिवेंद्र सिन्हा से मिलने का इच्छुक हो गया। मुलाकात होने पर मैंने उन्हे एक काबिल, समर्थ. संवेदनशील, और कल्पनाशील निर्देशक पाया।
अब तक एक राजनीतिक फिल्म बनाने की इच्छा एक जुनून बन चुकी थी। मैंने शिवेंद्र जी के सामने फिल्म निर्देशित करने का प्रस्ताव रखा और वे तुरंत तैयार भी हो गये। उनके कजिन अजित सिन्हा भी हमसे जुड़ गये। हम तीनों बहुत दिनों तक दिल्ली में जनपथ स्थित वेस्टर्न कोर्ट में घंटो साथ बैठकर मगजमारी करते रहे और “सबसे बड़ा सवाल” की मूल स्क्रिप्ट को सुधारते रहे। राजनीति में मेरा वास्तविक अनुभव भी काम आ रहा था। इस बीच मैंने हिंदी व्यंग्यकार हरि शंकर परसाई के साथ भी फिल्म की कहानी पर चर्चा की और उन्होने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिये।
जैसे-जैसे हमारी स्क्रिप्ट प्रगति पाती रही, देश का बदलता माहौल हमें चिंतित करने लगा। क्या हमें स्क्रिप्ट में परिस्थितिनुसार समझौते करने चाहियें? मैंने तय किया कि इस फिल्म को हम चेतना से सम्बंधित फिल्म बनायेंगे। तब भी रिस्क कम करने के लिये मैंने कुछ नामी वकीलों से सलाह मशवरा किया और उन्होने मुझसे कहा कि कनून मेरी तरफ है और कोई भी या कुछ भी मुझे फिल्म प्रदर्शित करने से नहीं रोक सकता।
अभिनेताओं की तलाश शुरु हो गयी। मनोहर सिंह उपलब्ध थे। चमन बग्गा, जो कि एन.एस.डी में टीवी निर्माता थे, के रुप में हमें अपनी फिल्म का Iago मिल गया। हमारी स्क्रिप्ट की मांग कम से कम दर्जन भर चरित्र अभिनेताओं की थी। ये भूमिकायें छोटी जरुर थीं पर फिल्म को प्रभावशाली बनाने के लिये बहुत महत्वपूर्ण थीं। शिवेंद्र जी दिल्ली में टीवी स्टेशन स्थापित करने के काम से जुड़े रहे थे और टी और रेडियो पर काम करने वाले कलाकारों को जानते थे। उन्ही में से हमने ऐसे अनुभवी कलाकारों को चुन लिया जिनके बिना फिल्म में जान न पड़ पाती।
दिल्ली में हमें न तो योग्य अभिनेत्रियाँ ही मिल पायीं और न ही एक युवा रोमांटिक चेहरा। हम बम्बई चले गये। FTII से ट्रेनिंग पायी हुयी शबाना आज़मी और रेहाना सुल्तान फिल्म में मुख्य भूमिकायें निभाने के लिये राजी हो गयीं। FTII से ही उसी समय पास होकर आने वाले आदिल में हमें फिल्म के लिये रोमांटिक चेहरा मिल गया। बम्बई में ही हमें एक अन्य चरित्र के लिये मनहर देसाई मिल गया और उसने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया।
तकनीशियनों के मामले में हमें परेशानी नहीं थी और हमने तय कर लिया था कि FTII से ट्रेनिंग पाये हुये तकनीशियनों को ही हम अपनी फिल्म में लेंगे। लंच करते करते के.के महाजन ने कहानी सुनी और तुरंत फिल्म के लिये सिनेमेटोग्राफर बनने को राजी हो गया। देशपांडे, फिल्म का एडिटर, स्क्रिप्ट को आखिरी रुप देने के लिये हमारे साथ बैठा और उसने कुछ उल्लेखनीय सुझाव दिये। चतुर्वेदी ने साऊण्ड इंजीनियर का काम संभाला और बाबा, शिवेंद्र जी का सहायक बनने को राजी हो गया।
बहुत विचार-विमर्श के बाद हमने फिल्म के लिये एक थीम सॉंग निश्चित किया। फिल्म्स डिवीज़न के रघुनाथ सेठ, जिन्होने “फिर भी” में भी संगीत दिया था, हमारी फिल्म के संगीत निर्देशक बने। मैंने गीत के बोल लिखे और आशा भोसले और महेंद्र कपूर ने गीत को गाया। बहरहाल, सबसे बड़ी चुनौती थी फिल्म का स्तर और प्रभाव बनाये रखने के लिये एक उपयुक्त्त पार्श्व संगीत (बैक-ग्राऊण्ड म्यूजिक) तैयार करने की। रघुनाथ जी ने झिंझोड़ने वाला संगीत तैयार किया।
हमने तय किया था कि फिल्म में वास्तविकता का पुट लाने के लिये दिल्ली में ही शूटिंग की जायेगी। सौभाग्य से फोर्ड फाऊण्डेशन, कुतुब होटल और विज्ञान भवन की इमारतों में हमें उपयुक्त्त लोकेशंस मिल गयीं और इन स्थलों ने फिल्म
को राजनीतिक रुप देने में पूरी सहायता की। दिल्ली में टीवी से जुड़े रावत के रुप में हमें एक बेहद परिश्रमी और कल्पनाशील आर्ट- डायरेक्टर मिल गया। शिवेंद्र जी बहुत बारीकी से सब पहलुओं पर निगाह रखते थे और रावन ने उनकी योजनाओं मूर्त रुप देने में कसर न छोड़ी।1974 के जूलाई माह तक धन को छोड़कर सभी कुछ तैयार था। कोई भी ऐसी फिल्म को खरीदने या इसमें निवेश करने आगे नहीं आया। इस फिल्म में न सैक्स था, न क्राइम, न हिंसा, न रोमांस, न हॉरर, न मेलोड्रामा और न ही कोई फॉर्मूला। यह एक अव्यवसायिक किस्म की फिल्म थी जो वितरकों को केवल पूरी होने के पश्चात ही बेची जा सकती थी। न ही यह कला-फिल्म थी, अगर ऐसे शब्द से मतलब ऐसी फिल्म से हो जिसे इलीट वर्ग के ऊँचे दिमाग वाले चुनींदा दर्शक देखते हों। मैं इसे ऐसे माध्यम से बनाना चाहता था जो मैं जानता था कि बहुत शक्तिशाली है।
मैंने दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों से धन उधार लिया। बिल्कुल हैंड-टू-माऊथ किस्म की शूटिंग थी हमारी फिल्म की। हालांकि हमारी फिल्म छोटे बजट की फिल्म थी तब भी मैं जितना हो सकता था और कम खर्चे में काम चलाने की कोशिश करता था। सारी यूनिट किराये पर लिये गये एक बंगले में ठहरी और वहीं सबके लिये किचन स्थापित की गयी। ईस्ट्मैनकलर में फिल्माने क बावजूद निगेटिव की लागत नौ लाख रुपये आयी। यह रकम किसी भी स्तर से बहुत कम थी। सभी ने पूरी तरह से सहयोग दिया। इतनी समर्पित टीम के साथ काम करना एक बहुत अच्छा अनुभव था।
कोई भी फिल्म वास्तव में एडिटिंग टेबल पर बनती है। शूटिंग तो अक्टुबर तक खत्म हो गयी थी लेकिन एडिटिंग, डबिंग, पार्श्व संगीत, मिक्सिंग और स्पेशल इफेक्ट्स आदि ने पांच महीनों से ज्यादा समय लिया।
मैंने इंडियन एक्सप्रैस के अबू अब्राहम से गुजारिश की कि वे “कुर्सी” थीम पर बीस कार्टून बनायें और वे तुरंत राजी हो गये। ये कार्टून्स टाइटल कार्ड्स पर अवतरित हुये और वे फिल्म के महत्वपूर्ण अंग बने। आखिरकार फिल्म सेंसर बोर्ड के समक्ष प्रदर्शन के लिये तैयार थी।
नोट: शैक्षणिक व अव्यवसायिक उपयोग के लिये हिन्दी सिनेमा के इतिहास से सम्बंधित एक विवादास्पद फिल्म के निर्माता के लेख का हिंदी रुपांतरण प्रस्तुत किया गया है।
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