‘कुलटा’…, बेटा जोर से अपनी माँ को गाली देकर वार करने के लिए उसकी ओर दौडता है|
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लोगों के लिए कितना आसान होता है पढ़ना, देखना या सुनना कि कुंती कर्ण के पास जाती है और उसे बताती है कि कर्ण उसका ज्येष्ठतम पुत्र है और वह उससे आग्रह करती है कि शक्तिशाली योद्धा कर्ण युद्ध में पांडू पुत्रों – पांडव भाइयों, की जान न ले, क्योंकि हैं तो वे कर्ण के अनुज ही, भले ही उनके पिता वही नहीं हैं जो कर्ण के थे|
यह पढ़ना, देखना और सुनना भी आसान है कि कर्ण का जन्म कुंती के पांडू से विवाह से पहले ही हो चुका था और इसीलिए लोकलाज के भय से कुंती को कर्ण को जन्मते ही त्यागना पड़ा| यह सब जानना भी कितनी आसानी से हो जाता है लोगों के लिए कि पांडव भाइयों को बाद में पता लगा कि कर्ण उनका ज्येष्ठ भ्राता था|
दूर घटती घटनाओं को पचाना आसान होता है क्योंकि वे किसी और के साथ घट रही हैं, तभी साहित्य आदि में मनुष्य कुछ भी पचा लेता है पर जिस बात को वह साहित्य में सराहता है उसी को वास्तविक जीवन में नकारता है, उसकी निंदा करता है| दूर और दूसरों के साथ घटी बात तो कथा है! लेकिन यदि यही बात अपने साथ या नजदीकी व्यक्ति के साथ घटे तो सहने में पूरा व्यक्तित्व हिल जाता है, मानसिक संतुलन बिगड जाता है|
मनुष्य के दिमाग को बचपन से ही एक खास किस्म की कंडीशनिंग मिलती है और इसीलिये वह उन्ही सीमित दायरों में सोचता और व्यवहार करता है|
कोई भी मनुष्य (स्त्री या पुरुष) अपने संपर्क में आने वाले हर उस तीसरे चौथे इंसान से शारीरिक संपर्क स्थापित करने की इच्छा रख सकता है जो उसके मन को भा जाए और ऐसा करते भी हैं लोग लेकिन ऐसी इच्छा रखने वाले इंसान गुस्से में पागल हो जाते हैं अगर ऐसे ही कदम उनके माता या पिता या भाई और बहन उठा रहे हों या उनकी संतान उठा रही हो और उन्हें इस बात का पता लग जाए|
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सावित्री (सुषमा सेठ) कमरे में प्रवेश करती है, अंदर उसके बेटे और उनकी पत्नियां किशन चंद (अमरीश पुरी) के साथ बातचीत में व्यस्त है|
गजब का दृश्य है यह!
सावित्री कहती है – मुझे तुम लोगों से बात करनी है|
स्पष्टत: वह अपने बेटों से बात करना चाहती है|
सुभद्रा (सुप्रिया पाठक), किरण (रीमा लागू) और किशन चंद इस संकेत को स्वीकार कर कमरे से बाहर निकलने लगते हैं लेकिन सुप्रिया (रेखा) बाहर जाने में हिचकिचाहट दिखाती है, इसे सास – बहू के मध्य का तनाव भी कहा जा सकता है, और सुप्रिया के मजबूत व्यक्तित्व का धोतक भी क्योंकि घर में वह सबसे शक्तिशाली और सक्रिय पुरुष – अपने देवर, भरत, पर भी नियंत्रण रखती है| वह अपने शारीरिक हाव-भाव से दर्शा देती है कि उसे यह बात पसंद नहीं आई|
सावित्री दृढ स्वर में कहती है – मुझे अपने बेटों से बात करनी है|
किशन चंद अपनी बहन सुप्रिया की बांह पकड़ कर कमरे से बाहर ले जाता है और अपने पीछे कमरे का दरवाजा बंद कर देता है|
अंदर सावित्री अपने बेटों से कहती है – करण (शशि कपूर) मारा गया … करण भी मेरा ही बेटा था, तुम सबसे बड़ा|
करण उनकी माँ का ही बेटा था यह राज जानकर तीनों भाइयों धरम राज (राज बब्बर), बलराज (कुलभूषण खरबंदा) और भरत राज (अनंत नाग) पर वज्रपात हो जाता है| धरम राज स्तब्ध है, पर जल्दी ही अपने को संभाल लेता है, बल राज, दुखी हो कर इस अंदाज में मुस्कराता है जिससे उसके चेहरे पर निराशा और व्यंग्य के भाव उमड़ आते हैं|
लेकिन यह रहस्योद्घाटन सबसे ज्यादा विचलत भरत को करता है जो क्रोध में अपनी माँ को ‘कुलटा’ कहकर उसे मारने दौडता है|
धरम राज भरत को रोकता है|
कमरे में एक माँ के तीन बेटों में से तीनों अलग अलग ढंग से इस राज को ग्रहण करते हैं और जो उनके अंदुरनी स्वभाव को भी दर्शाता है| केवल धरम राज ऐसा है जो अपनी माँ के दुख को समझ पा रहा अहै और सांत्वना देने उसके पास जाता है|
जिस उम्दा तरीके से दृश्यों का सिलसिला परदे पर आता है वह इस बात की गवाही देता है कि इस बोल्ड फिल्म में शानदार गुणों का समावेश किया गया है|
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पूरी फिल्म के दौरान ऐसे कई क्षण आते हैं जो दर्शक के मानस पर भारी चोट करते हैं और उसे विचार करने या आत्मविश्लेषण की यात्रा पर भेज देते हैं|
कर्ण की व्यथा जिस जबर्दस्त तरीके से इस फिल्म में सामने आई है वह अति नाटकीय टीवी धारावाहिकों या ओवर द टॉप किस्म की मिथक फिल्मों में संभव नहीं| करण को जब सावित्री यह बताती है कि वह भी उसी का बेटा है तो करण को कई झटके एक साथ लगते हैं|
उसे एहसास होता है कि उसके मित्र धन राज ने उसे उसके ही भाइयों के खिलाफ इस्तेमाल किया है और धनराज के षड्यंत्र की वजह से ही बलराज का पुत्र मारा गया, हालांकि धनराज भरत को मारना चाहता था| करण को भली भांति ज्ञात है कि उसका छोटा भाई भरत उससे बेपनाह घृणा करता है| वह इसलिए भी सच को जानकर कुंठित है क्योंकि उसे बचपन से एक अनाथ की तरह से जीना पड़ा है| उसे इस बात से भी कोफ़्त है कि यूं तो धनराज उससे हर मामले में सलाह करता है पर धनराज ने उसे अँधेरे में रखकर भरत को मारने की योजना बनाई|
कुंठित होकर वह भीष्मचंद (ए.के. हंगल) के पास जाता है, जो निर्वासित जीवन जी रहे हैं और उनसे कहता है कि वह आत्महत्या करना चाहता है|
भीष्म चंद ने करण को बचपन से अपने संरक्षण में पाला है, वे सच पहले से जानते हैं, और एक ही परिवार के दो भागों में आपसी मुकाबले से पहले ही कुंठित हैं और करण का यह कथन उन्हें और ज्यादा कुंठित कर जाता है और वे कहते हैं – कौन रोकता है तुम्हे, करो जो करना है|
उस समय करण को कहाँ पता है कि उसके खिलाफ क्या षड्यंत्र रचा जा चुका है|
विचार कार्यों को प्रभावित करते हैं और इसलिए घटनाएं आकार ले लेती हैं लेकिन इन कार्यों के परिणामस्वरूप जो फल मिलते हैं वे स्तब्ध छोड़ देने वाले भी हो सकते हैं और अगर गलती का एहसास हो जाए और जीवन में हुयी हानि का मूल्यांकन हो जाए कि कुछ क्षतियों की पूर्ति नहीं की जा सकती तो पछतावे की मात्रा की कोई सीमा नहीं और व्यक्ति कैसा भी फैसला ले सकता है|
फिल्म के चरित्र ही नहीं बल्कि दर्शक भी एक घराने की दो धाराओं के बीच हिंसात्मक प्रतिद्वन्दिता से उपजी हानि को देख दुख महसूस करते हैं पर जीवन को आगे चलना होता है और जब बड़े वृक्ष धराशायी हो जाएँ तो नई पौध को उपवन की जिम्मेदारी संभालनी होती है| जिन दो धाराओं ने आपस में इतनी मार काट मचाई उनके हितों को संभालने वाला कोई जिम्मेदार वयस्क जब नहीं बचता तब आशा नई पौध को सिंचित करके परिपक्व बनाने में आशा की किरण दिखाई देती है| जीने का सबब दिखाई देता है|
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फिल्म कलयुग, महाभारत की कथा से प्रेरित तो है पर उस कथा के तत्वों को आधुनिक काल में अंकुरित किया गया है और उन अंकुरों से अपनी खुद की पौध निकली है| महाभारत का असर तो है और देखने पर वही असर आता है पर यह महाभारत की नक़ल का नाट्य रूपांतरण नहीं है|
बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि जिस महाभारत को लोग जानते हैं यह उसकी नये किस्म की व्याख्या है, उस पर नये अंदाज की टिप्पणी है| कलयुग, महाभारत को आज के युग में समझने का प्रयास है| यह उन परिस्थितियों को और उन परिस्थितियों में घिरे मनुष्यों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास है| यह इतना अलग लगता है महाभारत से कि ऐसा अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं कि पिछले पच्चीस सालों में उभरे कट्टर हिन्दुत्ववादी संगठनों की हर मामले में दखलंदाजी को देखते हुए यदि यह फिल्म आजकल के दौर में सफलतापूर्वक तो प्रदर्शित भी नहीं हो पाती और कोई न कोई व्यक्ति या संगठन इसका विरोध करता ही कि इसने महाभारत की कथा को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया है|
श्याम बेनेगल ने प. सत्यदेव दुबे और गिरीश कर्नाड के साथ मिलकर महाभारत की कथा में नये मोड़ दिए हैं| इतने बेहतरीन लेखकों से यह उम्मीद करना भी नाइंसाफी है कि वे फोटोकॉपी मशीन की तरह काम करेंगे और महाभारत की जानी पहचानी कथा को दर्शक के सामने प्रस्तुत कर देंगें| यह तो तय ही है कि वे भागवत और रामायण के कथावाचकों जैसे नहीं हैं| उन्होंने पूरा शोध करके इस कलयुगी महाभारत को रचा है जो आज के युग में सार्थक और अर्थपूर्ण लगती है|
महाभारत की कथा दर्शाती है कि हम सब मनुष्यों के जीवन वही सब दुहरा रहे हैं जो इस महाग्रंथ में वर्णित हैं| हम सब वही गलतियाँ दुहराते चले जाते हैं जो इस महागाथा के चरित्रों ने की थीं| हजारों साल बीत गये हैं पर मनुष्य ऐसा संभव नहीं कर पाया है कि इस कथा में की गई गलतियों को न दुहराए| ईर्ष्या और घृणा के वशीभूत होकर लोग वही सब कुछ करते हैं जो इस किताब में लिखा गया है| ऐसा लगता है मानों किताब ने मनुष्य जीवन के इर्दगिर्द एक घेरा खींच दिया है और मनुष्य किताब में दर्शाई भूलभुलैया से बाहर निकल पाने में असमर्थ है मनुष्य बेहद कमजोर सिद्ध होता है इस चक्रव्यूह को तोड़ पाने के लिए|
कलयुग में महाभारत के कई चरित्रों के रंग किसी एक चरित्र में भर दिए गये हैं और घटनाओं को भी मिश्रित किया गया है| और कुछ भी सीधे सीधे वैसा का वैसा नहीं रखा गया है|
यदि कलयुग महाभारत की सीधी नक़ल होती तो दर्शक के सामने स्पष्ट रहता कि कब क्या होने वाला है और तब वह अपने मन में बसे खास चरित्रों की छवि के अनुरूप ही अभिनेताओं को अभिनय करते हुए देखना चाहता क्योंकि तब उसे यही लगता कि वह तो खासा परिचित है इन चरित्रों से| लेकिन कलयुग दर्शक की अपेक्षाओं से एक कदम आगे रखकर उसे आश्चर्य में डालती चली जाती है| फिल्म दर्शक को आसान निष्कर्ष और चरित्रों के बारे में पहले से जानी समझी बात प्रदान नहीं करती|
करण का चरित्र महाभारत के कर्ण से मिलता है पर यहाँ उसे भीष्म ने पाला है और सावित्री को शुरू से पता है कि करण उसका बेटा है|
फिल्म- कलयुग, मिथकीय चरित्रों का साधारणीकरणकरण और मानवीयकरण मात्र ही नहीं है वरन चरित्रों और घटनाओं का समर्थ विश्लेषण भी है|
इस नयी महाभारत की समझ यह भी दर्शाती है कि अगर कौरव न भी होते परिदृश्य पर तो पाँचों पांडव भाई मूल बातों – ज़र, जोरू और जमीन के आधारभूत मुद्दों पर आपस में ही लड़ते , क्योंकि वे भी एक माँ की संतान तो थे नहीं, उनकी माएँ अलग थीं| तो सगे भाई आपस में न भी लड़ते, पर दो पांडव एक तरफ और तीन पांडव दूसरी तरफ तो हो ही सकते थे| ‘कलयुग’ में तीन भाई सावित्री के बेटे हैं और दो भाई देवकी (विजया मेहता) के|
कलयुग, महाभारत के चरित्रों का सीधा फिल्मीकरण नहीं है, बल्कि यह आधुनिक मानव के मनोविज्ञान का अध्ययन है| यहाँ हर चरित्र गलतियाँ करता है और उसे किसी भी तरह से श्वेत श्याम रंगों में परिभाषित नहीं किया जा सकता| यहाँ वे करता हैं| वैसे भी मिथकों का फिल्मीकरण इसलिए बहुत सहायक सिद्ध नहीं होता क्योंकि उनकी कथा और उनके चरित्रों का चित्रण हमें मालूम होता है|
कलयुग के चरित्र हम लोगों में से ही उठाकर परदे पर प्रक्षेपित किये गये हैं| महाभारत देखते समय हम दूरी बना सकते हैं क्योंकि हमें पता है कि सब कुछ महाभारत पर आधारित है और जहां की सब घटनाएं हजारों साल पहले घटीं और सबको पहले से ज्ञात हैं| कलयुग से बचाव नहीं क्योंकि यह आज के मानव को दिखाती है|
भाइयों के मध्य ईर्ष्या का वास है और वे एक दूसरे से लड़ रहे हैं| संयुक्त परिवार में अंदर षड्यंत्र रचे जा रहे हैं एक दूसरे के खिलाफ| हर कोई अपने ही सगे संबंधी की छाती पर पैर रख आगे बढ़ना चाहता है|
कलयुग आधुनिक मानव के व्यवहार का अध्ययन है| महाभारत हमेशा समकालीन लगती है क्योंकि मानव इसकी कथा के चरित्रों जैसा ही व्यवहार करता है जब उनके जैसी परिस्थितियों में फंसता है| मानव जीवन भावनाओं, एहसासों और विचारों से नियंत्रित होता है और तीनों का आपस में एक अन्तर्निहित संबंध है| जब भी इस संबंध में संतुलन बिगड जाता है, मानव विनाश की ओर बढ़ जाता है
कलयुग, मानव के व्यवहार और उसके मनोविज्ञान को गहराई से खंगालने में सफल रहती है| मनुष्य का दिमाग अँधेरे बंद कोनों में भी विचरण करता है और मनुष्य का दिमाग एक रहस्यमयी बात है| पलक झपकते ही मनुष्य के दिमाग की कलाएं बदल जाती हैं और एक संत का दिमाग शैतान का दिमाग बन जाता है|
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ऐसा कहते हैं कि पिछली सदी के बेहद चर्चित उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री, जिन्होने बहुत ही प्रसिद्ध रही किताबों की रचना की, जिनमें भूतनाथ श्रंखला और चंद्रकांता एवं चन्द्रकान्ता संतति आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, को ताश खेलने का बेहद शौक था| वे अलग अलग कागजों पर लिखा करते थे और जब चन्द्रकान्ता संतति छप रही थी तो कई मर्तबा ऐसा हुआ कि प्रिंटिंग प्रेस वाला उनके पास आता कि फलां फलां पन्ना संख्या मिल नहीं रही है उनके लिखे कागजों के पुलिंदे में और बाबू देवकीनंदन खत्री ताश खेलते खेलते ही पिछला पन्ना पढते और वहीं पर गायब पन्ने की कथा लिख डालते| अब जिन्होने चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता संतति पढ़ी है वे इस प्रसंग में छिपे करिश्मे को भली भांति जान और समझ जायेंगें क्योंकि उस श्रंखला की किताबों में सारी कथा जलेबी की तरह घुमावदार है और दुनिया की सबसे ज्यादा रहस्यमयी भूल-भुलैया से ज्यादा रहस्यमयी, इस वृहत कथा श्रंखला की पुस्तक संख्या एक में यदि किसी रहस्य का विवरण एक पहेली की तरह पन्ना नंबर चौंतीस पर दिया गया है तो बहुत संभव है कि वह रहस्य श्रंखला की दूसरी, तीसरी या चौथी पुस्तक के पन्ना संख्या पैंसठ पर पाठक के समक्ष सुलझाया जायेगा| ऐसे में बाबू देवकीनंदन खत्री की विलक्षण स्मृति तो अनूठे गुण का उदाहरण है ही, इन पुस्तकों का भरपूर आनंद लेने के लिए पाठक की स्मृति भी बहुत अच्छी होनी चाहिए|
श्याम बाबू की कलयुग का वही स्थान हिंदी सिनेमा में माना जाना चाहिए जो चन्द्रकान्ता संतति का हिंदी साहित्य में है क्योंकि इस फिल्म में भी निर्देशक शुरू से ही छोटे छोटे सुबूत छोडता जाता है और बाद में ही इस बात का पता चलता है कि उस चरित्र के इस व्यवहार विशेष के पीछे राज क्या था?
किसी विशेष चरित्र दवारा शुरुआती दृश्यों में किसी को खास तरीके से देखे जाने का राज फिल्म के बाद के हिस्सों में दर्शक को समझ में आता है| फिल्म में इतनी परतें हैं कि इसका भरपूर आनंद लेने के लिए दर्शक को फिल्म बेहद ध्यान से देखनी पड़ती है और तब भी कुछ न कुछ उसके ध्यान से फिसल सकता है|
कलयुग, महाभारत में वर्णित बातों का विश्लेषण करती है इसके उदाहरणार्थ फिल्म में भरत और सुप्रिया के आपसी संबंध को प्रस्तुत किया जा सकता है| कुछ दृश्यों का उल्लेख करना सार्थक रहेगा|
पहले दृश्य में, भरत, सुप्रिया और परिवार के अन्य सदस्य भीष्म के घर पर आयोजित पार्टी में हिस्सा लेकर घर लौट कर आए हैं| पार्टी में धनराज (विक्टर बनर्जी) और भीष्म ने सबको यह बताया कि धनराज और करण को एक बहुत बड़ा कांट्रेक्ट मिल गया है और यह उन्हें इसलिए मिला है क्योंकि उन्होंने विदेश से बेहद महत्वपूर्ण मशीनें आयात कीं जिनकी सहायता से वे उत्पाद के निर्माण की कीमत कम रखने में कामयाब रहे हैं|
वह दौर व्यापार पर सरकारी नियंत्रण का दौर था|
यह सब जानकर भरत क्रोधित है, वह बलराज के बेटे को सुप्रिया के बड़े भाई किशन चंद को फोन मिलाने के लिए कहता है| सुप्रिया कहती है,’रुको मैं मिलाती हूँ|’
वह अपनी जगह से उठती है और उस सोफे पर आकर बैठ जाती है जहां भरत बैठा है| सुप्रिया के बैठते समय भरत उसके शरीर को देखता है| सुप्रिया उसके बड़े भाई धरम राज की पत्नी है| इस वक्त दर्शक भरत दवारा सुप्रिया को इस तरह देखने को नहीं समझ पाते लेकिन जिस चाह से वह कसी हुयी साड़ी में लिपटे सुप्रिया के शरीर को देखता है वह जरुर ध्यान से देख रहे दर्शक के नोटिस में आता है|
सुप्रिया के फोन मिलाते वक्त, कुंठित भरत गुस्से में बोलता है,’ डैम, ये करण को इतने आइडियाज आते कहाँ से हैं?’
सुप्रिया- जानते हो भरत, करण मुझसे शादी करना चाहता था|
भरत- वो अकेला ही थोड़े लाइन में रहा होगा|
सुप्रिया के चेहरे पर आए हाव भाव सिद्ध कर देते हैं कि अगर रेखा को श्याम बेनेगल जैसे काबिल निर्देशक मिलें तो वे क्या अदभुत अभिनय करके दिखा सकती हैं!
इसी तरह के कुछ अन्य दृश्य हैं जो कुछ और संकेत दर्शकों को देते हैं|
सुप्रिया एक बार भरत से कहती है – भरत, तुम ये मूंछे काट दो|
भरत हँस कर कहता है – क्यों मूंछे काटने से कांट्रेक्ट वापिस मिल जायेगा?
लेकिन बाद में वह मूंछे साफ़ करके क्लीन शेवन चेहरा लिए सबके सामने आता है|
भरत सुप्रिया की सलाह को बहुत महत्व देता है| भरत स्वतंत्र विचारों वाला महत्वाकांक्षी और शक्ति को अपने पास केंद्रित करने वाला पुरुष है| सुप्रिया को भी अपने पति से ज्यादा भरत की योग्यताओं और उसके प्रबंधन पर भरोसा है| इन्कम टैक्स की रेड के समय वह अपने पति को नहीं बल्कि भरत को आवाज देती है जब इन्कम टैक्स वाले अलमारी से उसके कपड़ों को निकालने लगते हैं| सुप्रिया अपने भाई का विरोध करती है जो भरत के साथ अपनी बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव रखता है|
फिल्म के अंत से कुछ पहले के भरत और सुप्रिया के साथ वाले अंतिम दृश्य से ही दर्शक को पता चल पाता है कि फिल्म में भरत और सुप्रिया के मध्य रिश्ते के बारे में दिए गये पहले के संकेतों का क्या अर्थ था?
सुप्रिया के चरित्र को बोलने के लिए बहुत थोड़े से संवाद मिले हैं, पर उसका चरित्र इस तरीक से विकसित किया गया है कि वह ऐसी महत्वाकांक्षी स्त्री है जो अपने आसपास के वातावरण में शक्ति की बागडोर अपने हाथ में रखना चाहती है| वह अपने अधिकार के लिए, या जिसे वह अपना अधिकार समझती है उसके लिए, किसी से भी लड़ सकती है| अपने पति, धरमराज, की तरह उसका सांसारिक बातों से मोह भंग नहीं हुआ है और वह भरपूर जीना चाहती है, पति की सांसारिक बातों और शक्ति अपने हाथों में केंद्रित करने की प्रवृत्ति से विमुख होने के कारण उसके लिए भरत ज्यादा गुणी पुरुष है जो उसी की प्रकृति का है, और सुप्रिया को लगता है भरत में दम है हर तरह की बाजियां जीत लेने का
धरम राज, एक संतोषी इंसान है और बहुत हद तक संन्यासी किस्म का पुरुष है| वह शांत प्रकृति का, भले दिल का पुरुष है जिसकी उर्जा आपनी रुचियों को संवर्धित करने और अध्यात्म की खोज क अपालन करने में लगती है| वह व्यापार में गला-काट प्रतियोगिता को नापसंद करता है और उसकी रूचि इस बता में है कि सीधे सादे तरीकों से अन्यों को नुकसान पहुंचाए बिना व्यापार चलता रहे और विकसित होता रहे, क्योंकि तब उसे व्यापार चलाने में खास दिक्कत नहीं है| वह शातिर व्यापारियों के समक्ष सफल नहीं हो सकता पर वह इस बात को भली -भांति समझता है और उसे इस बात को स्वीकारने में संकोच नहीं| वह अंदर से सन्तुष व्यक्ति है| वह प्रतिक्रियावादी नहीं है| लेकिन उसकी पत्नी सुप्रिया उसके उलट स्वभाव की है और उसका सभी सांसारिक मामलों में जीतने का विश्वास है| वह केन्द्रीय भूमिका में रहना चाहती है| वह अपने इत्द-गिर्द के संसार को नियंत्रित करना चाहता है|
एक दृश्य में, सुप्रिया इसलिए नाराज है क्योंकि उसे पता लगा है कि धरम राज और सावित्री ने भरत की शादी सुभद्रा से तय कर दी है, जो कि उसके भाई की बेटी है|
बिना किसी भूमिका के, अपने शयनकक्ष में वह धरम राज से कहती है,” अभी तो वो बच्ची है|”
पहले तो स्पष्टतः धरम राज उसकी बात समझ नहीं पाता लेकिन बाद में वह उसका आशय समझ जाता है और शान्ति से कहता है,” लेकिन उसके पिता ने कुछ सोच कर इस संबंध का प्रस्ताव रखा होगा|”
सुप्रिया उसकी ऐसी प्रतिक्रया से और क्रोधित हो जाती है और अपने बिस्तर पर जा बैठती है| धरम राज दोनों के बिस्तर के बीच में रखे लैम्प को जला देता है ताकि वह लेट कर किताब पढ़ सके| सुप्रिया गुस्से में लैम्प बद कर देती है और अपने बिस्तर पर लेट जाती है| धरम राज आराम से अपने बिस्तर पर लेट जाता है वह सुप्रिया की आवेग से भरी प्रकृति के उत्तर में कोई प्रतिक्रया नहीं देता|
सुप्रिया अक्सर धरम राज की पसंदगी का उपहास किया करती है जैसे उसकी घुड़सवारी के शौक का| सुप्रिया के अंदर अभी युवावस्था की भरपूर उर्जा है और वह युवा अंदाज में ही जीवन जीना चाहती है जबकि धरम राज परिपक्वता से भरी जिंदगी क अकायल है और उसके लक्ष्य भिन्न हैं जीवन में|
सुप्रिया, द्रौपदी जैसी स्त्री है, और उसका आकर्षण भरत की तरफ है| भरत भी उसकी ओर आकर्षित है न केवल शारीरिक रूप से बल्कि उसके गुणों के कारण भी| दोनों की पसंदगी परस्पर है| भरत, अर्जुन जैसा चरित्र है| फिल्म दर्शाने की चेष्टा करती है कि जब हिंदुओं में पौलीएंड्री (बहु-पति या बहु-पत्नी) कानूनी रूप से मान्य नहीं है तब कैसे एक स्त्री दो या अधिक भाइयों से संबंध रख सकती है| फिल्म आजकल के परिवेश में सारी परिस्थिति का विश्लेषण करने का प्रयास करती है और यह भी समझने का प्रयास करती है कि कोई इंसान क्यों अपने विवाह से बाहर जाकर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति का विकल्प तलाशता है|
सतह पर बाहर के लोगों को ही नहीं बल्कि परिवार के सदस्यों को भी धरम राज और सुप्रिया के एक सफल और सुखी दंपत्ति होने का भ्रम है| किरण अपने पति बलराज से कहती भी है,” दीदी और भाईसाहब का देखो कितना अच्छा है, दोनों कितना पढते रहते हैं|”
बलराज का विश्वास बढ़िया खाने और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने में है| उसका और किरण का एक किशोर उम्र का बेटा है पर दोनों हनीमून काल बिता रहे दंपत्ति जैसा व्यवहार एक दूसरे से करते हैं| बलराज के अंदर अपने सौतेले भाइयों के प्रति कोई नफरत नहीं है और वह धनराज के छोटे भाई संदीप राज के साथ बैठ शराब पिया करता है|
असली प्रतिद्वंदिता है धनराज और भरत के मध्य और धनराज इस लड़ाई में करण का इस्तेमाल अपनी तरफ से सेनापति के रूप में करता है| व्यापार में वह करण के ऊपर बहुत निर्भर रहता है किन्तु उसे भी वह हवा नहीं लगने देता कि उसने भरत की ह्त्या के लिए एक हत्यारे को भेजा है|
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ऐसा कहा जाता रहा है कि जो कुछ भी महाभारत में वर्णित किया गया है वह सब कुछ जगत में कहीं न कहीं हमेशा ही घटित होता रहता है और कलयुग फिल्म भी उसी परिकल्पना को सिद्ध करने का प्रयास है|
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कलयुग चरित्रों के व्यवहार को बारीकी से प्रस्तुत करती है| उदाहरणार्थ ओम पुरी के चरित्र – भवानी पांडे, को देखें| अपने शुरुआती दृश्यों में जहां भवानी अपने मजदूर साथियों को संबोधित कर रहा है, वहाँ उससे चीख चीख कर बुलवाया गया है ताकि वह मजदूरों के नेता के रूप में उभर कर अपने साथियों में जोश भर सके| भवानी एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति है जो मजदूर संघों का नेता बनने की ख्वाहिश रखता है| वैसे भी सोफिस्टिकेटेड चरित्रों की भीड़ में एक मजदूर संघ का नेता लाउड प्रतीत होगा ही| लेकिन मिल मालिकों के साथ अंदर कमरे में मीटिंग के लिए कमरे में प्रवेश करते ही भवानी के चरित्र के हाव-भाव बदल कर फिल्म के स्वभाव के मुताबिक़ बारीक हो जाते हैं| भरत के कथन – सीधे मुददे की बात करें-, के जवाब में सामने मेज पर अपना धूप का चश्मा रखते हुए भवानी कहता है – वक्त बचेगा|
कलयुग, मानव की भावनाओं को प्रदर्शित करने में मितव्ययिता का सहारा लेती है और अतिवादी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं से बचा गया है|
एक परिपक्व दर्शक, फिल्म देखते हुए निष्पक्ष या अक्रिय नहीं रह सकता| फिल्म उसे झकझोरती है और सोचने पर विवश करती है|
अच्छी कहानी और पटकथा, संवाद, सिनेमेटोग्राफी (गोविन्द निहालानी) और अन्य तकनीकी क्षेत्रों, और अभिनय प्रदर्शन तथा निर्देशन, फिल्म निर्माण के सभी क्षेत्रों में कलयुग धनी है| निर्देशक श्याम बेनेगल ने काबिले तारीफ़ अभिनय प्रदर्शन करवाया है अभिनेताओं से|
कलयुग में व्यावसायिक सितारे शशि कपूर (जो कि फिल्म के निर्माता भी हैं) और रेखा हैं पर कैमरा केवल उन्ही दोनों या किन्ही खास चरित्रों से ही नहीं चिपका रहता|
विजया मेहता को फिल्म में बमुश्किल चार संवाद मिलें हैं बोलने को पर तब भी उनका मौन रहने वाला चरित्र अपनी मजबूत स्थिति दर्ज करता है|
सेट डिजायनिंग से लेकर फ्रेमिंग पर इतनी बारीकी से काम किया अगया है कि फिल्म का हर फ्रेम उत्कृष्ट कला का नमूना लगता है|
एक दृश्य है जिसमें सारी स्त्रियाँ सफ़ेद वस्त्र पहने खड़ी हैं, यह दृश्य ऐसा लगता है जैसे अमृता शेरगिल की पेंटिंग हो|
हुसैन की घोड़ों वाली पेंटिंग्स दीवारों पर सजी रहती हैं|
सारा परिदृश्य इतना विश्वसनीय दिखाई देता है कि संदेह होता है कि श्याम बेनेगल और फिल्म के लेखकों ने किसी वास्तविक व्यापारिक घराने के ऊपर इस फिल्म को सेट किया है|
कलयुग ऐसी फिल्म है जिसकी बारीकियों पर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सके| यह हिंदी सिनेमा में बनी बेहतरीन फिल्मों में से एक है|
…[राकेश]
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