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Cinema, Theatre, Music & Literature

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Pankaj Kapur

Mammo (1994) : भारत के बंटवारे और ‘दो राष्ट्र’ के जिद्दी प्रयोग में दबी कुचली ज़िंदगी

...[राकेश]

Masaan (2015) : खिलने से पहले फूलों को खिज़ा खा गई

‘  ऐसे जीवन भी हैं जो जिए ही नहीं जिनको जीने से पहले ही मौत आ गई फूल ऐसे भी हैं जो खिले ही नहीं जिनको खिलने से पहले खिज़ा खा गई ...[राकेश] ©

Piku (2015) : हाजत हजार नियामत

...[राकेश]

रंजीत कपूर : थियेटर के एवरेस्ट पर झण्डारोहण से फिल्मों के सृजन तक

...[राकेश]

Mausam(2011) : काश अच्छे आगाज़ की तरह अंजाम भी बेहतर दे देते पंकज कपूर

आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता जब जुल्फ की कालिख में घुल जाये कोई राही बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता हँस-हँस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टूकड़े... Continue Reading →

Haat The Weekly Bazaar : सामंतवादी पुरुष समाज में चीरहरण सहने को विवश स्त्री शक्त्ति की विजय गाथा

औरत ने जनम दिया मरदों को, मरदों ने उसे बाज़ार दिया जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा धुत्कार दिया तुलती है कही दिनारो में, बिकती है कही बाजारों में नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में ये... Continue Reading →

एक रुका हुआ फैसला (1986): निष्पक्ष तार्किकता और न्याय की विजय

कवि दिनकर ने चेताया था कभी कहकर …[राकेश]

Dharm(2007) : दिल न मंदिर, न मस्जिद, न गिरजा, न गुरुद्वारा

अदब आमोज़ है मयखाने का जर्रा-जर्रा सैंकड़ों तरह से आ जाता है सिजदा करना इश्क पाबंदे वफा है न कि पाबंदे रसूम सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिजदा करना। बड़ा फर्क है सम्प्रदाय, जिसे लोग गलती से धर्म भी... Continue Reading →

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