कवि दिनकर ने चेताया था कभी कहकरekrukafaisla2

समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय देखेगा उनके भी अपराध

पर दिनकर की चेतावनी को ज्यादातर नज़रंदाज़ ही किया जाता है। तटस्थता को तो छोड़ ही दें, लोग दूसरों को फांसी देने की वकालत भी ऐसे करते हैं जैसे वे सर्वज्ञाता हों, सर्वव्यापी हों। ऐसा सभी देशों में, सभी समाजों में होता है। लोगों के पूर्वाग्रह उन्हे निष्पक्ष नहीं रहने देते और हरेक के अंदर एक न्यायधीश बनने की बेकरारी तो रहती ही है। लोग निर्णय देने में जरा सी भी देरी करना उचित नहीं समझते। लोग पल भर में किसी व्यक्ति या समुदाय को दोषी, निकृष्ट और अपराधी ठहरा देते हैं जबकि उनके पास ऐसा मानने के कोई तार्किक कारण नहीं होते बस उनकी अपनी समझ होती है जो पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होती है।

पहला पत्थर वे मारें जिन्होने कभी पाप न किया हो

जैसा मानवीय और न्यायोचित आग्रह भी धार्मिक किताबों में लिखी हुयी बकवास बन जाता है, जिस पर वास्तव में दुनिया में कोई बिरला ही अमल करता होगा।

दूसरे को निपटाने की जल्दबाजी नज़र आती है हर तरफ।

रोजमर्रा की ज़िन्दगी में चारों तरफ ऐसा ही दिखायी देता है कि लोग बहुत जल्दी विचार बना लेते हैं दूसरों के बारे में और ऐसा वे तब करते हैं जब वे ढ़ंग से जानते भी नहीं लोगों और घटनाओं के बारे में। जब ऐसे ही पक्षपाती लोगों का समूह एक भीड़ के रुप में बदल जाता है तो बड़े विनाश घटित होते हुये नज़र आते हैं। संतुलित मानस और संतुलित विचारधारा दुर्लभ वस्तुयें होते जा रहे हैं दिनो दिन।

1954 में Reginald Rose ने अमेरिकी टेलीविजन के लिये एक नाटक लिखा था 12 Angry Men। इसी नाटक पर Sidney Lumet ने 1957 में हॉलीवुड में इसी शीर्षक से फिल्म बनायी थी जिसमें Henry Fonda,  11 लोगों का सामना करते हुये एक बेकसूर को बचाते हैं जिस पर अपने पिता की हत्या करने का आरोप है। अंग्रेजी फिल्म अदभुत है और कई दशकों से दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करती हुयी आ रही है।

अस्सी के दशक के मध्य में रंजीत कपूर ने उसी अंग्रेजी नाटक का हिन्दी में रुपांतरण करके एक रुका हुआ फैसला नामक नाटक की रचना की थी। उन्होने इस नाटक का मंचन अपने निर्देशन में देश भर में किया था। यश चोपड़ा इस नाटक पर रंजीत कपूर से फिल्म बनवाना चाहते थे पर मामला बहुत प्रगति नहीं कर पाया और कालांतर में बासु चटर्जी ने रंजीत कपूर से उनके नाटक पर फिल्म बनाने की स्वीकृति ले ली और 1986 में फिल्म बना डाली।

अमेरिकी विधि-व्यवस्था में ऐसा प्रावधान है कि अपराध के केस जज एक ज्यूरी के सुपुर्द करता है और ज्यूरी के सभी सदस्यों को एकमत से मुलजिम के मुजरिम होने या न होने के संदर्भ में अपनी राय देनी होती है।

परंतु भारत में विधिक व्यवस्था से ज्यूरी का अस्तित्व पचास के दशक के अंत में नानावटी केस में उत्पन्न हुये विवादों के कारण खत्म कर दिया गया था। सो उस लिहाज से एक रुका हुआ फैसला का प्रारुप काल्पनिक लगता है और यह काल्पनिकता इसलिये भी ज्यादा फिल्म की वास्तविकता को कमजोर करती है कि फिल्म को कम से कम सत्तर या अस्सी के दशक में स्थापित किया गया है। अगर फिल्म को पचास के दशक में ही स्थापित किया जाता तो फिल्म की विश्वस्नीयता और बढ़ जाती।

बहरहाल काल्पनिक परिवेश के बावजूद फिल्म शुरु होते ही दर्शक को आकर्षित करना शुरु कर देती है और उसे एक ऐसे वातावरण में ले जाती है जहाँ तर्क-कुतर्क, पक्षपात-निष्पक्षता, पूर्वाग्रहों-न्यायोचित आदि इत्यादि जैसे संदर्भ दर्शक के सामने आकर पूरी ताकत से बल-प्रदर्शन करने लगते हैं और फिल्म के किरदारों की मनोस्थिति में आये बदलावों के साथ साथ दर्शक भी समय और तर्कों के साथ अपने निर्णय बदलते रहते हैं। फिल्म की यह खूबी तो है ही कि यह दर्शक को तार्किक निष्पक्षता का महत्व समझा देती है और उन्हे प्रभावित करने की कोशिश करती है कि वे मानव से जुड़े मामलों को संजीदगी से लें।

ऐसी कल्पना तो की ही जा सकती है कि मान लीजिये किसी विशेष केस में अदालत शहर के कुछ लोगों की एक समिति नियुक्त्त कर दे और समिति के सदस्यों से कह दे कि उन्हे इस मामले के सारे पहलुओं पर गौर करके एक राय बनानी है और अदालत को सलाह देनी है।

एक रुका हुआ फैसला की परिस्थितियों को ऐसे ही एक मामले की कल्पना करके स्वीकार और समझा जा सकता है और जब यह स्वीकृति आ जाये तो फिल्म दर्शक का ध्यान हटने नहीं देती परदे पर से।

सत्रह अठारह साल का एक किशोर आरोपित माना गया है अपने पिता की हत्या करने का। वह झुग्गी-झौंपड़ी में जन्मा और बेहद गरीबी के बीच पल कर इतना बड़ा हुया है। बाप शराबी और झगड़ालू। बाप क्रूरता से बचपन से ही उसे पीटता रहा है। लड़का चाकूबाजी में माहिर माना जाता है।

दो तरह की विचारधारायें लड़के के भूतकाल और उसके वर्तमान के बारे में बन सकती हैं। एक विचारधारा के लिये वह एक ऐसे परिवेश से आता है जहाँ गरीबी के दलदल में अपराध पलता है और अपराधी पैदा होते हैं और उस परिवेश में रहने वाला हर व्यक्ति अपराधी ही हो सकता है। ऐसे परिवेश में रहने वाले लोग कम से कम निम्न-मध्यम और उच्च मध्यवर्गीय समाज के लिये तो खतरा हैं ही और उन्हे जितनी जल्दी हो सके समाज से दूर कर देना चाहिये वरना वे तथाकथित सभ्य समाज के लिये मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। इस विचारधारा में उस गरीब परिवेश से आये लोगों के लिये एक नफरत का भाव है और यह नफरत इतने गहरे बैठी हुयी है कि इसका असर कम करना बहुत कठिन है।

दूसरी विचारधारा का जन्म उस लड़के के बचपन से लेकर अब तक के जीवन को एक निरपेक्ष दृष्टि से देखे जाने के प्रयास से उत्पन्न होता है। एक ऐसा लड़का जिसकी माँ बचपन में ही मर गयी थी और जिसके बाप को उसकी परवरिश की नहीं बल्कि अपनी शराब और दूसरी अन्य बुरी लतों की परवाह है और जो अपने ही बच्चे को क्रूरता से पीटता है। लड़के ने माँ-बाप का प्यार क्या होता है कभी जाना ही नहीं। किस बात के सहारे वह बड़ा हुआ होगा?
उसका दिमाग ऐसे तो विकसित हुआ नहीं होगा जैसे कि सामान्य परिवेश में माता-पिता की छत्रछाया में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवार के किसी बच्चे का हो सकता है। जाने बचपन के किस किस मोड़ पर अपराध ने उसे कैसी शिक्षा दी हो?

ज्यूरी के कुछ सदस्य इस बात पर पूरी मजबूती से सहमत हैं कि लड़का अपराधी मानसिकता वाला एक नौजवान है और उसने झगड़ा होने पर अपने बाप की हत्या कर दी। वह ऐसा बिल्कुल कर सकता है क्योंकि उस माहौल में अपराध ही पलते हैं।

ज्यूरी के कुछ सदस्य थाली के बैंगन मुहावरे के जीते जागते उदाहरण हैं और उनकी अपनी कोई राय नहीं है और वे मजबूत पक्ष की ओर अपना झुकाव दिखाते हैं।

ज्यादातर सदस्यों के लिये इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि लड़के के साथ न्याय हो रहा है या अन्याय। उन्होने चौकन्ने होकर अदालत में केस नहीं सुना है। उनके दिमाग इस बात से ज्यादा प्रभावित हैं कि चूँकि पुलिस ने लड़के को पकड़ा है और उसके घर के नीचे और सामने रहने वाले दो गवाहों ने उसके खिलाफ गवाही दी है तो लड़के को अपने बाप का हत्यारा होना ही चाहिये। इसमें कोई दो राय हो नहीं सकतीं और लड़का बेकसूर होता तो उसका वकील सिद्ध न कर देता अदालत में? पर वह तो चुप ही रहा सरकारी वकील के सामने क्योंकि उसके पास कोई तर्क था ही नहीं। जब एक गवाह ने बाप-बेटे के बीच होने वाले झगड़े की पुष्टि की और लड़के को झगड़े के फौरन बाद घर से नीचे भागते हुये देखा और लड़के के घर के सामने वाले घर में रहने वाली एक औरत ने अपनी खिड़की से उस लड़के को चाकू मारते हुये देखा तो शक की कोई गुँजाइश बचती ही नहीं कि लड़का ही अपने बाप का कातिल है।

अदालत ने इन 12 लोगों को लड़के के पक्ष या विपक्ष में एक राय बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है। इन सदस्यों के लिये यह काम सिर्फ पाँच मिनट का है।

किसी को अपने परिवार के साथ फिल्म देखने जाना है, किसी को कुछ और काम निबटाने हैं और ऐसे सब सदस्य जल्दी में हैं, इस केस पर राय देने में।

लोगों के समूह में बहुत मुश्किल होता है किसी एक व्यक्ति का समूह में शामिल अन्य लोगों की राय के खिलाफ अकेले खड़ा होना। पर इन 12 लोगों के समूह में एक आदमी (के.के रैना) ऐसा करता है।

जब सभी लोगों की राय से समूह का अध्यक्ष लड़के के मुजरिम होने या न होने के बारे में वोटिंग करवाता है तो जल्दी से घर जाने की सोच रखने वाले लोगों को एक बड़ा झटका लगता है जब वे पाते हैं कि एक महोदय ने अपना वोट लड़के को बेकसूर मानते हुये दिया है।

ज्यूरी के ज्यादातर सदस्यों की नफरत भरी निगाहों और ऊटपटाँग कटाक्षों को शांति से झेलते हुये के.के. रैना कहते हैं,” मुझे पक्का पता नहीं है कि लड़का कसूरवार है या बेकसूर पर जब अदालत ने हम लोगों को यह जिम्मेदारी सौंपी है तो मुझे लगता है कि हमें गम्भीरता से और पूरी ईमानदारी से इस केस से जुड़े हुये सारे पहलुओं पर विचार करना चाहिये और उन पर चर्चा करनी चाहिये“।

कुछ सदस्य के.के. रैना को अशिष्ट भाषा में कोसते हैं पर वे अपनी राय पर अडिग रहते हैं और कहते हैं,” मेरे मन में कुछ माकूल संदेह हैं और मुझे लगता है कि लड़के को फाँसी पर चढ़ाने की सिफारिश करने से पहले उन संदेहों का जवाब ढ़ूँढ़ना जरुरी है“।

चूँकि सभी सदस्यों की एक राय होने की अनिवार्यता है सो ज्यूरी के सभी सदस्यों को मन-मसोस कर विचार-विमर्श के लिये राजी होना पड़ता है।

फिल्म देखने या जल्दी निबट कर घर या कहीं और जाने की चाह रखने वाले शुरु में सोचते हैं कि जल्दी ही सभी एक मत से लड़के को कुसुरवार ठहरा देंगे, परन्तु के.के रैना जैसे जैसे तार्किक बहस की और बढ़ते हैं उनके दिमाग में नये नये शक पैदा होते जाते हैं और नयी नयी गुत्थियाँ सामने आने लगती हैं। बहस बढ़ती जाती है और जल्दी से वहाँ से बाहर जाने वाले लोगों की खीज भी बढ़ती जाती है।

कुछ सदस्यों के मन में भी के.के रैना के तर्क सुनकर संदेह जागने लगते हैं और लड़के के ऊपर चल रहे मुकदमें की परतें खुलनी शुरु हो जाती हैं।

फिल्म मानव व्यवहार पर बहुत ज्यादा ध्यान देती है। कैसे लोग पहले तो अंधे होकर किसी भी बात का समर्थन करने लगते हैं और बाद में थोड़ी चेतना आने पर ही सही पक्ष की ओर जाने की जहमत उठाते हैं। कुछ इतनी मोटी खाल वाले होते हैं कि हर मामले को अपनी नाक के सम्मान का मामला बना लेते हैं और जिद पर अड़ जाते हैं कि चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाये उन्होने जो तय कर दिया सो कर दिया चाहे वह निर्णय गलत ही क्यों न हो।

शक्ति अपने साथ बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी लाती है पर देखा यही जाता है कि शक्ति का दुरुपयोग ही ज्यादा किया जाता है और शक्ति पाने वाले व्यक्ति अगर अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं रह पाते तो वे अपनी शक्ति के फंदे में आने वाले व्यक्ति का नुकसान करते हैं।

ज्यूरी के कुछ सदस्य तो तार्किक विश्लेषण की बिना पर अपना मत बनाते हैं और कुछ जिद्दी किस्म के सदस्य इसलिये सबका साथ देते हैं क्योंकि सबका मत एक होने से ही उन्हे इस जिम्मेदारी से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा नहीं है कि उनके पास लड़के के खिलाफ कोई ठोस सबूत है और इसलिये वे उसे गुनहगार मानते हैं बल्कि उनका अपना मानना है कि लड़का ही कातिल है इसलिये वे किसी भी तर्क को मानने के लिये तैयार नहीं हैं।

एक शख्स (पंकज कपूर) हैं जिन्हे व्यक्तिगत रुप से इस बात में रुचि  है कि लड़के को शीघ्र ही फाँसी की सजा मिलनी चाहिये। वे हर उस सदस्य पर आग-बबूला हो उठते हैं जो भी लड़के को निर्दोष मानने लगता है। वे इसे अपना कर्तव्य समझते हैं कि इस लड़के और इस जैसे सभी युवाओं को, जो भी अपने माँ-बाप से झगड़ा करते हैं, मौत की सजा मिलनी चाहिये।

ekrukafaisla1फिल्म में बहस के शुरु में के.के.रैना अकेले 11 अन्य सदस्यों के खिलाफ खड़े होते हैं और एक स्थिति ऐसी आ जाती है जहाँ पंकज कपूर अकेले सबको धमकी देते हैं कि कोई भी उन पर दबाव डालकर लड़के को बेकसूर साबित नहीं कर सकता।

पर एक वक्त्त आता है जब के.के.रैना उन्हे वास्तविकता का बोध कराते हैं कि वे व्यक्तिगत रुप से लड़के के खिलाफ हैं और इस खिलाफत का इस मुकदमें से कोई ताल्लुक नहीं है।

अगर बाप बेटे के मध्य सामान्य रिश्ता नहीं है और नापसंदगी आ जाती है तो ऐसा भी देखा गया है कि ऐसे खून के रिश्तों में भी इतनी नफरत पैदा हो जाती है कि विचार भी मानवता को शर्मसार करने वाले लगते हैं।

फिल्म में न केवल रोंगटे खड़े कर देने वाले क्षण आते हैं जब बहस में एक से एक रहस्योदघाटन होते हैं केस से सम्बंधित बल्कि सदस्यों की आपस में जानवरों सरीखी लड़ाई में ऐसे क्षण भी आते हैं जिन्हे देखकर दर्शक हँसी से लोटपोट हो जाये।

फिल्म को पंकज कपूर के जबर्दस्त अभिनय के लिये भी देखा जाना चाहिये। एक सनकी, कुंठित और गुस्सैल प्रौढ़ से लेकर एक टूटे हुये पिता, जो कि अपने बदतमीज पुत्र की गुस्ताखी के बावजूद उसे याद करता रहता है, तक की यात्रा में पंकज कपूर ने कमाल कर दिखाया है। उन्होने विशिष्ट शारीरिक बनावट गढ़ी इस चरित्र को निभाने के लिये इस शारीरिक संरचना से मिलते जुलते, चलने और बैठने उठने के ढ़ंग और हाव-भाव अपनाये और पूरी फिल्म में इन सब बातों में एक निरंतरता अपनाये रखी।

शुरु से अंत तक वे अपनी सनक भरे व्यवहार से दर्शकों से अपने चरित्र के लिये नापसंदगी इकटठी करते रहते हैं पर जब वे रोते रोते अपने बेटे की हरकत के बारे में बताते हैं तो एक ही क्षण में वे अपने लिये सहानुभूति उत्पन्न कर लेते हैं। ऐसा करना किसी महान अभिनेता के लिये ही सम्भव है।

मैं तुझे मार डालूँगा… किससे कहा था उस लड़के ने यह चीखकर?
अपने बाप से जिसने उसे पैदा किया…पाला पोसा बड़ा किया… और भी न जाने क्या क्या किया होगा उसने अपने बेटे के लिये.. और बदले में क्या मिला उसे … चाकू
खत्म कर दिया उसने हमेशा के लिये… ताकि डाँट न खानी पड़े…कोई बताने वाला न हो… ये अच्छा है करो… यह बुरा है मत करो
एक बाप क्या है कुछ नहीं…
मैं क्या हूँ कुछ नहीं…..


के.के. रैना याद दिलाते हैं पंकज कपूर को कि मुलजिम उनका बेटा नहीं है जिसे वे याद भी करते हैं और जिसकी हरकत के कारण वे दुनिया भर के बदतमीज बेटों से हद दर्जे की नफरत करते हैं। उस लड़के को भी जीने का हक है।

एक फिल्म जो एक मुल्जिम के केस से शुरु होती है अंत तक आते आते बाप-बेटे के नाजुक पर महत्वपूर्ण रिश्ते का इतनी गहरायी से अन्वेषण और विश्लेषण करती है कि दर्शक इसमें व्यक्तिगत रुप से रुचि लेगा ही लेगा। पिता दर्शक को अपना पुत्र और पुत्र दर्शक को अपना पिता याद आयेगा ही आयेगा और याद आयेंगे वे तमाम लम्हे जब उन्होने एक दूसरे के साथ ठीक बर्ताव नहीं किया था।

एक बार देखने के बाद सभी कुछ जान लेने के बावजूद फिल्म में इतना आकर्षण है कि इसे बार बार देखा जा सकता है और लोग देखते ही हैं।

अगर निर्देशक बासु चटर्जी, अभिनेताओं को अभिनय में कम नाटकीयता रखने के लिये निर्देशित कर पाते तो फिल्म अभिनय के क्षेत्र में भी अविस्मरणीय बन जाती। कुछ अभिनेताओं ने अति-नाटकीयता से भरे अभिनय से फिल्म को लाऊड बन दिया है।

फिल्म की विषय सामग्री इतनी आकर्षक है कि इसे अगर बार बार अलग अलग युग में उस दौर के सबसे अच्छे अभिनेताओं के साथ बनाया जाये तो यह हर दौर में दर्शकों को लुभायेगी।

…[राकेश]

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