Mausam2011आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता
जब जुल्फ की कालिख में घुल जाये कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता
हँस-हँस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टूकड़े
हर शख्स की किस्मत में ईनाम नहीं होता
बहते हुये आँसू ने आँखों से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाये वो जाम नहीं होता
दिन डूबे हैं या डूबी बारात लिये किश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता

मीना कुमारी की उपरोक्त्त गज़ल पंकज कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म – मौसम, के प्रेमी चरित्रों हैरी (शाहिद कपूर) और आयत (सोनम कपूर) की प्रेम कथा पर तो बिल्कुल सटीक बैठती ही है साथ ही साथ यह विलक्षण क्षमता के अभिनेता पंकज कपूर की निर्देशक के रुप में पहली फिल्म पर भी बहुत मौजूं बैठती है।

मौसम एक ऐसी फिल्म के रुप में शुरुआत करती है जिससे एक आशा का जन्म होता है कि एक बहुत अच्छी फिल्म देखने को मिल रही है। फिल्म पंजाब के वातावरण को अन्य हिन्दी फिल्मों से ज्यादा बेहतर तरीके से दिखाती है। लोगों का रहन सहन, उनकी वेशभूषा और उनके मकान-दुकान, और गाँव या कस्बे की गलियाँ, नहर के साथ चलती पतली सड़क, सब कुछ एक विश्वसनीय माहौल उत्पन्न करते हैं और धीमे से दर्शक को फिल्म में खींच लेते हैं। और हंसी मजाक के दौर के दरम्यान ही हौले से प्रेम का आगमन फिल्म की कहानी में हो जाता है। पंकज कपूर इस तरीके से प्रेम को अपनी फिल्म में गढ़ते हैं कि लगता है कि इस फिल्म के द्वारा वे आजकल के दौर की फिल्मों को प्रेम कथाओं के नाम पर फिल्मी लटके-झटके दिखाने वाली फिल्में सिद्ध कर देंगे और फिल्म का बहुत सारा हिस्सा ऐसा सिद्ध भी करता चलता है पर तभी फिल्म में सयोंग शुरु हो जाते हैं और फिल्म कुछ लड़खड़ा जाती है और फिल्म के अंत से पहले के बीस के लगभग मिनट एक बेहतरीन रुप से चलती फिल्म का सत्यानाश कर देते हैं।

आरम्भ और अंत, दो बहुत बड़ी समस्यायें रही हैं बहुत सारे भारतीय लेखकों एवम फिल्मकारों के लिये। बहुत सारे आरम्भ और अंत दोनों में कमजोर पड़ते हैं, कुछ आरम्भ में लड़खड़ा जाते हैं और कुछ समय पश्चात ही संभल पाते हैं, और कुछ शुरुआत तो अच्छी कर लेते हैं पर उनसे विषय का समेटना नहीं हो पाता। मौसम में पंकज कपूर रचनात्मकता की तीसरी श्रेणी में खड़े हो जाते हैं। उन्होने फिल्म की शुरुआत अच्छी की, फिल्म लगभग दो तिहाई हिस्से तक बांधे रहती है, हालाँकि कुछ कमियां बीच बीच में सिर उठाकर दर्शक का फिल्म से जुड़ाव कम करती हैं पर फिर भी फिल्म अच्छे स्तर पर चलती रहती है, पर अंत में उनकी फिल्म, शाहिद कपूर के चरित्र को सुपरमैन दिखाये जाने के चक्कर में बेहद कमजोर पड़ जाती है।

मौसम प्रेम के आदर्श रुप को लेकर विकसित होती है, जहाँ प्रेमी-प्रेमिका सालों एक दूसरे के प्यार में भटकते हैं, बार बार मिलते हैं और बिछुड़ जाते हैं और फिर से मुलाकात हो जाने की आशा में जीवन व्यतीत करते हैं। दरअसल फिल्म में पहली कमी आती है प्रेमियों को अलग करने वाले पहले संयोग के कारण। अभी उनका प्रेम शुरु ही हो पाया है कि राममंदिर-बाबरी मस्जिद मसले से फैले दंगों से पनपे संयोग के कारण प्रेमी बिछुड़ जाते हैं। सयोंग से वे फिर मिलते हैं तकरीबन सात साल बाद एडिनबरा में। प्रेम पुनः जड़ पकड़ने लगता है कि वे कारगिल युद्ध से जन्मे संयोग के कारण वे फिर बिछुड़ जाते हैं। और तीसरी बार जब वे मिलते हैं पुनः, तो गुजरात दंगों से जन्मने वाले संयोग के कारण।

इतने सारे संयोग स्पष्टतया दर्शा देते हैं कि फिल्म में लेखन के स्तर पर ही कमजोरियाँ थीं और अगर इन्हे दुरुस्त कर लिया होता तो मौसम एक शानदार फिल्म बन जाती।

फिल्म के बहुत सारे हिस्से बहुत अच्छॆ होने के बावजूद ऐसा तो प्रतीत होता ही है कि फिल्म के विषय की विश्चसनीयता कम होती है फिल्म को पिछली सदी के अस्सी और नब्बे के दशकों में शुरुआत देकर वर्तमान सदी में लाकर खत्म कर देने से।

प्रेमियों के मिलने और बिछुड़ने के सयोंगों की बात छोड़ दें तो यही विषय और ऐसा ट्रीटमेंट, पिछली सदी के पचास के दशक में एक न भुला सकने वाली प्रेम कथा पर आधारित फिल्म बनवा देता। इस फिल्म को पचास या हद से हद साठ के दशक में दिलीप कुमार या देव आनंद के साथ बनाया जाता तो यह एक क्लासिक फिल्म बन गयी होती। उस काल में प्रेमियों का बिछुड़ना और आपस में कोशिश करके भी न मिल पाना बहुत विश्वसनीय लगता। ऐसा लगता है कि पंकज कपूर ने अपनी किशोरावस्था और युवावस्था में देखी बहुत सी बातें फिल्म में डाली हैं, पर कहानी उन्होने पिछले बीस-पच्चीस सालों के अंदर स्थापित की है। सभी रचनाकार अपने जीवन में देखी बातें अपनी रचनाओं में डालते हैं पर अगर रचना का काल सही ढ़ंग से स्थापित न किया जाये तो ऐसी रचनायें आज के दौर में पुराने दौर का अहसास कराती हैं।

अगर पंकज कपूर इस फिल्म को सत्तर के दशक से शुरु करके अस्सी के दशक के मध्य तक समाप्त कर देते तो भी फिल्म की विश्वसनीयता बहुत बढ़ जाती।

देश, काल और वातावरण का सटीक चयन कृति की विश्चसनीयता के लिये बहुत आवश्यक होता है। और फिल्म वर्तमान दौर में आकर अपने प्रति अविश्वास उत्पन्न करती है। मोबाइल और इंटरनेट के युग में प्रेमिका पता नहीं लगा पा रही है कि कारगिल युद्ध के बाद उसके प्रेमी का क्या हुआ। उसे कहीं से जवाब नहीं मिल पा रहा है!

बहरहाल इन कमियों के बावजूद मौसम दर्शनीय फिल्म है। अंत के बीस मिनट फिल्म में ऐसे प्रतीत होते हैं मानो स्वादिष्ट भोजन का आनंद उठाते हुये मुँह में कुछ रेतीला कण भोजन के साथ मुँह में चला जाये।

पंकज कपूर श्रेष्ठतम अभिनेताओं में से हैं और दो-तीन को छोड़कर पिछले पच्चीस सालों में उनके द्वारा निभाई गयी भूमिकायें अन्य श्रेष्ठ अभिनेताओं द्वारा निभाई गयी भूमिकाओं से बीस ही बैठेंगी, भले ही यह अंतर आधे अंक का ही क्यों न हो। पर उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म में यह श्रेष्ठता कायम नहीं होती। फिल्म अपनी गुणवत्ता को लगातार बरकरार नहीं रख पाती।

पंकज कपूर संकेत जरुर देते हैं कि उनमें एक श्रेष्ठ निर्देशक बनने के गुण हैं पर शायद उनकी लेखन क्षमता उतनी शक्तिशाली नहीं है जिस स्तर के वे अभिनेता हैं।

फिल्म में बहुत सारे बहुत अच्छे दृष्य हैं। एडिनबरा में सात सालों के वियोग के बाद मिलने पर हैरी, जो कि अब भारतीय वायुसेना में अधिकारी बन चुका है, और आयत एक रेस्त्रां में आमने सामने बैठे हैं और पंकज कपूर उनसे संवाद नहीं कहलवाते बल्कि उनके अंतर्मन आपस में बातें करते हैं। इस दृष्य की परिकल्पना आकर्षक है।

ऐसा ही आकर्षक एक और प्रसंग है फिल्म में जहाँ देव आनंद की फिल्म – हम दोनो के प्रसिद्ध गीत “अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं” का बहुत आकर्षक उपयोग किया गया है। आयत के घर उसके पिता और चाचा से मिलने आये हैरी को यह गीत याद नहीं आता और आयत इस गीत को गुनगुनाकर उसे याद दिलवाती है। उनकी प्रेमकथा के इस मोड़ पर यह गीत आयत के दिल के भावों को भी भली भाँति प्रतिनिधित्व देता है। मुखड़े को गाकर आयत, हैरी के साथ अपने घर की सीढ़ियों से नीचे उतर रही है और उसके अंदर गीत के अंतरे गूँज रहे हैं जो उसकी भावनाओं को प्रदर्शित कर रहे हैं। देव आनंद, साधना, जयदेव, रफी और आशा भोसले के गीत को बेहद खूबसूरत श्रद्धांजलि यह फिल्म देती है और इस बात का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता है क्योंकि हाल की कुछ फिल्मों में देव साब के बेहद खूबसूरत गीतों का रिमिक्स के नाम पर कबाड़ा किया गया है।

पंकज कपूर न सिर्फ़ अभिनेताओं के चेहरों को ही कैमरे में पकड़वाते हैं बल्कि उनके पास दृष्यात्मक अभिव्यक्त्ति की सृजनात्मक रचनात्मकता है। कब कैमरे को अभिनेताओं के हाथ-पैरों की हरकतों को पकड़ना है, यह फिल्म में बखूबी दिखायी देता है। कब कैमरे को मानव चरित्रों से हटकर आसपास के परिवेश को दर्शाना है इस खूबी का भी प्रदर्शन उनकी फिल्म करती है। उनकी फिल्म के चरित्र को किस दृष्य में कैसी प्रतिक्रिया देनी है, इस पर भी उनकी रचनात्मकता दिखायी देती है। उदाहरण के लिये फिल्म में एक दृष्य है जब आयत आयत और हैरी एडिनबरा में फिर से बिछुड़ गये हैं और कुछ समय पश्चात आयत के पिता की मृत्यु हो जाती है। दुखी आयत को उसकी बुआ (सुप्रिया पाठक) सांत्वना देना चाहती है। आयत उनके सामने साहसी बनी रहती है और धैर्य दिखाती है। अपने कमरे में आकर जब वह अपनी अलमारी खोलती है तो हैरी के बड़े से चित्र के ऊपर उसकी निगाह जाती है और तब वह टूट जाती है। पिता के बाद उसका असली सहारा तो हैरी के साथ प्रेम में ही है। पंकज कपूर ने ऐसे कई गहरे दृष्य रचे हैं फिल्म में।

फिल्म विदेशी स्थलों को विश्वसनीय ढ़ंग से प्रस्तुत करती है और ऐसा नहीं लगता कि खामखा विदेश की शूटिंग दर्ज करने के लिये वहाँ फिल्म की कहानी को ले जाया गया है। फिल्म अलग-अलग काल में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग गति से चलती है और भिन्न माहौल रचने में सफल है, (पर यह विभिन्नता भी फिल्म के पूरे कालखण्ड के साथ पूरा पूरा न्याय नहीं कर पाती)।

मौसम की तमाम अच्छाइयों और कमियों के साथ ऐसा तो लगता ही है कि काश वे इसे सही काल में स्थापित करके एक पीरियड फिल्म बना पाते और फिल्म के अंत से पहले के कुछ मिनटों को फिल्म की प्रकृति के अनुरुप ही ढ़ाल पाते।

पंकज कपूर बहुत बड़े कलाकार हैं और उनके पिछले रिकार्ड को देखकर और मौसम की अच्छाइयों को देख यही आशा बंधती है कि अगर उन्हे भविष्य में और फिल्में बनाने का मौका मिलता है तो अपनी ख्याति के अनुरुप वे मौसम में उपस्थित कमियों का समावेश अपनी अन्य फिल्में में न होने देंगे।

 

…[राकेश]

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