यह गीत हृषिकेष मुखर्जी की फिल्म फिर कब मिलोगी (1974) का है। इसे लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी ने और संगीतबद्ध किया था आर.डी.बर्मन/पंचम ने। फिल्म में यह यह गीत दो बार आता है। पहली बार यह एकल गीत के रुप में फिल्म के नायक (बिश्वजीत) पर फिल्माया गया है और बाद में यह दोगाने (डुएट) के रुप में बिश्वजीत और माला सिन्हा पर फिल्माया गया है।
बिश्वजीत के लिये हेमंत कुमार और मो. रफी की आवाजें ली जाती रही थीं पर पंचम, मुकेश से बिश्वजीत की तरफ से मोर्चा सम्भालवाते हैं और माला सिन्हा की स्क्रीन पर उपस्थिति को सुरीला बनाने के लिये वे लता मंगेशकर की सहायता लेते हैं।
इस गीत के साथ एक महत्वपूर्ण तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि यह पंचम की मौलिक धुन नहीं थी। इस गीत की धुन की प्रेरणा उन्होने ली थी अमेरिकी गायक Herb Alpert और उनके बैंड ग्रुप Tijuana Brass के पहले एल्बम के गीत The Lonely Bull से। नीचे दिये गये वीडियो में उन्हे 1962 में इस गीत को लाइव बजाते देखा जा सकता है।
[ youtube http://www.youtube.com/watch?v=16B5Xm8_IKw%5D
जिन्होने पंचम का गीत सुना है उन्हे तो इस बात में संदेह नहीं होगा कि पंचम ने मूल धुन को अपनी माँग के अनुसार परिवर्तित, परिवर्धित, और विस्तारित किया और उसे भारतीय परिवेश में ढ़ाला।
पहले बात मुकेश द्वारा गाये एकल गीत की!
कहीं करती होगी वो मेरा इंतजार
जिसकी तमन्ना में फिरता हूँ बेकरार
यह रोमांटिक युवक नायक के दिल के उदगार हैं। वह पहाड़ों में आया हुआ है और जीवन से उसे आशा है। पहाड़ों का रमणीय वातावरण उसे और ज्यादा रोमांटिक बना रहा है। वह भीतर से प्रेम में पड़ने के लिये तैयार है। उसके अंदर प्यार की उमंगे अंगड़ाई लेने लगी हैं। कहा जाता है कि हरेक मानव के भीतर एक साथी की मूरत/सूरत बसी होती है और उसे इस बात का न भी पता हो पर तब भी उसे उस साथी की तलाश रहती है। उस साथी से मिलकर, उससे प्रेम करके, उससे प्रेम पाकर ही एक चिर-संतोष की प्राप्ति होती है और नर-नारी के सम्बंधों की दौड़ मानव के लिये समाप्त हो जाती है। जब तक वह विशेष साथी नहीं मिलता मानव इस से उस मानव की ओर भागता रहता है।
फिल्म के कलाकार किस्म के नायक को भी इस बात का आभास है कि उसके अंदर तो प्रेम के अंकुर फूटने के लिये जमीन तैयार हो चुकी है और अब बस देर उन हाथों की है जो आकर बीजारोपण कर दें।
कहीं बैठी होगी राहों में
भूल अपनी ही बाहों में
लिये खोयी सी निगाहों में
खोया खोया सा प्यार
छाया रुकी होगी आँचल की
चुप होगी धुन पायल की
होगी पलकों में काजल की
खोयी खोयी बहार
नायक की कल्पना विस्तार पाती है इस विश्वास से कि जिस तरह उसे साथी के साथ की ललक सता रही है और वह महसूस कर रहा है कि वह साथी अस्तित्व में है उसी तरह वह साथी भी उसके इंतजार में है और उससे न मिल पाने की अवस्था में वह नारी भी उसकी तरह ही बैचेन होगी।
मजरूह नायक की कल्पना को संवारते हैं और बड़े अच्छे बोल इस गीत को देते हैं। नायक को विम्ब दिखायी दे रहे हैं कि वह जिस प्रेम को महसूस कर रहा है उस प्रेम के दूसरे सिरे पर बैठी नारी भी बस इसी अवस्था से गुजर रही है।
प्रेम के इस भाव से गुजर कर नायक खुश भी है और यह उसके स्वर से स्पष्ट हो जाता है। केवल प्रेम में होने की अवस्था से ही प्रसन्नता नहीं उमड़ती बल्कि प्रेम में होने के लिये तैयार होने वाली अवस्था से ही प्रसन्नता मानव को छूने लगती है। यह एहसास ही कि बस अब प्रेम होने ही वाला है मानव को रस भरी प्रसन्नता से भर देने के लिये काफी है।
दूर जुल्फों की छांव से
कहता हूँ ये हवाओं से
उसी बुत की अदाओं के
अफसाने हजार
वो जो बाहों में मचल जाती
हसरत ही निकल जाती
मेरी दुनिया बदल जाती
मिल जाता करार
अभी इस विश्व में उसकी साथी कहाँ है यह नायक को पता नहीं है। वह कहीं है इस बात का एहसास उसे है। उस अनदेखी, अनछुयी साथी की तारीफ में भी कसीदें कढ़ने में उसे आनंद मिलता है। हालाँकि कभी कभी उसे कसक रहती है इस बात की कि कल्पना की वह साथी साक्शात रुप में उसके जीवन में नहीं है। वह अगर पास होती तो उसकी बहुत सारी आकांक्षायें पूर्ण हो पातीं।
…….
नायक का इंतजार खत्म होता है और मन वांछित साथी उसके जीवन में आ जाता है। परस्पर प्रेम को स्वीकृति मिल जाती है और अब उसकी कल्पनाओं को एक मंजिल मिल गयी है।
कहीं करती होगी वो मेरा इंतजार
जिसकी तमन्ना में फिरता हूँ बेकरारदूर जुल्फों की छांव से
कहता हूँ ये हवाओं से
उसी बुत की अदाओं के
अफसाने हजार
वो जो बाहों में मचल जाती
हसरत ही निकल जाती
मेरी दुनिया बदल जाती
मिल जाता करार
प्रेम में होने से पहले का “कहीं” और प्रेम में होने के बाद के “कहीं” में अंतर है। अब यह “कहीं” विश्व में कोई अंजान जगह नहीं है, बल्कि अब इस “कहीं” का एक पता ठिकाना है। बस बाकी दुनिया को एक तरह से चिड़ाने का कार्य यह “कहीं” अब करता है। अब नायक विस्वास से भरा हुआ है कि उसका साथी बस यहीं आसपास उसके इंतजार में है। अब इंतजार साक्षात रुप से मिलने का है। अब बेकरारी बार बार और जल्दी जल्दी मिलने की है।
नायक की कल्पनाओं को पूर्ण प्रतिनिधित्व देकर मुकेश का कार्य लगभग समाप्त हो जाता है और अब नायिका के भावों को प्रकट करने की बारी है और यही इस गीत की सबसे बड़ी खूबी है और यही इस गीत का सबसे ऊँचा बिंदू है।
पंचम लता मंगेशकर का प्रवेश इस गीत में ऐसे करवाते हैं जैसे लता ने किसी और गीत में नहीं किया होगा।
आ आ आ की सुरीली आवाज के सहारे लता का प्रवेश होता है।
पंचम के वाद्य-यंत्र सहसा धीमे हो जाते हैं और कुछ विशेष ही प्रकार से संगीत निकालने लगते हैं और फिर पलक झपकने के काल में वाद्य यंत्र अपनी गतिविधि बंद कर देते हैं और उन मौन क्षणों में जैसे ही लता “हे” गाकर गीत में नायिका का प्रवेश करवाती हैं यह गीत वह ऊँचाई ग्रहण करता है जो बहुत कम गीतों को हासिल हो पाती है। इतना सुरीला “हे” किसी गायक/गायिका ने आज तक किसी हिंदी फिल्म में न गाया होगा।
इस “हे” को सुनने के लिये अनगिनत बार गीत के इस भाग को सुना जा सकता है और श्रोता का मन न भर पायेगा। उसके अंदर इसे फिर से सुनने की चाह बनी रहेगी।
अरमां हैं कोई पास आये
इन हाथों में वो हाथ आये
फिर ख्वाबों की घटा छाये
बरसाये खुमार
फिर उनींदी रातों पे
मतवाली मुलाकतों पे
उल्फत भरी बातों पे
हम होते निसार
लता “हे” पर ही नहीं रुक जातीं। वे माला सिन्हा की आवाज बनकर अरमां हैं कोई पास आये… गाती हैं। माला सिन्हा के बोलने में नाक से बोलने का हल्का सा प्रभाव रहा है और लता उनके बोलने के उस विशेष प्रभाव को अपने गाने के तरीके में उतार लाती हैं। माला सिन्हा बिल्कुल इसी तरह से अरमां, खुमार, निसार और तमन्ना आदि शब्द बोलतीं जैसे कि लता ने गाये हैं।
मजरूह सुल्तानपुरी नायिका की प्रेम भरी कल्पनाओं को भी खूबसूरत तरीके से अभिव्यक्त्त करते हैं।
जिन्होने पहले कभी भी मूल गीत की धुन नहीं सुनी है या हिंदी फिल्म का गाना नहीं सुना है उन्हे दोनों गानों के वीडियो निर्णय ले पाने में सहायता करेंगे।
धुन भले ही विदेशी गीत से प्रेरित हो पर पंचम मूल धुन में अपनी जरुरत के अनुसार बदलाव करते हैं। मूल धुन में उपस्थित तालियों आदि की समूह ध्वनि को पूरी तरह से हटाकर वे एक बेहतरीन रोमांटिक गीत बनाते हैं और इसमें तो कोई शक है ही नहीं कि लता मंगेश्कर अपने जादुई प्रभाव से इस गीत को विशिष्ट बना देती हैं।
…[राकेश]
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