Neeraj Ghaywan On Exploring Caste And Sexuality In His Ajeeb Daastaans Short

लघु फ़िल्म Juice (2017) के बाद निर्देशक – लेखक नीरज घायवान दर्शकों को सोचने विचारने के लिए प्रेरित करती हुई एक और स्त्री केन्द्रित फ़िल्म – गीली पुच्ची, लेकर आये हैं|

एक लघु उद्योग में प्रोडक्शन विभाग में कार्यरत भारती (कोंकणा सेन सरमा) अपने वर्तमान जीवन, व्यावसायिक एवं व्यक्तिगत, से असंतुष्ट है| व्यावसायिक कार्य में पूरे उद्योग में वह अकेली स्त्री है और उसके पुरुष सहकर्मी उसे स्त्री ही नहीं मानते हैं| उद्योग ने भी उसकी सुविधा के लिए एक महिला शौचालय का प्रबंध करना भी आवश्यक नहीं समझा है| वह प्रोडक्शन विभाग में मशीनों के शोर शराबे से दूर प्लांट के प्रबंधक के कार्यालय में कम्प्युटर डाटा ऑपरेटर के पद पर काम करना चाहती है और इस कार्य के लिए उसने वांछित ट्रेनिंग भी स्वयं ही प्राप्त कर ली है| लेकिन आवेदन करने पर भी प्रबंधक भारती को इस कार्य के लिए उपर्युक्त नहीं समझता| भारती का एक वरिष्ठ सहकर्मी उससे कहता है कि सवर्ण जाति की न होने के कारण उसे ऐसा पद नहीं मिलेगा|

व्यक्तिगत जीवन में भारती नितांत अकेली दिखाई देती है| कार्य स्थल पर डांगरी और कार्य के बाद पुरुषों के तरीके वाली कमीज़ और पतलून पहनते पहनते और कार्यस्थल पर किसी भी सहकर्मी द्वारा उसको स्त्री न समझने के वातावरण से प्रभावित होकर वह शायद स्वयं भी स्त्री होने की सच्चाई को भुला चुकी है| न केवल वेशभूषा बल्कि उसके हाव भाव भी पुरुषोचित न भी बनें हों पूर्णतया पर वे स्त्रियोचित तो बिलकुल भी नहीं बच पाए हैं|

ऐसे निराशाजनक माहौल में उसकी खिन्नता और बढाने के लिए प्रबंधक कम्प्युटर डाटा ऑपरेटर के पद पर प्रिया शर्मा (अदिति राव हैदरी) को नियुक्त कर देता है| प्रिया एक खूबसूरत स्त्री है और भारती को उसकी कथित नीची जाति की याद दिलाने वाला उसका सहकर्मी पुनः उसकी निराशाओं को बढाता है ऐसी बातें कह कर कि चूंकि उसके नाम के पीछे शर्मा जैसे ऊँची जाति का उपनाम नहीं चिपका हुआ है अतः उसे यह पद नहीं ही मिलना था| जले पर नमक छिड़कने के अंदाज़ में उसे और कष्ट होता है यह सुनकर कि प्रिया के आने के बाद प्रबंधन ने एक महिला शौचालय बनवाने का निर्णय लिया है| 

भारती के अन्दर प्रिया के प्रति नापसंदगी उत्पन्न होनी ही है| भारती की नापसंदगी से अनभिज्ञ प्रिया पुरुषों से भरी कैंटीन में भारती की टेबल पर बैठ जाती है| वह मित्रता का हाथ बढ़ाकर पहल करती है| भारती और प्रिया के मध्य संबंधों के उतार चढ़ाव, प्रिया द्वारा दोस्ती की पहल, फिर थोड़ा पीछे हटने और बाद में भारती द्वारा प्रिया के तदा कमजोर पड़ते ही उन दोनों के बीच संबंधों की बागडोर अपने हाथ में लेने और प्रिया को मातृत्व की ओर ढकेल कर बारीकी से अपना हित साधने की घटनाओं से निर्धारित होते हैं|

विजुअल्स के स्तर पर और कोंकणा सेन सरमा के बेहतरीन अभिनय और अदिति राव हैदरी द्वारा अच्छा अभिनय किये जाने से यह एक ठोस फ़िल्म बनती है| इसकी कमजोरी उभरती है कथा के सामाजिक वास्तविकता और तर्क की कसौटी के आधार पर खरा न उतरने के कारण| संभवतः एक लघु अवधि की फ़िल्म में जाति भेद और स्त्री-स्त्री दैहिक संबंधों के घालमेल की संतुष्टिजनक गुंजाइश नहीं थी और किसी एक ही कोण को इतनी अवधि की फ़िल्म बारीकी से खंगाल सकती है| दोनों को सम्मिलित करने से ऐसा ही प्रतीत हुआ कि विचार विमर्श के स्तर पर बस सतह पर ही चहल  कदमी हो पाई|  

भारत अब प्रेमचंद की जातिवादी संघर्ष दिखाती ठाकुर का कुआं जैसी कहानियों और ओम प्रकाश बाल्मिकी की ठाकुर का कुआं जैसी कविताओं से आगे निकल चुका है और साहित्य और कला का विमर्श भी इनसे निकल कर सच के धरातल पर खडा हो जाना चाहिए| जो ठाकुर के लिए कुआं खोद देगा वह अपने घर के बाहर भी अपने लिए कुआं खोद लेगा| दशरथ मांझीं को उनसे उच्च जाति के किस व्यक्ति ने रोका अपनी धुन का काम करने से? डॉ आंबेडकर की विद्वता भरी लेखनी को क्या सवर्ण इसलिए नहीं पढेंगे कि आंबेडकर दलित वर्ग में जन्में थे? लाखों सवर्ण अभी तक बाबू जगजीवन राम की वक्तृता कला और प्रशासनिक योग्यता के प्रशंसक मिल जायेंगे|

भारत में प्रेम विवाह अक्सर हे जाति धर्म की सीमाओं का अतिक्रमण करके ही होते हैं| परिवार द्वारा करवाए गए विवाह में ऐसा लगभग नहीं ही होता कि घर के बुजुर्ग लोग बाहर की जाति में वर या वधु की तलाश कर रहे हों| और प्रेम विवाह में ऐसा देखने को नहीं मिलता कि जाति धर्म देखकर इन्हें किया जा रहा हो| समाज में निगाह दौडाने पर ऐसा अपने आसपास ही देखने को मिल जाएगा कि ब्राह्मण युवती का विवाह दलित युवक संग हुआ है| कम होगा पर ऐसा हो रहा है और ऐसा जातिगत अतिक्रमण सामूहिक स्तर पर नहीं हुआ करता कहीं भी नहीं होता| यह सब होने में समय लगता है| उन्नत अमेरिकी समाज में भे रंगभेद की सीमाओं के अतिक्रमण के पार हुए वैवाहिक गठबंधन कोई सामूहिक परिवर्तन नहीं हैं| उन्नत लेकिन पारम्परिक तौर तरीकों से घिरे योरोपियन समाजों में तो बाहर के लोगों से विवाह ही गिनी चुनी घटना होता है|

भारतीय विशेषकर हिन्दू समाज में घटित परिवर्तनों को देख विमर्श को भी अपनी गति और दिशा बदलते रहना चाहिए वरना पूर्वाग्रहों से ग्रस्त विचारों में आगे परिवर्तन लाने लायक धार नहीं बचती| अच्छे साहित्य और बेहतर सिनेमा को समय के आगे या कम से कम साथ चलना चाहिए| पुरानी लकीर पीटते रहने से वैचारिक स्तर पर बासीपन की गंध आने लगती है| बुद्धिमान रचियताओं से अपेक्षा भी ज्यादा रहती है कि वे नया देखेंगे और दिखाएँगे| बासी पहलू दिखाने के लिए किसी काल खंड विशेष में स्थित रचनाएं चल जाती हैं| वर्तमान की कला को वर्तमान का प्रतिनिधित्व करना ही चाहिए|

विश्व भर में संभवतः भारतीय समाज सबसे ज्यादा विविधताओं से भरा समाज होगा| यहाँ एक परिभाषा न तो चलती है और न ही कभी चल सकती है| पूर्णतया विपरीत बातें एक ही काल में यहाँ सदा उपस्थित रहा करती हैं| डाल डाल और पात पात, ऊँच और नीच यहाँ एक साथ घटने वाली बातें हैं| किसी भी क्षेत्र का सामाजिक विश्लेषण यहाँ कर लीजिये जो नीचे के पायदान से या बराबर के पायदान से शोषित दिखाई देगा और उसके इर्द गिर्द स्वहितों की राजनीति शुरू हो जायेगी, उसी शख्स को ऊपर के पायदान से नीचे झांक कर देखिये वह किसी और वर्ग का, विशेषकर अपने से कमजोर वर्ग का, शोषण करता हुआ दिखाई देगा| जिस वक्त वह अपने ऊपर सर्वकालिक शोषित होने का मुलम्मा चढ़ा कर आसानी से सुविधाएं लेने के लिए प्रयासरत दिखाई देगा उसी समय वह खुद भी किसी न किसी का शोषण करने में रत दिखाई देगा|   

भारत में निजी, अर्ध सरकारी और सरकारी तीनों तरीकों के उपक्रम में पहचान, और सिफारिश हमेशा से उन लोगों की हानि करते आये हैं जिनके पास ये दोनों साधन नहीं हैं| यहाँ केवल योग्यता से कभी तरक्की नहीं होती दिखाई दी| ऐसा कहना बिलकुल भी अस्वाभाविक न होगा कि हिन्दी फ़िल्म उद्योग जैसे क्षेत्र जहां योग्यता सबसे बड़ा पैमाना होना चाहिए व्यवहार में ऐसा होता कभी दिखाई नहीं देता और वहां भी ऐसे गुणी लोगों की कमी नहीं होगी जो हजारों किस्से सुना देंगे जब योग्यता को नहीं वरन अन्य कारणों को प्रोत्साहन दिया गया| ऐसी असंतुष्टि वहां भी सदैव उपस्थित रही है| किसी भी उपक्रम में पहचान और सिफारिश से आये लोग देखकर लोगों की छाती या पीठ पर पाँव रखकर आगे नहीं बढ़ते, कई बार तो उन्हें पता भी नहीं होता कि उनके आगे बढ़ने से कौन कौन लोग पीछे हो गए हैं| जाति और धर्म इस बीच नहीं आते| सिफारिशी सवर्ण गैर सिफारिशी सवर्ण को ही पीछे ढकेल आगे बढ़ जाता है|

भारती के पुरुष सहकर्मियों में कई उसकी ही जाति वर्ग या समकक्ष वर्ग से आते होंगे क्या वे उससे भेदभाव नहीं करते? वे उसे स्त्री ही नहीं मानते| क्योंकि उनकी निगाहों में हो सकता है स्त्री होने के लक्षण ऐसे हों जिन पर भारती खरा नहीं उतरती| फ़िल्म लेकिन इस विमर्श को बेहद हलके से दिखा कर गुज़र जाती है| प्रिया एक स्त्री होने के नाते भारती की तरफ पहले सहज सहकर्मी वाली पहचान और फिर दोस्ती का हाथ आगे बढाती है| लेकिन फ़िल्म आगे इस बात पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करती है कि भारती द्वारा स्वयं को सवर्ण बनर्जी बताने से उससे दैहिक स्तर पर जुड़ने वाली प्रिया बाद में भारती द्वारा यह स्वीकारने पर कि वह असल में भारती मंडल है, और कथित निम्न वर्ग से आती है, दैहिक स्तर पर दूर होने लगती है| इन सबसे आहत होकर भारती प्रिया को मातृत्व की दिशा में भेज कर प्रोफेशनल जीवन से हटा देती है या अपनी बरसों की साध पूरा करने के लिए वह ऐसा ही करती, यह स्पष्ट नहीं हो पाता|

अगर फैक्ट्री का मैनेजर भारती की जाति के कारण उसे कम्प्युटर डाटा ऑपरेटर के पद पर नियुक्ति नहीं देना चाहता था तो वह प्रिया के बाद भी ऐसा ही करता और किसी अन्य सवर्ण को इस पद पर ले आता| यह उसका पूर्वाग्रह भी हो सकता है कि फैक्ट्री में प्रोडक्शन में कार्यरत भारती के ऊपर उसे विश्वास नहीं था कि प्रोडक्शन से सीधे यह स्त्री कम्प्युटर का कार्य संभाल लेगी| प्रिया का सौंदर्य भी एक कारण हो सकता है उसे यह पद दिए जाने के पीछे, आखिर पुरुष ऐसा हर जगह करते हैं| खुद हिन्दी फ़िल्म उद्योग में यह रोज़ होता है कि सौंदर्य ने योग्यता को पीछे भेज दिया|

विमर्श के स्तर पर देखें तो प्रिया का नौकरी पाना उसके अपने हितार्थ है, उसे यह भान नहीं है कि जिस फैक्ट्री के ऑफिस में वह इस पद पर नौकरी करने जा रही है उसी पद पर फैक्ट्री में प्रोडक्शन विभाग में तैनात एक दलित युवती भारती पहले से ही काम करने की इच्छा रखती है| उसे भारती के अस्तित्व का कोई आभास नहीं है| लेकिन भारती को जब मौक़ा मिलता है तो वह जानती है कि प्रिया को अपने मार्ग से हटा कर ही वह इस पद पर कार्य करने की अपनी इच्छा की पूर्ती कर सकती है सो वह बारीकी से प्रबंधन करके उस पद पर नियुक्ति पा जाती है| यह भी सही है कि जानकारी के कारण वह इस पद पर प्रिया से इस वक्त ज्यादा उपयोगी है लेकिन प्रिया संग अपने व्यक्तिगत संबंधों में तो उसने चाल चल कर प्रिया को मात दे ही दी| उसकी जाति जानने के बाद प्रिया का उससे अपने हाथ छुडा लेना, प्रिया की सास द्वारा भारती की जाति की याद दिलाना आदि बातें उसके मन को ठोस लगा चुकी होंगी| लेकिन उसी घर में प्रिया उसे साथ लेकर जाती है, अपनी सास की कही बातों को समझती है, उसका पति भारती का खुले दिल से धन्यवाद करता है| इन सब बातों से फ़िल्म यह तो सिद्ध नहीं ही करती कि भारती संग जातिगत शोषण किया गया| व्यक्तिगत संबंधों में बातें एकदम अलग होती हैं| और प्रेम में तो बहुत से बंधन टूटते हैं| फ़िल्म की परिपाटी से उसे यह सिद्ध करना था कि भारती की जाति की वजह से प्रिया उससे प्रेम की राह पर आगे बढ़ती बढ़ती रुक गई| यह प्रेम रहा ही नहीं होगा| यह लगाव ही था जो नया नया ही पनपा था सो व्यवहारिक बातों से इसमें ब्रेक लग गए|

सो इन सब बातों के लिहाज से कथात्मक स्तर पर फ़िल्म में कमजोरियां लगती हैं या ऐसा कहा जा सकता है कि फ़िल्म अच्छी लगती है सो यह बात उभर आती है कि अगर तार्किक और गहरी बातें वर्तमान की कथावस्तु का भाग होतीं तो फ़िल्म कितनी अच्छी बन जाती|  

मध्यम अवधि की यह फ़िल्म इस अवधारणा को मजबूत करती है कि मानवीय संबंधों और विशेषकर स्त्री विमर्श और स्त्री के पुरुष या स्त्री से संबंधों पर रुचिकर फ़िल्में बनाने वाले निर्देशकों में वर्तमान में नीरज घायवान ने भी जूस और गीली पुच्ची बनाकर अपनी दक्षता सिद्ध की है और इस क्षेत्र में बहुत बेहतर करने की झलक दिखा दी है|

…[राकेश]

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