अस्सी के दशक में प्रकाश पदुकोण द्वारा ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतने से शुरुआत कर, मॉस्को ओलम्पिक में हाकी का स्वर्ण पदक जीतने, एशियाड 82 के आयोजन से लेकर कपिल देव की टीम द्वारा 1983 में क्रिकेट का विश्व जीतने तक कई घटनाओं ने खेलों को भारत में प्रमुखता दिलवा दी थी।
ऐसे ही खेलमयी काल में सन 1985 की गरमियाँ लगभग रोजाना ही लोगों के दिमाग को उत्तेजित और आंदोलित करने वाली खबरें लेकर आ रही थी। खेलों में देखें तो गरमियों से पहले बसंतकाल के दौरान ही सुनील गावस्कर की कप्तानी में भारतीय क्रिकेट टीम Benson & Hedges विश्व चैम्पियन्शिप कप जीत चुकी थी। इसी चैम्पियन्शिप में ही पहली बार बार डे-नाइट मैच हुये थे। विश्वनाथन आनंद सन 1984 से ही शतरंज के पटल पर उभर आये थे।
खजान सिंह से आशायें बँधने लगी थीं कि वे अगले साल होने वाले एशियाई खेलों में कुछ कर दिखायेंगे और उन्होने रजत पदक ले भी लिया सियोल एशियाड में।
पर बात सन सन 1985 की गरमियों की हो रही थी। वैश्विक स्तर पर बोरिस बेकर ने विम्बलडन का पुरुष एकल जीत कर सनसनी मचा दी थी। केवल सत्रह साल की आयु में ये खिताब जीतने वाले वे तब तक के सबसे युवा खिलाड़ी थे। अभी ये सरगर्मियाँ चल ही रही थीं कि पेरिस में एक हॉलीवुड स्टार द्वारा की गयी प्रेस कांफ्रेंस ने पूरे संसार में तहलका मचा दिया। हॉलीवुड के मशहूर अभिनेता साढ़े छ्ह फुट लम्बे रॉक हडसन ने यह प्रेस कॉंफ्रेंस की थी और इसमें उन्होने रहस्योदघाटन किया कि वे एक नये जानलेवा रोग एड्स की गिरफ्त में हैं और शनै: शनैः मौत के कब्जे में जाते जा रहे हैं। उन्होने खुद ही यह भी खुलासा किया कि पिछले साल 1984 में ही मेडिकली इस बात की पुष्टि हो चुकी थी कि वे एडस का शिकार हो गये हैं पर वे और उनके डॉक्टर्स उनके लिये इलाज खोजने में लगे रहे, पर अब कोई आशा नहीं बची थी।
एडस की बीमारी को लेकर कुछ सुगबुगाहट कुछ अरसा पहले अस्सी के दशक के शुरु से ही होने लगी थी पर विश्व में कहीं भी आम जनता में इसका जिक्र नहीं था और गाहे बेगाहे इसका जिक्र मेडिकल और रिसर्च के क्षेत्रों में ही होता था। रॉक हडसन की स्वीकारोक्त्ति से एड्स को एक प्रचार मिल गया, एक चेहरा मिल गया और समूचा विश्व हिल गया इस नयी बीमारी के खतरनाक अस्तित्व से और इसके मानव जीवन के प्रति क्रूर बर्ताव से।
शीत युद्ध का जमाना था और अफ्रीकन बंदरों से लेकर वैश्विक सुपर पावर्स की रिसर्च लेबोरेट्रीज में इसके उदगम बारे में कितनी ही साजिश भरी कहानियाँ अस्तित्व में आने लगीं। प्रतियोगी परीक्षाओं क्विजों में A.I.D.S की फुल फॉर्म और इस बीमारी से सम्बंधित प्रश्न पूछे जाने लगे। एक तरह से सारा वातावरण एड्स के संभावित खतरों के कारण एक फोबिया से ग्रस्त होता जा रहा था।
मेडिकल क्षेत्र के विशेषज्ञ भी निश्चित नहीं थे पूरी तरह से कि एड्स होता क्यों है। उस समय एच.आई.वी और एड्स एक दूसरे के पर्याय शब्द थे। अलग अलग स्तरों वाले अंतर तो बाद में परिभाषित हुये।
उस समय तो यह प्रचारित किया गया था कि असुरक्षित यौन सम्बंध रखने वालों और ड्रग एडिक्ट्स को यह बीमारी अपना शिकार बनाती है और होमोसैक्सुअल्टी को अपनाने वालों को भी इसका आसान शिकार माना जाता था। S.T.Ds से एड्स का सम्बंध जोड़ा जा रहा था। जाहिर है कि समाज में ऐसी बातें फैल गयीं कि व्यभिचारियों को ही एडस अपनी गिरफ्त में लेता है। आदर्शवादी और मेडिकल क्षेत्र और विज्ञान का अ ब स द ना जानने वाले इसे ईश्वर द्वारा व्यभिचारियों के लिये दी गयी सजा ही मानते थे और ऐसी ही बातें सब तरफ फैलाते थे। अखबारों में लेखों के अलावा सम्पादक के नाम पत्रों में भी ऐसे विचार मिल जाते थे कि सरकार को क्यों एक ऐसी बीमारी पर कुछ भी खर्च करना चाहिये जो सिर्फ व्यभिचार करने वाले लोगों को होती है? आखिरकार प्रकृति उन्हे उनके किये की सजा दे रही थी।
मेडिकल क्षेत्र की तरफ से निरंतर एडस के संदर्भ में नयी नयी बातें प्रकाश में लायी जाती थीं और अगला कदम था प्रचार का कि यह एक छूत का रोग है और अगर रोगग्रस्त व्यक्ति का खून या उसके शरीर का कोई भी द्र्वीय पदार्थ किसी दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाता है तो दूसरे व्यक्ति को भी एड्स हो जायेगा। असली घबराहट अब फैली और लोग बाग सबसे पहले नाईयों के प्रति चौकन्ने हो गये। उससे पहले ज्यादातर छोटे स्तर के नाई उस्तरे का इस्तेमाल किया करते थे और अब ग्राहक उन्हे हर बार नये ब्लेड का इस्तेमाल करने के लिये मजबूर करने लगे।
कुछ अरसा बीतने पर HIV+ और A.I.D.S का सम्बंध और अंतर विकसित हुआ।
बहरहाल मुख्य बात यह है कि छूत की अन्य बीमारियों में भी लोगों और घर परिवार के लोगों का भी व्यवहार रोगी के प्रति बदल जाता है पर एड्स के मामले में तो इसे एक सामाजिक कलंक का रुप दे दिया गया और इसने इस रोग से ग्रस्त लोगों को तो बहुत ज्यादा क्षति पहुँचायी पर साथ ही समाज का भी नुकसान किया। एड्स के रोगी को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। इसे व्यभिचारियों, वेशाओं और वेश्यागामियों, होमोसैक्सुअल्स की बीमारी का रुप दे दिया गया था।
ऐसे सामाजिक प्रचार के कारण पिछले पच्चीस सालों से एडस एक ऐसा रोग रहा है जो न केवल रोगी के जीवन को ही अपने अंधकार की गिरफ्त में लेता है बल्कि इसके शिकार के साथ उसके नाते रिश्तेदारों और दोस्तों से रिश्तों की बुनियाद को ही कसौटी पर रख देता है। रोगी के करीबियों को समाज का भय सताता है कि लोग क्या कहेंगे। आज तो लोगों में बहुत जाग्रति है एड्स को लेकर परन्तु पिछली सदी के अस्सी के दशक के मध्यांतर के सालों में तो एक तरह से एक अराजक किस्म की अज्ञानता का ही वास था समाज में।
अस्सी के दशक के अंतिम सालों और नब्बे के दशक के शुरु के सालों में एडस को लेकर जो भ्रांति का माहौल था उसी ऊहापोह से भरे काल में फिल्म निर्देशक ओनिर की पहली फिल्म “माय ब्रदर निखिल” केंद्रित है।
फिल्म एक खिलाड़ी निखिल(संजय सूरी), जो कि गोआ का राज्यस्तरीय चैम्पियन तैराक है, के एडस का शिकार बनने की कहानी दिखाती है। तैराकी में अपने उज्जवल भविष्य के सपने संजोये निखिल के जीवन में एडस के आगमन के साथ न केवल उसकी आशाओं पर तुषारापात होता है बल्कि एडस के साये के स्पर्श मात्र से उसके इर्द-गिर्द के लोगों के उसके साथ रिश्ते सिकुड़ने शुरु हो जाते हैं। यहाँ तक कि उसके पिता जो उसे चैम्पियन बनाने के लिये सपने देखते थे और इसके लिये निखिल से भी ज्यादा प्रतिबद्ध थे, उसका परित्याग कर देते हैं।
जानलेवा बीमारी और इसके साथ आयी बदनामी की छाया निखिल के जीवन को पूरी तरह से ग्रस लेती है और चारों तरफ अंधकार से घिरे निखिल को एकमात्र रोशनी की किरण दिखाती है उसकी बड़ी बहन अनामिका (जूही चावला)। यह फिल्म निखिल की नहीं है बल्कि यह उससे भी ज्यादा अनामिका के संघर्ष की है जो वह अपने भाई के लिये समाज के खिलाफ करती है। उसका संघर्ष है अपने रोगी भाई के लिये ऐसा माहौल बनाना जहाँ वह एक इंसान की तरह अपने रोग से लड़ सके और अगर लड़ न सके तो एक इंसान की तरह मर तो सके। समाज और कानून व्यवस्था तो निखिल को एक घृणित अपराधी की तरह एकांत में बंद कर देती है जैसे कि एड्स के कीटाणु रेडियोएक्टिव तत्वों की भांति उसके शरीर से उत्सर्जित होकर हवा में फैल रहे हों।
बीमारी, बीमार और उसके शुभचिंतकों के संघर्ष को फिल्म बड़े प्रभावी ढ़ंग से दिखाती है। ओनिर ने इसके बाद भी दो और फिल्में बनायी हैं पर My Brother Nikhil उनकी अब तक की सबसे अच्छी फिल्म है।
संजय सूरी का भी इस फिल्म में अभिनय उनके अभी तक के सबसे अच्छे अभिनय में गिना जा सकता है।
निखिल के पिता के जटिल चरित्र को विक्टर बनर्जी ने बड़ी कुशलता से निभाया है।
लिलिट दूबे, श्याम मुंशी, पूरब कोहली आदि सभी अच्छे ढ़ंग से अपनी अपनी भूमिका निभा गये हैं।
जैसा कि फिल्म के शीर्षक से जाहिर है फिल्म निखिल की बहन अनामिका के द्वारा दर्शकों के सामने आती है और उन्होने बहुत अच्छे ढ़ंग से फिल्म को संभाला है और आगे बढ़ाया है। जूही चावला एक बेहद जीवंत मुस्कान और खिलती हुयी हँसी की स्वामिनी हैं और उनका व्यक्तित्व इस भूमिका में, जहाँ उन्हे अपने रोगग्रस्त भाई को समर्थन देना है उसमें जीने की कुछ इच्छा जाग्रत करनी है, एकदम उचित बैठता है।
एक हंसते खेलते हुये परिवार की खुशियों को ग्रहण लगते हुये बड़े प्रभावी ढ़ंग से फिल्म ने दृष्यात्मक रुप से दिखाया है। फिल्म की अच्छाइयों को देखते हुये यह माना जा सकता है कि यदि फिल्म कुछ स्पष्ट दिखायी देने वाली कमियों पर काबू पा लेती तो इसकी गुणवत्ता और बढ़ जाती।
बीच में फिल्म ऐसा रुप धारण कर लेती है मानो फिल्म के अंदर निखिल के जीवन पर एक डॉक्यूमेंटरी बनायी गयी हो और कैमरा निखिल के दोस्तों और उसे हिरासत में रखने वाले पुलिस वालों के बयान दिखाती है। एक काल्पनिक कथा के रुप में फिल्म पूरी तरह से अपना असर छोड़ रही थी और डॉक्यूमेंटरी प्रारुप से बचा जा सकता था। आखिरकार इसने फिल्म की गुणवत्ता पर कोई धनात्मक प्रभाव तो डाला नहीं।
एक और कमजोरी है फिल्म में और अस्सी और नब्बे के दशकों में एडस के प्रति भ्रामक समझ को समझते हुये यह कमी काफी बड़ी प्रतीत होती है। फिल्म इस बात पर बार बार जोर देती है कि यह जानना कतई जरुरी नहीं है कि निखिल को एडस कैसे हुआ और उसे कहाँ से इस रोग का संक्रामण हुआ?
निखिल को नहीं पता कि उसे एडस कैसे हुआ होगा। निखिल एक गे है पर उसका गे साथी जाँच में एकदम ठीक पाया जाता है। वह एक खिलाड़ी है और उसे एडस कैसे हुआ इस बात को फिल्म मे दिखाये जाने से उस उद्देश्य की पूर्ती हो सकती थी जिसके लिये फिल्म बनायी गयी थी। जिस दौर में फिल्म स्थित है वह दौर एडस के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना जरुरी था, इस रोग पर आधारित शोध के लिये भी यह जानना जरुरी था कि किसी को एडस कैसे हुआ। फिल्म बार बार इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करने पर जोर देती है कि यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि निखिल को एडस कैसे हुआ। निखिल का डाक्टर उससे सारे संभावित तरीकों, जिनसे कि उसे एडस हो सकता था, के बारे में पूछता है और निखिल हरेक संभावना के बारे में अनभिज्ञता जाहिर करता है। तब एक स्वस्थ खिलाड़ी को एडस कैसे हो गया?
इस बात का प्रचार करना और बात है कि लोगों को इस बात पर ज्यादा ध्यान देने के बजाय कि किसी को एडस कैसे हुआ, इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि उसके साथ किस तरह मानवीय बर्ताव किया जाये और कैसे उसे रोग से लड़ने के लिये शक्ति दी जाये। परंतु एडस जैसे रोग के बारे में स्वस्थ लोगों में जाग्रति फैलाने के लिये यह जानना भी जरुरी है कि किसी भी ऐसे आदमी को, जो कि सब तरह से स्वस्थ है, एडस कैसे हुआ! ताकि स्वस्थ लोग उस खतरे के प्रति सावधान हो जायें जिसके कारण निखिल जैसे स्वस्थ खिलाड़ी को एडस जैसे रोग ने धर दबोचा।
इस प्रश्न का सामना फिल्म को करना चाहिये था। कथानक इस बात का समाधान नहीं ढ़ूँढ़ पाया। एडस के बारे में जाग्रति फैलाने के काम में एडस के कारण की अनदेखी करना ठीक नहीं है।
बाकी इस मुद्दे को छोड़कर फिल्म एक उल्लेखनीय प्रयास है।
…[राकेश]
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