lifegoeson2किसी भी परिवार के मुखिया की पत्नी उस घर की धुरी बन जाती है। मुखिया, उसकी संताने सभी लोग उस एक महिला के कारण आपस में जुड़ाव महसूस करते हैं। उन लोगों के आपस में एक दूसरे से अलग विचारधारायें हो सकती हैं और वे कुछ हद तक अलगाव महसूस कर सकते हैं पर इस धुरी से उन सबकी निकटता बनी रहती है। यह निकटता धुरी बनी महिला से विचारधारा के टकराव के बावजूद बनी रहती है।

जितने ज्यादा साल एक परिवार इस धुरी के इर्द-गिर्द गुजारता है उतनी ही ज्यादा यादें इकट्ठा होती चली जाती हैं, इस धुरी को लेकर परिवार के हर सदस्य के मन में। बहुत बार क्या, अकसर ही इस धुरी के महत्व को कम करके आँका जाता है क्योंकि वह सदैव उपलब्ध है परिवार के सब लोगों के लिये। वह उनके गुस्से को सहन करती है। वह उनकी उपेक्षा को सहन करती है। कभी वह अपने से छोटों को राह दिखाना चाहती है और अपनी रौ में बह रहे युवा उसे और उसकी सोच को नकार कर आगे बढ़ जाते हैं। सभी अपने अपने व्यक्तिगत जीवन को जीने में लगे होते हैं और एक वही है जो सबके बारे में सोचती है। वह होती है तो इस बात का ख्याल भी नहीं आता कि भगवान न करे अगर यह न रहे तो परिवार के सदस्य कैसे मिलेंगे एक दूसरे से?

वक्त ऐसे मंजर भी दिखा देता है।

डा. संजय बनर्जी (गिरीश कर्नाड) कई दशकों से लंदन में रहते आये हैं, उन्होने सफलता, धन और शोहरत भरपूर कमाये हैं। उनका बहुत बड़ा महल जैसा आलीशान घर है जहाँ दिन भर अब उनकी पत्नी मंजू (शर्मीला टैगोर) अकेली रहती हैं, और पति और सबसे छोटी बेटी के घर आने का इंतजार करते हुये समय बिताती हैं। बनर्जी दम्पति की तीन बेटियाँ हैं।

सबसे बड़ी बेटी है – लोलिता (मुकुलिका बनर्जी)। लोलिता ने अपनी मर्जी से एक अंग्रेज व्यक्ति- जॉन (Christopher Hatherall) से शादी की थी। जॉन इंवेस्टमेंट बैंकर हैं। लोलिता के दो बच्चे हैं। लगभग तीन साल की बेटी और छह माह का बेटा।

मंझली बेटी है – तूलिका (नीरजा नायक), जिसे सब तूली कहकर पुकारते हैं। तूलिका अपनी सहकर्मी महिला मित्र से प्रेम करती है और उसी के साथ रहती है।

सबसे छोटी बेटी है – दिया (सोहा अली खान), जो यूनिवर्सिटी में ड्रामा डिपार्टमेंट में पढ़ रही है और एक मुस्लिम डॉक्टर – इम्तियाज़ (Rez Kempton) से प्रेम करती है।

दिन के समय मंजू घर के विशाल बगीचे, जिसे बाग कहना ज्यादा उचित होगा, में पेड़-पौधों, फूल-पत्तों के मध्य प्रकृति का आनंद उठाती घुमा करती हैं या किचन में खाना बनाते हुये भारतीय क्रिकेट टीम को जिताने की कोशिश किया करती हैं।

फिल्म की कहानी शेक्सपियर के King Lear से प्रेरित है और इसमें आधुनिक समय में इंग्लैंड में बसे भारतीय (बांग्लादेशी और पाकिस्तानी) मूल के लोगों की दुविधा को दिखाया गया है। ये लोग सफलता पाने विदेश गये थे, उम्र का बहुत बड़ा हिस्सा इन्होने उस सफलता के सपने को पूरा करने में खर्च किया है। भारत में रहकर व्यक्ति जिन बातों को दकियानूसी या पुरातनपंथी समझता है वही सब बातें विदेश में कुछ साल दूसरी सभ्यताओं के साथ रहकर भली लगने लगती हैं। ऐसा अक्सर देखा गया है कि बाहर रहने वाले पहली पीढ़ी के भारतीय संस्कारों पर जरुरत से ज्यादा जोर देने लगते हैं। वे बाहर तो रहना चाहते हैं पर चाहते हैं कि उनके बच्चे विशुद्ध भारतीय बन कर रहें, जो कि असंभव है। बच्चे वहाँ के स्कूलों में, वहाँ के बच्चों के साथ पल कर बड़े होते हैं और यह अप्राकृतिक है कि उनका खुला दिमाग वहाँ के तौर-तरीके न सीखे। यह बात बिल्कुल असंभव है। बड़े होने पर पहली और दूसरी पीढ़ी के मूल्यों के बीच टकराव होना लाज़िमी है। ऎसा टकराव होता आया है और होता रहेगा।

डा. संजय बनर्जी तो इंग्लैंड जाने के बाद से ही सफल, धनी और प्रसिद्ध होने में ही व्यस्त रहे हैं और इस प्रयास में उन्हे अपनी बेटियों के बारे में गहराई से ज्यादा नहीं पता है। उन्हे नहीं पता कि उनकी बड़ी बेटी के वैवाहिक जीवन में कुछ दिक्कतें हैं। उन्हे नहीं पता कि उनकी मंझली बेटी अपनी एक महिला मित्र से प्रेम करती है, उन्हे नहीं पता कि उनके साथ रहने वाली सबसे छोटी बेटी एक मुस्लिम डॉक्टर से प्रेम करती है।

यह सब बातें जानती हैं मंजू, जो अपनी बेटियों को सलाह देना चाहती हैं और देती भी रहती हैं। हालाँकि वे भी अपने ढ़ंग से सोचती हैं पर तब भी माँ-बेटियों के मध्य संवाद का रिश्ता उन्होने बना रखा है। सोचती मंजू भी भारतीय तरीके से ही हैं। जब मंझली बेटी तूलिका घर से जाना चाहती है अपनी मित्र के साथ रहने के लिये तो मंजू इस बात को समझ नहीं पातीं। वे उससे पूछती हैं कि क्या घर में उसे कोई समस्या है।

तूलिका के यह कहने पर कि उसे स्पेस चाहिये वे हैरत से कहती हैं कि क्या उसे पाँच बेडरूम वाले घर से ज्यादा स्पेस मिल जायेगा?

वे नहीं समझ पातीं तूलिका का कहना कि उसे अपने बलबूते रहना है, अपने तरीके से। वे उससे पूछती हैं कि क्या उसे माता-पिता से कोई समस्या है।

वे तूलिका की बात नहीं समझ पातीं पर वे लचीला रुख अपनाती हैं और अपनी बेटियों को समझना चाहती हैं और इसके लिये वे सामने आ गयी स्थितियों को स्वीकार करके जीना सीख लेती हैं।

वे लोलिता को सलाह और समर्थन देती हैं कि उसे अपने वैवाहिक जीवन को बचाने के लिये गम्भीर प्रयास करने चाहियें और उसके माता-पिता सदा उसके साथ हैं।

उन्हे झटका लगता है दिया के यह बताने पर कि वह डा. इम्तियाज़ से प्रेम करती है और अब गर्भवती है। वे ऐसा नहीं होने देना चाहती थीं और शुरुआती जद्दोजहद के बाद वे इस स्थिति को भी स्वीकार कर लेती हैं जब दिया बच्चे को जन्म देना चाहती है, अगर इम्तियाज़ शादी के लिये तैयार न हो उसके बावजूद भी।

मंजू अपने पति संजय को भी सलाह देती हैं कि उन्हे अपनी बेटियों को समझने के लिये उनके साथ समय बिताना चाहिये। वे कहती हैं कि नई पीढ़ी के बच्चे बहुत आगे निकल गये हैं उनके साथ चलने के लिये हमें ही प्रयास करने होंगे।

बनर्जी दम्पति की सबसे बड़ी बेटी लोलिता रंग-रुप में बाकी दोनों बेटियों से बहुत अलग है और शुरु से ही दर्शक को यह अंतर असमंजस में डाले रखता है और पहले लगता है कि निर्देशक को जो कलाकार मिले उन्होने अपनी फिल्म में ले लिया और यह बात शुरु में दर्शक द्वारा फिल्म को पूर्णतया स्वीकार करने में बाधा उत्पन्न करती है। पर इस अंतर के पीछे एक रहस्य है और जब यह रह्स्य खुलता है तो फिल्म की कड़ियाँ आपस में जुड़ जाती हैं और फिल्म में गहराई आ जाती है।

फिल्म के एक अन्य अहम चरित्र हैं आलोक (ओम पुरी) जो बनर्जी परिवार के सबसे करीबी मित्र हैं। वे संजय और मंजू के ही नहीं बल्कि उनकी तीनों बेटियों और पौत्री के भी मित्र हैं। सतह पर अपने हास्य-बोध, खुले व्यवहार और चुटकलों से सबको खुशी देने वाले आलोक का चरित्र सबसे ज्यादा परतें लिये हुये है और ओम पुरी बड़ी सहजता से चरित्र की बारीकियों को जीते चले जाते हैं।

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फिल्म की शुरुआत होती है मंजू के अनायास देहांत से और संजय का जीवन उथल-पुथल हो जाता है। अगले कुछ दिनों में वे धीरे-धीरे अपनी बेटियों के जीवन और उनकी समस्याओं से परिचित होते हैं और झटके खाते रहते हैं। फिल्म के चरित्रों की यादों के सहारे मंजू दर्शकों के सामने आती रहती हैं और दर्शक उन्हे और उनके पीछे रह गये परिवार को जानने लगते हैं।

संजय उस पीढ़ी के नुमांइदे हैं जिन्होने बाल्यावस्था में भारत के विभाजन की दुखद त्रासदी देखी है और झेली है। विभाजन के पहले के भारत के पूर्वी बंगाल क्षेत्र में जन्में हिन्दू संजय के दिमाग में उनके बचपन के मुसलमान मित्र-इम्तियाज़ की कड़वीं यादें बसी हुयी हैं। अपने सबसे गहरे मित्र को उन्होने दंगाई के रुप में अपने घर पर हमला करते हुये देखा है। यह धोखा उनके दिलो-दिमग में बहुत गहराई से बसा हुआ है और वे अंदर से मुसलमानों को पसंद नहीं करते हैं और यह बात तो उनके जेहन से एकदम बाहर की बात है कि उनकी अपनी बेटी एक मुस्लिम युवक से विवाह करना चाहती है। यह जानकर तो उन्हे बहुत बड़ा धक्का लगता है कि उनकी बेटी गर्भवती है और बच्चे को जन्म देना चाहती है। संजय का सारा वजूद मंजू की अनायास मृत्यु से हिल जाता है। संजय को इस बात से बहुत बड़ा धक्का लगता है कि मँजू उनकी बेटियों के जीवन के बारे में बहुत कुछ जानती थीं पर उन्होने भी कभी इन मसलों से अवगत नहीं कराया। मानसिक उठापठक के बीच अगले छ्ह-सात दिनों में वे अपने को खोजते हैं।

उनके दोस्तों को भी भारत के विभाजन ने किसी न किसी तरह से दुख पहुँचाया है। आलोक बताते हैं कि उनके पिता को भी पाकिस्तान में मार डाला गया था और उनकी माँ किसी तरह उन्हे लेकर हिन्दुस्तान पँहुच गईँ थीं पर इतनी बड़ी त्रासदी झेलने के बाद भी उनकी माँ ने कभी भी उन्हे मुसलमानों से नफरत करना नहीं सिखाया।

संजय के कुछ दोस्त विभाजन के समय के दंगों को लेकर एकतरफा सोच रखते हैं तो कुछ एक संतुलित नज़रिया रखते हैं कि विभाजन के समय के दंगों में दोनों तरफ के लोग मारे गये थे।

भारत के हिंदु और मुसलमान ऐसे ही मिश्रित भाव से भरे हुये हैं और भारत की खुशहाली और अखंडता इस बात पर निर्भर करती है कि संतुलित विचारधारा के लोग बहुमत में रहें न कि पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग।

जब समस्यायें सीधे सीधे व्यक्ति के सामने आकर खड़ी हो जाती हैं तो वह उनसे मुँह नहीं फेर सकता। संजय को इन सब समस्यायों का सामना करना है। दिया और इम्तियाज़ के मसले को लेकर संजय के पुराने घाव हरे हो जाते हैं और बेटी के जीवन को वे अपने पूर्वाग्रहों से संचालित सोच के जरिये नियंत्रित करना चाहते हैं, पर दिया उनकी इस निरंकुशता के खिलाफ विद्रोह कर देती है और अपनी बेटी की बातों से घायल संजय अनायास ही अकेलेपन की ओर बढ़ जाते हैं।

अकेलापन व्यक्ति को हर बात साफ साफ श्वेत और श्याम रंगों में विभाजित करके दिखाने की शक्ति प्रदान करता है। अकेलापन व्यक्ति को अंत: विश्लेषण करने की रोशनी प्रदान करता है। संजय भी बहुत कुछ समझने लगते हैं, स्वीकारने लगते हैं।

संजय को एक और बड़ा धक्का लगता है आलोक द्वारा उनके और मंजू के लंदन प्रवास के शुरुआती दिनों के दौरान मंजू पर संजय द्वारा जबरदस्ती थोप दिये गये अकेलेपन की सच्चाई के बखान करने और उनकी बड़ी पुत्री के जन्म के समय की बातों के रहस्योदघाटन करने से।

मंजू की मौत फिल्म को शुरु में ही एक मोड़ प्रदान करती है और आलोक की संजय को कही बातें फिल्म को दूसरा मोड़ देकर एक निश्चित दिशा दे देती हैं।

आज तक संजय के पूर्वाग्रह सैद्धांतिक थे पर अब जीवन उन्हे ऐसे मोड़ पर ले आता है जहाँ उन्हे दिखायी देता है कि उनके प्रियजनों में से सबने उनकी समझ से गलत कार्य किये हैं, यहाँ तक कि उनकी पत्नी मंजू ने भी, परंतु वे उनसे दूर जाने में असमर्थ हैं और पाते हैं कि वे उन्हे उनकी कमजोरियों की बावजूद प्रेम करते हैं और उनकी गलतियों के बावजूद उन्हे स्वीकार करते हैं जैसे कि उनके प्रियजन उनसे सैंकड़ों किस्म के अंतर रखते हुये भी उन्हे स्वीकार करते हैं।

जीवन को चलना है तो वर्तमान को और तात्कालिकता को स्वीकार करना ही पड़ता है।

लंदनवासी निर्देशक संगीता दत्ता की फिल्म में अभिनय की गुणवत्ता के स्तर पर स्पष्टतया: दो स्तर हैं। ओम पुरी, गिरीश कर्नाड और शर्मीला टैगोर के हिस्से आये भागों में फिल्म ऊँचे स्तर को बनाये रखती है जबकि सोहा अली खान और अन्य युवा अभिनेताओं के हिस्से आये भागों में स्तर बेहद साधारण रहता है। इस तरह की कम बजट की लगभग स्वतंत्र रुप से बनायी फिल्मों में बहुत सारे समझौते करने पड़ते हैं जिनसे ऐसी फिल्मों की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

कुछ ऐसी कमियाँ भी होती हैं जिनका बजट से लेना देना नहीं होता और वे निर्देशक के स्तर पर आसानी से संभाली जा सकती हैं। जिनमें स्क्रिप्ट की माँग के अनुसार अभिनेताओं का चयन और चुने जाने के बाद उनसे उचित अभिनय करवाना और संवाद ठीक ढ़ंग से बुलवाना शामिल हैं।

गिरीश कर्नाड को एक लम्बे अरसे बाद एक लम्बी भूमिका में देखना सुखद है। परंतु उनके हिस्से आये कुछ बंगाली संवाद बेहद अटपटे लगते हैं। जब 98% फिल्म इंग्लिश में है तो क्या यह इसलिये जरुरी था कि गिरीश कर्नाड को बंगाली दिखाया जाये, क्योंकि टैगोर की कवितायें फिल्म में उपयोग में लानी थीं और निर्देशक की प्रष्ठभूमि बंगाली है? और जहाँ 98% संवाद इंग्लिश में बोले गये हैं वहाँ एक- दो पंक्तियाँ बंगाली में बुलवाने का क्या अर्थ है। गौरतलब बात यह है कि शर्मीला टैगोर को मुश्किल से ही बंगाली में बोलते दिखाया गया है।

एक ही घर में, एक ही परिवेश और एक ही समय में पली बढ़ी तीनों लड़कियों के इंग्लिश एक्सेंट में जमीन आसमान का अंतर लगता है। जहाँ मुकुलिका बनर्जी और नीरजा नायक खांटी ब्रिटिश लहजे वाली इंग्लिश बोलती हैं वहीं सोहा अली खान भारतीय लहजे में इंग्लिश संवाद बोलती हैं।

चरित्रचित्रण की ऐसी बारीकियों पर ध्यान नहीं दिया गया है।

फिल्म को RED कैमरे के द्वारा शूट किया गया और सिनेमेटोग्राफर Robert Shacklady के कैमरे ने लंदन में फिल्माये भागों को खूबसूरती से पकड़ा है। एक अंतर जो दिखता है वह है कि कैमरे ने लंदन और आसपास बसे स्थानों में पसरी प्राकृतिक सौंन्दर्य की छटा को तो बखूबी प्रस्तुत किया है परंतु भारतीय अभिनेताओं की अपेक्षाकृत गहरे रंग वाली त्वचा को ढ़ंग से प्रस्तुत करने में कैमरा विभाग कहीं-कहीं कुछ मात खा गया है। सोहा अली खान के साथ कई दृष्यों में ऐसा हुआ है कि उनका चेहरा अजीब से धब्बे लिये हुये दिखता है।

फिल्म का संगीत कानों को अच्छा लगता है।

हालाँकि सोहा और फिल्म में उनके प्रेमी के ऊपर फिल्माया गया एक गीत फिल्म में अटपटा लगता है और फिल्म के मूड और गति को प्रभावित करता है।

…[राकेश]