yesalizindagiऐसा हो जाता है कि कुछ रचते हुये उस ताने-बाने के कुछ रेशे रचियता को पसंद आ जाते हैं और वह उन्हे बाद में किसी और चीज के बुनने के लिये रख लेता है। उन पुराने रेशों से नये में और नयापन लाया जा सकता है या यही देखा जा सकता है कि नयी चीज के ताने-बाने में ये पुराने रेशे कैसे रंग और कैसी साज-सज्जा बिखेरेंगे।

ऐसा  संभव है कि हजारों ख्वाहिशें ऐसी रचते हुये सुधीर मिश्रा को गीता-विक्रम की प्रेम कहानी ने या तो अतृप्त छोड़ा हो या इतना संतुष्ट किया हो कि उस प्रेम का कोण उनके साथ विचरण करता रहा और अब ये साली ज़िंदगी में विक्रम-गीता, अरुण-प्रीति के रुप में अपराध जगत में अपने प्रेम की परिणति पाते हुये नज़र आते हैं।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर मिश्रा ने सत्तर के दशक के शुरुआती सालों के भारत में नक्सलवादी- हिंसक साम्यवादी, राजनीतिक आंदोलन और देश में आपातकाल लगने की पृष्ठभूमि में प्रेम के त्रिकोण का विश्लेषण किया था और यहाँ ये साली ज़िंदगी में वे अपराध जगत में प्रेम के त्रिकोण को प्रवेश कराते हैं और प्रेम और अपराध के इस घालमेल में उलझी ज़िंदगी के नये रंग दिखाते हैं और इन परिस्थितियों में प्रेम कैसी करवटें बदलता है और इन करवटों से ज़िंदगी की सतह पर कैसी और कितनी सलवटें पड़ती हैं, उसे दिखाते हैं।

अपराध संसार सुधीर मिश्रा की पिछली कई फिल्मों के विषय में घुसपैठ कर चुका है। और जब से फिल्मे बननी आरम्भ हुयी हैं तब से अपराध संसार दुनिया भर की फिल्मों को आकर्षित और प्रेरित करता रहा है। ये साली ज़िंदगी देखते हुये बहुत सारी फिल्मों की याद ताजा होती जाती है। कभी Quentin Tarantino की Reservoir Dogs, Pulp Fiction, और Jackie Brown की याद आती है तो जेल में बंद बड़े (यशपाल शर्मा), कुलदीप (अरुणोदय सिंह) के मध्य घटते घटनाक्रमों को देख Acques Audiard की बेहतरीन फिल्म A Prophet की। कभी कुलदीप और शांति (अदिति राव हैदर) के वैवाहिक पल, सत्या के भीखू (मनोज बाजपेई) और उसकी पत्नी प्यारी (शैफाली शाह) की याद दिलाते हैं। और भी कई फिल्में स्मृति का दरवाजा खटखटाने लगती हैं ये साली ज़िंदगी देखते हुये।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ये साली ज़िंदगी में बहुत सारे ऐसे तत्व पा जायेंगे जो विश्व की प्रसिद्ध और विश्वसनीयता फिल्मों का हिसा बन चुके हैं। अपनी ही पुरानी फिल्मों एवम विश्व की अन्य फिल्मों से मेल खाते कई तरह के समान तत्वों के बावजूद यह सुधीर मिश्रा की मौलिक प्रस्तुती है। कुलदीप और शांति भी भीखू और प्यारी जैसे होते हुये भी उनसे अलग हैं। शायद यह पहली हिन्दी फिल्म होगी जहाँ पति-पत्नी की शारीरिक नजदीकियों को इस मुखरता से दिखाया गया है वरना हिन्दी फिल्में प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिये ही ऐसी स्पष्ट नजदीकियाँ सुरक्षित रखती हैं।

ये साली ज़िंदगी, वर्तमान हिन्दी सिनेमा से बहुतायत में निकलने वाली फॉर्मूला आधारित फिल्म नहीं है। इसमें मौजूद गालियों वाली भाषा न भी होती तब भी यह हिन्दी सिनेमा की लटके-झटके वाली फिल्मों से अलग होती। यह अलग है पर तब भी यह ऐसी दुरुह नहीं है कि केवल दर्शकों का एक खास तबका ही इसका आनंद ले पायें। बड़ी संख्या में दर्शक इससे जुड़ाव महसूस कर सकते हैं।

फिल्म में रोचक विषय है। रोचक चरित्र हैं। फिल्म में गति है। फिल्म में चरित्रों के निर्वाह के लिये ऐसे अभिनेताओं को लिया गया है जिनमें बहुतायत में अभिनेता विश्वसनीयता लेकर आते हैं और अभिनेताओं के इस अच्छे चयन के कारण दर्शकों के लिये फिल्म के विषय और इसमें घटती घटनाओं से सामंजस्य बिठाना आसान हो जाता है।

अरुण (इरफान खान) और उसका साथी मेहता (सौरभ शुक्ला) दिल्ली के भ्रष्ट राजनेताओं एवम माफियाओं के काले धन को संभालने का कार्य करते हैं। इसी सिलसिले में अरुण की भेंट प्रीति (चित्रांगदा सिंह) से होती है। व्यवसाय से गायिका बन चुकी प्रीति, अरुण को पहली ही मुलाकात में आकर्षित करती है और वह उसकी ज़िंदगी और कामों में जरुरत से ज्यादा रुचि लेकर उसकी सहायता करने लगता है। उसका प्रीति के प्रति आकर्षण बढ़कर प्रेम में बदल जाता है जो एकतरफा ही है क्योंकि प्रीति एक धन्ना सेठ सिंघानिया के इकलौते पुत्र श्याम (विवेक गुप्ता) से प्रेम करती है। सिंघानिया, श्याम की शादी एक मंत्री की बेटी से तय कर देता है।

मंत्री ने कभी अपने खासमखास रहे माफिया डॉन बड़े (यशपाल शर्मा) को जेल में बंद करवा रखा है और बाहर बड़े का छोटा भाई, छोटा (प्रशांत नारायण) भी अपने भाई के दिवंगत होने का इंतजार और इस काम के शीघ्र निबट जाने के लिये प्रयासरत है। जेल में ही सजा काट रहा है कुलदीप (अरुणोदय सिंह), जो कि भ्रष्ट पुलिस अधिकारी सतबीर (सुशांत सिंह) के नजदीक है।

कुलदीप सजा काटकर बाहर आ रहा है और उसे असाइनमेंट मिलता है जेल से बड़े को बाहर निकालने का। अपनी पत्नी शांति (अदिति राव हैदर) की खातिर वह अपराध जगत छोड़ना भी चाहता है पर धन की जरुरत उसे इस बात के लिये प्रेरित करती है कि वह एक बड़ा काम करे और उसके बाद अपराध की ज़िंदगी छोड़कर सामान्य ज़िंदगी जिये।

बड़े को जेल से बाहर निकालने के लिये मंत्री की बेटी और उसके मंगेतर का अपहरण होना है। इस एक अपहरण से फिल्म के सारे चरित्र जुड़ जाते हैं और सबकी ज़िंदगियों में उथल-पुथल मच जाती है।

कुलदीप द्वारा अपराध जगत छोड़कर या कम से कम अपनी पत्नी के सामने ऐसा दिखाते हुये अपराध जगत और वैवाहिक जीवन में संतुलन बनाये रखने के प्रयास फिल्म के शीर्षक से मेल खाते हैं। हमेशा कुलदीप पर अपराध छोड़कर सीधी सादी ज़िंदगी व्यतीत करने का दबाव डालने वाली शांति भी करोड़ों रुपयों के लालच से किनारा नहीं कर पाती। हर आदमी किसी न किसी मौके पर ज़िंदगी की खातिर कमीने लालच के सामने घुटने टेक देता है या ज़िंदगी की मुश्किलों से घबराकर कमीनेपन की शरण में चला जाता है और ऐसे टुच्चे माहौल में सिर्फ अरुण (इरफान खान) ही ऐसा चरित्र है जो प्रीति (चित्रांगदा सिंह) से प्रेम के कारण प्रीति के लिये आपने जीवन को जोखिम में डालकर कुछ करता है और उसके इसी त्यागमयी प्रेम के कारण प्रीति के मन में उसके लिये जगह बनती है।

पहले प्रीति उसकी सहायता लेने के बावजूद बार बार दर्शाती है कि उसे श्याम से प्रेम है। फिल्म हालाँकि दृष्यात्मक रुप से यह स्पष्ट नहीं कर पाती कि प्रीति के मन में अरुण की तरफ हुये झुकाव में उसे इस सत्य के पता चलने का कितना हाथ है कि श्याम और उसके पिता सिर्फ नाम के रईस हैं और असल में दिवालिया हैं, और श्याम के मंत्री की बेटी के मंगेतर होने की वजह से उसकी ज़िंदगी वाकई जटिल है और आगे भी रहेगी और वह श्याम की रखैल बन कर रह जायेगी।

बहरहाल बड़े को जेल से बाहर निकालने के उद्देश्य को पूरा करने के प्रयासों के तहत कहानी में मोड़ आते रहते हैं और तेज रफ्तार से भागती कहानी में अनपेक्षित मोड़ रोचकता बनाये रखते हैं।

अरुण और प्रीति के मध्य का रिश्ता अपराध जगत में विचरती फिल्म को मानवीय सरोकारों से संबंधित बनाये रखता है। पुरुष द्वारा नारी को येन-केन-प्रकारेण लुभाने के तरीके दिखाने वाली अधिसंख्य हिन्दी फिल्मों से इतर यहाँ प्रेमी, सामान्य हालात में तो मौन रहकर अपने प्रेम के लक्ष्य की सहायता करता है और जब बात ज़िंदगी और मौत की आ जाती है तो अपनी जान जोखिम में डालकर उसे बचाने का प्रयास करता है और तब अपने प्रेम भावों को शब्दों में कहकर स्वीकार करता है।

ये साली ज़िंदगी में अरुण-प्रीति की प्रेम कहानी इसका खास तत्व बन जाती है, और अंत में इनके प्रेम की परिणति ऐसे ही पूरी फिल्म की प्रकृति को बदल देती है जैसे हजारों ख्वाहिशें ऐसी के अंत में विक्रम और गीता तालाब किनारे मौन बैठे हैं और बाकी सब भूल चुका विक्रम लकड़ी से जमीन पर गीता लिखता है और पूरी फिल्म की प्रकृति प्रेम-कहानी में बदल जाती है।

लगभग सभी अभिनेता अच्छा अभिनय कर गये हैं। इरफान खान और चित्रांगदा सिंह दोनों फिल्म में दर्शकों का आकर्षण बनाये रखने में मजबूती से अपना समर्थन देते हैं। अरुणोदय सिंह की ऊँची कद काठी ही अब तक सिकंदर और मिर्च में उन पर ध्यान केंद्रित करवा पाने में सफल रही थी और उनके अभिनय ने ध्यान आकर्षित नहीं किया था पर यहाँ वे एक अभिनेता होने की सक्षमता ग्रहण और प्रस्तुत करते दिखायी देते हैं। लम्बी रेस में नायक बनने की क्षमता दिखाने के लिये संवाद अदायगी में सुधार और आवाज का सही उपयोग करने की क्षमता विकसित करने की जरुरत दिखायी देती है।

अदिति राव हैदर अपनी पहली हिन्दी फिल्म- दिल्ली 6,  की रमा जैसे शांत सुशील चरित्र से अलग शांति के अशांत, लड़ाकू और वाचाल चरित्र में सिक्का जमाती हैं और अपनी अभिनय क्षमता की रेंज प्रदर्शित करती हैं।

ये साली ज़िंदगी, विकसित प्रेम-कहानियाँ और क्राइम थ्रिलर्स, दोनों ही किस्म की फिल्में देखने वाले दर्शकों को लुभा सकती है ।

…[राकेश]

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