nahta+advaniचुनाव खत्म हो चुके हैं। कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है। श्रीमति इंदिरा गाँधी अब प्रधानमंत्री नहीं हैं। मैं वापिस लोकसभा में चुन लिया गया हूँ, जनता पार्टी के सदस्य के रुप में। इमेरजैंसी उठा ली गयी है और नागरिकों के मूल अधिकारों की वापसी हो गयी है।

29 मार्च1977 को, अपनी फिल्म के बनने के ठीक दो साल बाद, मैंने निम्नलिखित पत्र लिखा था, नये सूचना एवम प्रसारण मंत्री बने श्री एल. के. आडवाणी को

श्री एल.के. आडवाणी
सूचना एवम प्रसारण मंत्री
नई दिल्ली

प्रिय श्री आडवाणी,

मैंने 1974-75 में एक रंगीन फीचर फिल्म बनायी थी, जिसका नाम था “किस्सा कुर्सी का“। फिल्म इस थीम पर आधारित थी कि “कैसे अनैतिक राजनीतिज्ञ हमारे देश की गूँगी जनता के साथ बलात्कार करते हैं“। फिल्म सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों के तौर-तरीकों के ऊपर एक तीखा व्यंग्य थी। यह एक अव्यवसायिक श्रेणी की फिल्म थी और इसे बनाने का उद्देश्य मतदाताओं को जागरुक बनाना था। मैं इसे चेतना की फिल्म कहता हूँ।

19 अप्रैल 1975 को मैंने केन्द्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड, बम्बई के समक्ष फिल्म के प्रदर्शन हेतु प्रमाणपत्र देने के लिये आवेदन किया। पहले तो बोर्ड के कार्यकारी चेयरमैन ने इसे रिवाज़िंग कमेटी के सुपुर्द कर दिया और जब उसने पाया कि सदस्यों का बहुमत फिल्म को प्रदर्शन हेतु प्रमाणपत्र देने के पक्ष में था तो इस निम्न सोच के अधिकारी ने मेरी फिल्म को केन्द्रीय सरकार के पास भेज दिया।

ढ़ाई महीनों तक सूचना एवम प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी मेरी फिल्म के ऊपर कुंडली मारे बैठे रहे। आखिरकार उन्होने मुझे 40 आपत्तियाँ बतायीं और मुझसे 11 जुलाई 1975 को उन आपत्तियों के जवाब देने को कहा। उनकी सारी आपत्तियाँ, अनर्गल, निराधार और बकवास किस्म की थीं। मैंने अपने जवाब 11 जुलाई 1975 को भेज दिये। मेरे जवाबों को बिना देखे ही संयुक्त्त सचिव ने उसी दिन मेरी फिल्म को प्रदशन के लिये प्रमाणपत्र न देने का आदेश जारी कर दिया।

इस बीच इमेरजैंसी लग चुकी थी। 14 जुलाई 1975 को मेरी फिल्म को अवांछित फिल्म घोषित कर दिया गया और DIR के अंतर्गत सरकार ने मेरी फिल्म को जब्त करने के आदेश दे दिये। मैं तुरंत सुप्रीम कोर्ट की शरण में गया और निवेदन किया कि सरकार को मेरी फिल्म जब्त करने से रोका जाये क्योंकि मुझे डर था कि मेरी फिल्म को नष्ट कर दिया जायेगा। 18 जुलाई 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने मुझे निर्देश दिये कि मै फिल्म, निगेटिव, और फिल्म से जुड़ी अन्य सामग्री सरकार को सौंप दूँ और कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिये कि मेरी फिल्म, निगेटिव और प्रिंट्स आदि को तब तक सुरक्षित रखा जाये जब तक कि सुनवाई पूरी नहीं हो जाती।

कुछ दिनों के बाद ट्रक में भर कर पुलिस वाले आये और बॉम्बे फिल्म्स लेबोरेटरी प्राइवेट लिमिटेड की इमारत पर रेड डालकर मेरी फिल्म, उसके निगेटिव, साऊण्ड ट्रैक, रशेज प्रिंट्स और यहाँ तक कि एडिटर द्वारा काटकर कर अलग फेंकी गयी बेकार फिल्म और अन्य सब कुछ अपने साथ ले गये।

29 अक्टुबर 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिये कि उसके सामने फिल्म का प्रदर्शन किया जाये। फिल्म की स्क्रीनिंग के लिये 17 नवम्बर 1975 की तारीख दी गयी। इस तारीख से दो हफ़्ते पहले ही सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि सरकार के पास मौजूद फिल्म का एकमात्र पॉजीटिव प्रिंट गायब है और इसलिये सुप्रीम कोर्ट के समक्ष फिल्म का प्रदर्शन किया जाना संभव नहीं है।

3 जनवरी 1976 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिये कि प्रिंट की तलाश की जाये और अगर प्रिंट नहीं मिल पाता है तो निगेटिव से प्रिंट बनवाकर कोर्ट के समक्ष फिल्म का प्रदर्शन किया जाना चाहिये।

22 मार्च 1976 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि फिल्म का निगेटिव भी गायब है।

सूचना एवम प्रसारण मंत्रालय की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया गया प्रत्येक हलफनामा झूठ का पुलिंदामात्र था। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर फिल्म का प्रिंट और निगेटिव दोनों ही गायब हो गये थे तो यह न केवल सरकार की लापरवाही दिखाता है बल्कि यह भी दर्शाता है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना की और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना भी की।

यह पूरा ऑपरेशन क्रूरता, जबरदस्ती, और गैरकानूनी गतिविधियों से भरा था और ऐसी ही घटनाओं से इमेरजैंसी का पूरा काल सराबोर रहा है। मेरी फिल्म के साथ घटित यह बताता है कि कैसे कला के क्षेत्र में भी रचनात्मक स्वतंत्रता को कुचला गया।

आप शायद इस बात से अवगत हों कि हाल ही में सम्पन्न हुये चुनावों में मेरी फिल्म का मुद्दा बड़े जोर शोर से उछला था और प्रैस, और जननेताओं ने इस मसले को जोर देकर उठाया।

मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि श्रीमति इंदिरा गाँधी और उनके अधिनस्थ श्री विद्या चरण शुक्ल द्वारा किये गये मेरे प्रति अन्याय का प्रतिकार किया जाये।

मेरी आपसे विनती है कि मेरी फिल्म का प्रिंट, इसका निगेटिव, साऊण्ड ट्रैक, और मेरी फिल्म से जुड़ी अन्य सामग्री, जो कि केंद्र सरकार ने जब्त कर ली थी, मुझे वापिस कर दी जाये, ताकि मैं अपनी फिल्म कम से कम अब प्रदर्शित कर सकूँ।

हालाँकि मुझे आशंका है कि मेरी फिल्म से जुड़ी सभी सामग्रियाँ, श्रीमति गाँधी के व्यक्तिगत निर्देश पर पहले ही नष्ट की जा चुकी हैं। यदि मेरी आशंका सच साबित होती है तो रचनात्मक स्वतंत्रता के खिलाफ इससे बड़ा जुर्म और कोई नहीं हो सकता। इस दशा में मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि एक उच्च स्तरीय जाँच की जाये जो कि निष्पक्ष ढ़ंग से मेरी फिल्म के मामले की जांच करे, और इस जघन्य अपराध करने वालों की जवाबदेही तय करे, दोषियों को उचित सजा निश्चित करे और मुझे हुये नुकसान की भरपाई के लिये उचित मुआवजा तय करे।

यहाँ मैं यह दर्ज कराना चाहता हूँ कि निगेटिव की कुल लागत नौ लाख रुपये थी और अब तक दो लाख से ऊपर ब्याज मेरे ऊपर चढ़ चुका है। आप अपनी तरफ से भी किसी भी फिल्म वितरक से पूछ सकते हैं और आप भी सहमत होंगे इस बात से कि यदि मेरी फिल्म चुनाव से पहले या चुनाव के समय प्रदर्शित हो जाती या अभी भी प्रदर्शित हो जाती तो यह बॉक्स ऑफिस के सारे रिकार्ड तोड़ देती। इन्ही सब बातों को मद्देनज़र रखते हुये मैं कह्ना चाहत हूँ कि अगर आप मुझे मेरी फिल्म नहीं लौटा सकते तो मुझे एक करोड़ रुपयों का मुआवजा दिया जाना चाहिये। मेरी माँग हर लिहाज से वाजिब और तार्किक है।

मैं आशा करता हूँ कि आप जनता सरकार के मंत्री के तौर पर मुझे अपने प्रति हुये अन्याय के प्रतिकार के लिये कोर्ट जाने पर विवश नहीं करेंगे।

आपका बहुत बहुत धन्यवाद!

भवदीय(अमृत नाहटा)

नोट: शैक्षणिक व अव्यवसायिक उपयोग के लिये हिन्दी सिनेमा के इतिहास से सम्बंधित एक विवादास्पद फिल्म के निर्माता के पत्र का हिंदी रुपांतरण प्रस्तुत किया गया है।

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