मैंने जब बंबई टॉकीज़ में क़दम रखा तो हिंदू मुस्लिम फ़सादाद शुरू थे। जिस तरह क्रिकेट के मैचों में विकटें उड़ती हैं बाव निडरियाँ लगती हैं। इस तरह उन फसादों में लोगों के सर उड़ते थे और बड़ी बड़ी आगें लगती थीं।
साविक वाचा ने बंबई टॉकीज़ की अबतर हालत का अच्छी तरह जायज़ा लेने के बाद जब इंतिज़ाम संभाला तो उसे बहुत सी मुश्किलें दरपेश आईं। ग़ैर ज़रूरी उन्सुर को जो मज़हब के लिहाज़ से हिंदू था, निकाल बाहर किया तो काफ़ी गड़बड़ हुई। मगर जब उस की जगह पर की गई, तो मुझे महसूस हुआ कि कलीदी आसामियाँ सब मुस्लमानों के पास हैं। मैं था, शाहिद लतीफ़ था, इस्मत चुग़्ताई थी, कमाल अमरोही था, हसरत लखनवी था, नज़ीर अजमेरी, नाज़िम पानी पति और म्यूज़िक डायरेक्टर ग़ुलाम हैदर थे। ये सब जमा हुए तो हिंदू ओ कारकुनों में साविक वाचा और अशोक के ख़िलाफ़ नफ़रत के जज़्बात पैदा हो गए। मैंने अशोक से इस का ज़िक्र किया तो हँसने लगा।
“मैं वाचा से कह दूँगा कि वो एक डाँट पिला दे।”
डाँट पिलाई गई तो इस का असर उल्टा हुआ। वाचा को गुमनाम ख़त मौसूल होने लगे कि अगर उसने अपने स्टूडियो से मुसलमानों को बाहर न निकाला तो उस को आग लगा दी जाएगी ये ख़त वाचा पढ़ता तो आग बगूला हो जाता।
“साले मुझसे कहते हैं कि मैं ग़लती पर हूँ… मैं ग़लती पर हूँ… मैं ग़लती पर हूँ तो उन के बावा का किया जाता है… आग लगाएँ तो मैं उन सबको इस में झोंक दूँगा।”
अशोक का दिल-ओ-दिमाग़ फ़िर्का-वाराना तअस्सुब से बिलकुल पाक है। वो कभी उन ख़ुतूत पर सोच ही नहीं सकता था। जिन पर आग लगाने की धमकियाँ देने वाले सोचते थे। वो मुझसे हमेशा कहता।
“मंटो ये सब दीवानगी है… आहिस्ता-आहिस्ता दूर हो जाएगी।”
मगर आहिस्ता-आहिस्ता दूर होने के बजाय ये दीवानगी बढ़ती ही चली जा रही थी… और मैं ख़ुद को मुजरिम महसूस कर रहा था, इस लिए कि अशोक और वाचा मेरे दोस्त थे। वो मुझसे मश्वरे लेते थे, इस लिए कि उनको मेरे ख़ुलूस पर भरोसा था। लेकिन मेरा ये ख़ुलूस मेरे अंदर सिकुड़ रहा था… मैं सोचता था, अगर बम्बई टॉकीज़ को कुछ हो गया तो मैं अशोक और वाचा को क्या मुँह दिखाऊँगा।
फ़सादात ज़ोरों पर थे। एक दिन मैं और अशोक बंबई टॉकीज़ से वापस आ रहे थे। रास्ते में उस के घर देर तक बैठे रहे। शाम को उसने कहा। चलो मैं तुम्हें छोड़ आऊँ… शॉर्ट कट की ख़ातिर वो मोटर को एक ख़ालिस इस्लामी मोहल्ले में ले गया… सामने से एक बारात आ रही थी। जब मैंने बैंड की आवाज़ सुनी, तो मेरे औसान ख़ता हो गए। एक दम अशोक का हाथ पकड़ कर मैं चलाया।
“दादा मनी। ये तुम किधर आ निकले।”
अशोक मेरा मतलब समझ गया। मुस्कुरा कर उसने कहा।
“कोई फ़िक्र न करो।”
मैं क्यूँ कर फ़िक्र न करता। मोटर ऐसे इस्लामी मोहल्ले में थी जहाँ किसी हिंदू का गुज़र ही नहीं हो सकता था। और अशोक को कौन नहीं पहचानता था। कौन नहीं जानता था कि वो हिंदू है… एक बहुत बड़ा हिंदू जिसका क़त्ल मार्का-ख़ेज़ होता… मुझे अरबी ज़बान में कोई दुआ याद नहीं थी। क़ुरआन की कोई मौज़ू-ओ-मुनासिब आयत भी नहीं आती थी। दिल ही में अपने ऊपर लानतें भेज रहा था और धड़कते हुए दिल से अपनी ज़बान में बेजोड़ सी दुआ मांग रहा था कि ऐ ख़ुदा मुझे सुर्ख़-रु रखियो… ऐसा न हो कोई मुसलमान अशोक को मार दे। और मैं सारी उम्र उस का ख़ून अपनी गर्दन पर महसूस करता रहूँ। ये गर्दन क़ौम की नहीं मेरी अपनी गर्दन थी। मगर ये ऐसी ज़लील हरकत के लिए दूसरी क़ौम के सामने नदामत की वजह से झुकना नहीं चाहती।
जब मोटर बारात के जुलूस के पास पहुँची तो लोगों ने चिल्लाना शुरू कर दिया।
“अशोक कुमार… अशोक कुमार…”
मैं बिलकुल याख़ हो गया। अशोक स्टेरिंग पर हाथ रखे ख़ामोश था। मैं ख़ौफ़-ओ-हिरास की यख़-बस्तगी से निकल कर हुजूम से ये कहने वाला था कि देखो होश करो। मैं मुसलमान हूँ। ये मुझे मेरे घर छोड़ने जा रहा है… कि दो नौजवानों ने आगे बढ़कर बड़े आराम से कहा।
“अशोक भाई अगला रास्ता नहीं मिलेगा। उधर बाजू की गली से चले जाओ।”
अशोक भाई? अशोक उनका भाई था। और मैं कौन था…? मैंने दफ़अतन अपने लिबास की तरफ़ देखा जो खादी का था… मालूम नहीं उन्होंने मुझे क्या समझा होगा। मगर हो सकता है कि उन्होंने अशोक की मौजूदगी में मुझे देखा ही न हो।
मोटर जब उस इस्लामी मोहल्ले से निकली। तो मेरी जान में जान आई। मैंने अल्लाह का शुक्र अदा किया तो अशोक हंसा।
“तुम ख़्वाह-मख़्वाह घबरा गए… आर्टिस्टों को ये लोग कुछ नहीं कहा करते।”
चंद रोज़ बाद बम्बई टॉकीज़ में नज़ीर अजमेरी की कहानी (जो मजबूर के नाम से फ़िल्म बंद हुई) पर मैंने जब कड़ी नुक्ता-चीनी और उस में कुछ तब्दीलियाँ करना चाहें, तो नज़ीर अजमेरी ने अशोक और वाचा से कहा।
“मंटो को आप ऐसे मुबाहसों के दौरान में न बिठाया करें। वो चूँकि ख़ुद अफ़्साना नवीस है इस लिए मुतअस्सिब है।”
मैंने बहुत ग़ौर किया। कुछ समझ में न आया। आख़िर मैंने अपने आपसे कहा।
“मंटो भाई… आगे रास्ता नहीं मिलेगा… मोटर रोक लो… उधर बाजू की गली से चले जाओ।”
और मैं चुप-चाप बाजू की गली से पाकिस्तान चला आया जहाँ मेरे अफ़साने “ठंडा गोश्त” पर मुक़द्दमा चलाया गया।
(गंजे फरिश्ते) – सआदत हसन मंटो
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