Ashok Kumar : A Legacy That Will Live Forever | Bollywood Legends

मैंने जब बंबई टॉकीज़ में क़दम रखा तो हिंदू मुस्लिम फ़सादाद शुरू थे। जिस तरह क्रिकेट के ‎मैचों में विकटें उड़ती हैं बाव निडरियाँ लगती हैं। इस तरह उन फसादों में लोगों के सर उड़ते थे ‎और बड़ी बड़ी आगें लगती थीं। ‎
साविक वाचा ने बंबई टॉकीज़ की अबतर हालत का अच्छी तरह जायज़ा लेने के बाद जब ‎इंतिज़ाम संभाला तो उसे बहुत सी मुश्किलें दरपेश आईं। ग़ैर ज़रूरी उन्सुर को जो ‎मज़हब के लिहाज़ से हिंदू था, निकाल बाहर किया तो काफ़ी गड़बड़ हुई। मगर जब उस की ‎जगह पर की गई, तो मुझे महसूस हुआ कि कलीदी आसामियाँ सब मुस्लमानों के पास हैं। मैं ‎था, शाहिद लतीफ़ था, इस्मत चुग़्ताई थी, कमाल अमरोही था, हसरत लखनवी था, नज़ीर ‎अजमेरी, नाज़िम पानी पति और म्यूज़िक डायरेक्टर ग़ुलाम हैदर थे। ये सब जमा हुए ‎तो हिंदू ओ कारकुनों में साविक वाचा और अशोक के ख़िलाफ़ नफ़रत के जज़्बात पैदा हो गए। ‎मैंने अशोक से इस का ज़िक्र किया तो हँसने लगा।

“मैं वाचा से कह दूँगा कि वो एक डाँट ‎पिला दे।” ‎


डाँट पिलाई गई तो इस का असर उल्टा हुआ। वाचा को गुमनाम ख़त मौसूल होने लगे कि ‎अगर उसने अपने स्टूडियो से मुसलमानों को बाहर न निकाला तो उस को आग लगा दी जाएगी ‎ये ख़त वाचा पढ़ता तो आग बगूला हो जाता।

“साले मुझसे कहते हैं कि मैं ग़लती पर हूँ… मैं ‎ग़लती पर हूँ… मैं ग़लती पर हूँ तो उन के बावा का किया जाता है… आग लगाएँ तो मैं उन ‎सबको इस में झोंक दूँगा।” ‎


अशोक का दिल-ओ-दिमाग़ फ़िर्का-वाराना तअस्सुब से बिलकुल पाक है। वो कभी उन ख़ुतूत पर ‎सोच ही नहीं सकता था। जिन पर आग लगाने की धमकियाँ देने वाले सोचते थे। वो मुझसे ‎हमेशा कहता।

“मंटो ये सब दीवानगी है… आहिस्ता-आहिस्ता दूर हो जाएगी।” ‎


मगर आहिस्ता-आहिस्ता दूर होने के बजाय ये दीवानगी बढ़ती ही चली जा रही थी… और मैं ‎ख़ुद को मुजरिम महसूस कर रहा था, इस लिए कि अशोक और वाचा मेरे दोस्त थे। वो मुझसे ‎मश्वरे लेते थे, इस लिए कि उनको मेरे ख़ुलूस पर भरोसा था। लेकिन मेरा ये ख़ुलूस मेरे अंदर ‎सिकुड़ रहा था… मैं सोचता था, अगर बम्बई टॉकीज़ को कुछ हो गया तो मैं अशोक और वाचा ‎को क्या मुँह दिखाऊँगा। ‎
फ़सादात ज़ोरों पर थे। एक दिन मैं और अशोक बंबई टॉकीज़ से वापस आ रहे थे। ‎रास्ते में उस के घर देर तक बैठे रहे। शाम को उसने कहा। चलो मैं तुम्हें छोड़ आऊँ… शॉर्ट ‎कट की ख़ातिर वो मोटर को एक ख़ालिस इस्लामी मोहल्ले में ले गया… सामने से एक बारात ‎आ रही थी। जब मैंने बैंड की आवाज़ सुनी, तो मेरे औसान ख़ता हो गए। एक दम अशोक का ‎हाथ पकड़ कर मैं चलाया।

“दादा मनी। ये तुम किधर आ निकले।” ‎


अशोक मेरा मतलब समझ गया। मुस्कुरा कर उसने कहा।

“कोई फ़िक्र न करो।” ‎


मैं क्यूँ कर फ़िक्र न करता। मोटर ऐसे इस्लामी मोहल्ले में थी जहाँ किसी हिंदू का गुज़र ही ‎नहीं हो सकता था। और अशोक को कौन नहीं पहचानता था। कौन नहीं जानता था कि वो हिंदू ‎है… एक बहुत बड़ा हिंदू जिसका क़त्ल मार्का-ख़ेज़ होता… मुझे अरबी ज़बान में कोई दुआ याद ‎नहीं थी। क़ुरआन की कोई मौज़ू-ओ-मुनासिब आयत भी नहीं आती थी। दिल ही में अपने ऊपर ‎लानतें भेज रहा था और धड़कते हुए दिल से अपनी ज़बान में बेजोड़ सी दुआ मांग रहा था कि ‎ऐ ख़ुदा मुझे सुर्ख़-रु रखियो… ऐसा न हो कोई मुसलमान अशोक को मार दे। और मैं सारी उम्र ‎उस का ख़ून अपनी गर्दन पर महसूस करता रहूँ। ये गर्दन क़ौम की नहीं मेरी अपनी गर्दन थी। ‎मगर ये ऐसी ज़लील हरकत के लिए दूसरी क़ौम के सामने नदामत की वजह से झुकना नहीं ‎चाहती। ‎
जब मोटर बारात के जुलूस के पास पहुँची तो लोगों ने चिल्लाना शुरू कर दिया।

“अशोक ‎कुमार… अशोक कुमार…”

मैं बिलकुल याख़ हो गया। अशोक स्टेरिंग पर हाथ रखे ख़ामोश था। ‎मैं ख़ौफ़-ओ-हिरास की यख़-बस्तगी से निकल कर हुजूम से ये कहने वाला था कि देखो होश ‎करो। मैं मुसलमान हूँ। ये मुझे मेरे घर छोड़ने जा रहा है… कि दो नौजवानों ने आगे बढ़कर ‎बड़े आराम से कहा।

“अशोक भाई अगला रास्ता नहीं मिलेगा। उधर बाजू की गली से चले ‎जाओ।”
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अशोक भाई? अशोक उनका भाई था। और मैं कौन था…? मैंने दफ़अतन अपने लिबास की ‎तरफ़ देखा जो खादी का था… मालूम नहीं उन्होंने मुझे क्या समझा होगा। मगर हो सकता है ‎कि उन्होंने अशोक की मौजूदगी में मुझे देखा ही न हो। ‎
मोटर जब उस इस्लामी मोहल्ले से निकली। तो मेरी जान में जान आई। मैंने अल्लाह का शुक्र ‎अदा किया तो अशोक हंसा।

“तुम ख़्वाह-मख़्वाह घबरा गए… आर्टिस्टों को ये लोग कुछ नहीं ‎कहा करते।”


चंद रोज़ बाद बम्बई टॉकीज़ में नज़ीर अजमेरी की कहानी (जो मजबूर के नाम से फ़िल्म बंद ‎हुई) पर मैंने जब कड़ी नुक्ता-चीनी और उस में कुछ तब्दीलियाँ करना चाहें, तो नज़ीर अजमेरी ‎ने अशोक और वाचा से कहा।

“मंटो को आप ऐसे मुबाहसों के दौरान में न बिठाया करें। वो ‎चूँकि ख़ुद अफ़्साना नवीस है इस लिए मुतअस्सिब है।” ‎


मैंने बहुत ग़ौर किया। कुछ समझ में न आया। आख़िर मैंने अपने आपसे कहा।

“मंटो भाई… ‎आगे रास्ता नहीं मिलेगा… मोटर रोक लो… उधर बाजू की गली से चले जाओ।” ‎


और मैं चुप-चाप बाजू की गली से पाकिस्तान चला आया जहाँ मेरे अफ़साने “ठंडा गोश्त” पर ‎मुक़द्दमा चलाया गया। ‎

(गंजे फरिश्ते) – सआदत हसन मंटो

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