
इलाहाबाद में पहली बार जगजीत सिंह (सुप्रसिद्ध गजल गायक) को आमंत्रित किया गया था। सारा शहर आंदोलित था। कार्यक्रम का पास प्राप्त करने की होड़ मची थी। कार्यक्रम का आयोजन ‘प्रयाग महोत्सव’ के नाम पर प्रशासन की तरफ से हो रहा था। लगता है अफसरों की बीवियों के अनुरोध पर कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। तमाम पास प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के बीच बँट गए थे। इलाहाबाद में पुलिस मुख्यालय, उच्च न्यायालय, शिक्षा निदेशालय आदि अनेक महत्वपूर्ण कार्यालय हैं, शहर में अधिकारियों की भरमार है। ऐसे में किसी भी महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिए प्रवेश पत्र प्राप्त करने की मारा-मारी मची रहती। कार्यक्रम का आयोजन मेहता संगीत समिति के हाल में किया गया था। हाल की क्षमता सीमित थी, मगर जगजीत के प्रशंसकों की संख्या असीमित थी। कार्यक्रम घोषित होते ही जगजीत के रिकार्डों और कैसेटों की बिक्री अचानक बढ़ गई थी। वह गजल गायकी की लोकप्रियता का प्रथम दौर था। हर कोई इस जुगाड़ में था कि किसी तरह जगजीत सिंह को रूबरू सुनने का अवसर प्राप्त हो जाए। जिन्होंने कभी जिंदगी में गजल न सुनी थी वह भी जगजीत को सुनने व देखने को आतुर थे। मेरे तमाम मित्र मेरे यहाँ जगजीत की गजलें और पंजाबी गीत सुन चुके थे। और मैं भी जगजीत के प्रति लोगों का अतिरिक्त उत्साह देख कर अपनी मित्रता की दुहाई देने लगा था। इलाहाबाद में जगजीत का कार्यक्रम घोषित हुआ तो सिर्फ दोस्त नहीं उनकी पत्नियाँ, प्रेमिकाएँ और भौजाइयाँ भी समारोह में प्रवेश पाने के लिए मुझसे संपर्क करने लगीं। अब मैं किसी को क्या बताता कि जब से इलाहाबाद आया हूँ, मेरा जगजीत से संपर्क नहीं है। जगजीत का सबसे अधिक आग्रह साउंड सिस्टम पर रहता है, उसके प्रति आश्वस्त होने के बाद ही वह कार्यक्रम स्वीकार करता था। कुछ ऐसी ही तकनीकी विवशताओं के कारण कार्यक्रम हाल में रखा गया था, वरना श्रोताओं में इतना उत्साह था कि संगीत समिति का मुक्तांगन भर जाता, जिसमें हजारों लोग समा सकते थे। प्रवेश केवल आमंत्रित लोगों के लिए खुला था और शहर के बहुत से रईसजादे पैसे खर्च करके भी प्रवेश पत्र प्राप्त नहीं कर सकते थे। ज्यादातर पास प्रशासन, पुलिस और पत्रकारों और उनके चहेतों में ही बँट गए थे।
जगजीत मेरा कॉलिज के दिनों का साथी था। मुझसे एक-दो वर्ष जूनियर ही रहा होगा, मगर मैं तमाम लोगों को यही बताता था कि मेरा सहपाठी था। संगीत का शौक उसे कॉलिज के दिनों से था। मैं डी.ए.वी. कॉलिज स्टूडेंट्स कांउसिल का अध्यक्ष निर्वाचित हो गया तो अक्सर अंतर्विश्वविद्यालयीय संगीत प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए वह मुझसे संपर्क करता। वह दूर-दूर से कॉलिज के लिए संगीत प्रतियोगिताओं से ट्रॉफी जीत कर लाता। अर्द्धशास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में उसने प्रदेश के तमाम संस्थानों पर अपने और कॉलिज के झंडे फहरा दिए थे। कॉलिज के दिनों से ही वह संगीत को समर्पित हो गया था। शहर के पत्रकारों, और कवियों, शायरों से उसकी मित्रता होना स्वाभाविक था। शाम को सब लोग कॉफी हाउस में इकट्ठा होते। पंजाबी कवियों और शायरों की कोशिश रहती कि जगजीत उनका कोई गीत और गजल गा दे। सुदर्शन फ़ाकिर भी डी.ए.वी. कॉलिज का ही छात्र था। कृष्ण अदीब, शिवकुमार बटालवी, कुमार विकल, नरेश कुमार शाद, प्रेम बारबरटनी वगैरह जालंधर आते तो शाम को कॉफी हाउस में महफिल जमती। बाद में सुदर्शन फ़ाकिर और कृष्ण अदीब की कई गजलें बेगम अख्तर, रफी आदि विख्यात कलाकारों ने भी गाईं। प्रेम बारबरटनी ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। बेगम अख़्तर ने तो अपने अंतिम दिनों में ज्यादातर फ़ाकिर की ही गजलें गाईं। ये तमाम लोग काफ़ी हाउस जालंधर की ही पैदावार थे। तब किसी ने कल्पना न की होगी कि ये लोग इतनी ऊँची उड़ान भरेंगे। उन दिनों तो हम सभी लोग साथ-साथ चप्पल चटकाते हुए आवारगी करते थे। फ़ाकिर का कमरा एक मुसाफिरखाने की तरह था, बाहर से आनेवाले शायर लोग भी उसी में पनाह लेते थे। वहाँ हर वक्त लंगर खुला रहता था, नीचे ढाबा था, कोई भी सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले मनमुआफिक भोजन का आदेश कर आता था।
बाद में जब कई वर्ष बाद मैं मुंबई से शादी के बाद जालंधर पहुँचा तो पाया फ़ाकिर की जीवन शैली में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया था। वह आकाशवाणी जालंधर से स्क्रिप्ट राइटर के रूप में संबद्ध हो गया था। वह राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी था, मगर उसकी दिलचस्पी सिर्फ साहित्य में थी, साहित्य में कम सिर्फ गजल में। उन्हीं दिनों हिंदी के विख्यात कवि गिरिजाकुमार माथुर आकाशवाणी के केंद्र निदेशक हो कर जालंधर आ गए थे। जिन दिनों मैं जालंधर पहुँचा माथुर साहब और फ़ाकिर में ऐसी ठन गई थी कि दोनों एक दूसरे के खून से प्यासे हो गए थे। माथुर केंद्र निदेशक थे और फ़ाकिर फकत स्क्रिप्ट राइटर। दोनों ने एक दूसरे का जीना हराम कर रखा था। फ़ाकिर से ही मालूम पड़ा कि केंद्र निदेशक उसे नौकरी से निकलवाने पर आमादा हैं। गिरिजाकुमार माथुर की भारती जी से बहुत पटती थी और भारती जी ने मुझे उनसे मिल कर आने को कहा था। मैंने फोन पर उनसे समय लिया। माथुर साहब ने उसी शाम मिलने की इच्छा प्रकट की, डिनर पर। मैं और ममता उनके यहाँ पहुँचे। सोचा, वक्त मिलते ही फ़ाकिर की बात करूँगा और दोनों में सुलह-सफाई करवा दूँगा। हम लोग पहुँचे तो उनके बँगले की बत्ती गुल थी। उन्होंने बाहर लॉन में कुर्सियाँ डलवाईं और हम लोग बाहर आ बैठे। इस बीच उन्होंने कुछ कविताएँ लिखी थीं और वह एक नवोदित कवि की तरह कविताएँ सुनाने को मचलने लगे। उन्होनें अत्यंत स्नेहपूर्वक शकुंतला माथुर को बाहर मेज पर मोमबत्ती जलाने को कहा और वह टार्च की रोशनी में भीतर गईं और मोमबत्ती का स्टैंड उठा लाईं। साथ में वह अपनी कविताओं की भी कॉपी उठा लाईं। मुझे मच्छर बहुत काटते हैं, अभी काव्यपाठ शुरू नहीं हुआ था कि मुझे मच्छरों ने सताना शुरू कर दिया। कभी बाँह पर काट जाए और कभी पैरों पर। माथुर जी अत्यंत तन्मयता से काव्य पाठ करने लगे मगर मेरे कान में मच्छर भिनभिना रहे थे। मैं कभी बाँह पर हाथ मारता, कभी पैर पर, कभी कान पर से मच्छर उड़ाता। उस दिन मच्छर भी जैसे मेरे पीछे पड़ गए थे। माथुर जी को इस की परवाह नहीं थी, वह धाराप्रवाह एक के बाद दूसरी कविता सुनाते रहे। कैंडिल लाइट जब मद्धम पड़ने लगी माथुर जी ने टॉर्च जला कर कविताएँ पढ़ना जारी रखा। हम लोगों ने जी भर कर कविताएँ सुनी। माथुर साहब ने इतनी कविता सुना दीं कि शकुंतला जी ने अपनी कविताएँ सुनाने का इरादा तर्क कर दिया। अच्छा ही किया। मैंने मन ही मन उनके निर्णय की दाद दी। इस बीच बत्ती आ गई थी और वह डाइनिंग टेबिल पर भोजन परोसने लगीं। मुझे लगा, वह गृहिणी पहले हैं और कवि बाद में। हो सकता है उन्होंने लक्षित कर लिया हो कि मेरा ध्यान कविताओं पर कम मच्छरों पर ज्यादा था। माथुर साहब तरंग में थे। काव्य पाठ के बाद वह सस्वर गीत सुनाने लगे। इस बीच मोमबत्ती जम कर मोम हो चुकी थी, मगर माथुर साहब की कविताओं का क्रम भंग न हुआ।
बीच में मौका पाते ही मैंने फ़ाकिर का जिक्र किया तो वह तमाम शायरी भूल कर उसका कच्चा-चिट्ठा खोलने लगे कि वह तो शराब पी कर स्टूडियो में चला जाता है। उसने और उसके कुछ आवारा साथियों ने आकाशवाणी का माहौल दूषित कर रखा है, मगर वह भी उसे सबक सिखा कर ही रहेंगे। तभी उन्हें अपनी कुछ भूली-बिसरी पंक्तियाँ याद आ जातीं तो वह फ़ाकिर को भूल जाते। मैंने अनेक बार कोशिश की कि उन्हें फ़ाकिर के बारे में बताऊँ कि वह एक फकीर आदमी है, नौकरी भी उसके लिए महज शगल है। नौकरी उसकी न प्राथमिकता रही है न आवश्यकता। वह एक अत्यंत समृद्ध परिवार से ताल्लुक रखता था। जालंधर में ही उसकी बहन की आलीशान कोठी थी, पिक्चर हाउस था, फार्म था। उसके पिता फीरोजपुर के जाने-माने डॉक्टर थे और सिविल सर्जन थे। समूचा परिवार उसकी शायरी से परेशान रहता था, मगर माथुर साहब की निगाह में वह फकत एक स्क्रिप्ट राइटर था। उन्हें शायद यह भी मालूम नहीं था कि वह उर्दू का एक उभरता हुआ शायर था। शायर भी ऐसा जो न अपनी रचनाएँ कहीं छपने भेजता था और न किसी मुशायरे में जाता था, मगर पंजाब भर के शायरों का वह चहेता शायर था। उन्होंने भी उस समय कल्पना न की होगी कि एक दिन देश के मूर्द्धन्य गायक उसकी गजलों को अपनी आवाज देंगे। मैंने खाने की टेबिल पर भी दो-एक बार फ़ाकिर का जिक्र किया, मगर माथुर साहब उसका नाम सुनते ही भड़क जाते। अंत में शायद उन्होंने फ़ाकिर को नौकरी से निलंबित भी करा दिया था। एक लिहाज से यह फ़ाकिर के लिए अच्छा ही हुआ और वह आकाशवाणी की टुच्ची राजनीति और संकीर्ण दुनिया से बदजन हो कर मुंबई रवाना हो गया। जब तक फ़ाकिर मुंबई पहुँचता मैं वहाँ से इलाहाबाद के लिए रवाना हो चुका था। वह दिन और आज का दिन फ़ाकिर की मुझसे फिर भेंट न हुई।
मुंबई में मेरी जगजीत से अक्सर कहीं न कहीं भेंट हो जाती। वह उसके संघर्ष का दौर था। मुंबई में रोज देश भर से सैकड़ों कलाकार आते हैं, मगर सफलता कुछ एक को ही हासिल होती है। ज्यादातर लोग बर्बाद हो कर या टूट कर वापिस लौट जाते हैं या वहीं संघर्ष करते हुए तबाह हो जाते हैं। जगजीत सिंह के लिए वे परीक्षा के दिन थे। एक दिन लोकल में उससे भेंट हो गई। वह बहुत परेशान दिखाई दे रहा था। उसके पास आवास की संतोषजनक व्यवस्था न थी। उसने कहा कि मैं किसी लॉज में उसे जगह दिलवा दूँ। तब तक मुंबई में मेरे पैर जम चुके थे। शिवाजी पार्क में रानाडे रोड पर हमारे घर के सामने ही एक लॉज थी। मेरे दोस्त ओबी का उस लॉज के मालिक से दोस्ताना था। मैंने वादा किया कि उसके आवास की व्यवस्था कर दूँगा। ओबी ने चुटकियों में उसकी समस्या हल कर दी। तब तक न मुझे और न ओबी और न उस लॉज मालिक को एहसास था कि यही जगजीत एक दिन मुंबई क्या पूरे देश का लाडला बन जाएगा। मुंबई में ट्रेन में ही उससे कभी-कभार मुलाकात हो जाती और उसकी खैरियत मिल जाती।
इलाहाबाद में जगजीत का कोई नया रिकार्ड आता तो रेखी साहब फोन पर मुझे इसकी सूचना देते। मैं उसी समय सब कामकाज बीच में छोड़ कर जानसेनगंज ‘रेखी ब्रदर्स’ के शो रूम में पहुँच जाता। रेखी साहब ने मुझे अनेक दुर्लभ रिकार्ड उपलब्ध करवाए थे, उनमें फैज़ अहमद ‘फैज़’ के भी रिकार्ड थे। वह शहर के सबसे प्रतिष्ठित संगीत विक्रेता थे। सन चौरासी के दंगों में दंगाइयों ने उनकी दुकान को आग लगा दी और दुकान पर लूट-पाट भी हो गई। मैं उन दिनों दिल्ली में था, लौट कर आया तो ग्लानि हुई और सदमा लगा कि सांप्रदायिकता की आग में संगीत के एक पारखी को भी सांप्रदायिक जुनून का शिकार होना पड़ा। रेखी साहब का मन इस धंधे से उचट गया और उन्होंने इस व्यवसाय को ही छोड़ दिया। रेखी साहब की मदद से मैंने बेगम अख्तर, सहगल, जगजीत सिंह वगैरह के तमाम रिकार्ड हासिल कर लिए थे। उन दिनों स्टीरियो सिस्टम नया-नया बाजार में आया था। रेखी साहब ने मुझे ‘गेरर्ड’ का चेंजर और ‘सोनोडॉइन’ के स्पीकर दिलवाए थे। जगजीत का रिकार्ड बजता तो तमाम कमरे में धुएँ की तरह उसकी आवाज भर जाती। मैं हर मिलने-जुलनेवाले को ध्वनि का यह अद्भुत चमत्कार दिखाता। एक स्पीकर पर आवाज आती और दूसरे से वाद्ययंत्रों की धुनें उठतीं। उन दिनों स्टीरियो पर गजल सुनने का आनंद ही दूसरा था। अब तो खैर वह सिस्टम पुराना पड़ चुका है, लुप्तप्राय हो चुका है, उसका स्थान सीडी सिस्टम ने ले लिया है, और मेरी मेहनत से तैयार की गई संगीत की लायब्रेरी अप्रासंगिक हो चुकी है और वे रिकार्ड आलमारी में धूल चाट रहे हैं, जिन्हें मैं किसी को छूने भी न देता था। अब डिजिटल रिकार्डिंग का जमाना है।
शहर में जगजीत सिंह के कार्यक्रम का प्रवेश पत्र प्राप्त करने की होड़ मची थी, मगर मेरे मित्र आश्वस्त थे कि मेरे रहते उन्हें कार्यक्रम में प्रवेश पाने में कोई दिक्कत न होगी। अब तक मैं अपने और जगजीत के संबंधों की इतनी डुगडुगी पीट चुका था कि मेरे लिए भी हामी भरने के अलावा कोई चारा न था। एक सोए हुए सुप्त निश्चेष्ट संबंध को यकायक सक्रिय करना मुझे अटपटा व दुःसाध्य कार्य लग रहा था, मगर मेरे सामने कोई दूसरा विकल्प न बचा था। मैंने खुद ही अपना सर ओखली में दिया था।
मैंने अपने पत्रकार मित्रों को ताकीद कर दी कि वह जगजीत के शहर में उतरते ही सूचना दें कि वह किस होटल में रुका है। दोपहर बाद सूचना मिली कि उसके ठहरने की व्यवस्था हाईकोर्ट के सामने एक होटल में की गई है। उसके दल-बल सहित होटल में पहुँचते ही मैंने अधिकारपूर्वक होटल का फोन मिलाया। होटल के जितने नंबर थे, सब व्यस्त हो गए थे। फोन घुमाते-घुमाते अँगुलियाँ थक गईं। घंटी जाती भी तो पता चलता गलत नंबर मिल गया है। कोई आध घंटे के संघर्ष के बाद होटल का फोन मिला।
‘हैलो, होटल विश्रांत।’
‘जगजीत सिंह यहीं ठहरें हैं?’ मैंने पूछा।
‘हाँ, अभी आराम फरमा रहे हैं।’
‘मैं रवींद्र कालिया बोल रहा हूँ, उनका दोस्त। उन्हें फोन दीजिए।’
‘इस समय मुमकिन नहीं।’ उधर से बेरुखी से किसी ने कहा।
मुझे बहुत तेज गुस्सा आया, ‘आप समझ नहीं रहे हैं, मैं उसका बचपन का दोस्त हूँ। उसे फोन दीजिए।’
‘सॉरी सर।’ उसने कहा और फोन रख दिया।
मैं दुबारा फोन मिलाने में जुट गया। इस बार बहुत आसानी से फोन मिल गया। देर तक घंटी जाती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया। बहुत देर बाद किसी ने जैसे अनिच्छापूर्वक फोन उठाया – ‘होटल विश्रांत।’
‘फोन पर आने के लिए शुक्रिया।’ मैंने कहा, ‘जरा जगजीत सिंह को फोन दीजिए।’
‘आप कौन साहब बोल रहे हैं।’ किसी ने तमीज से पूछा।
‘रवींद्र कालिया।’ मैंने संक्षिप्त जवाब दिया, जैसे यह किसी तोप का नाम हो, जो इसे नहीं जानता वह महामूर्ख है।
‘उनसे क्या कहना होगा?’
‘नाम बताना काफी होगा।’
‘मुआफ कीजिए आप कौन हैं?’
‘मैं उनका दोस्त हूँ।’
‘अब तक उनके बीसियों दोस्तों, अंकलों, आंटियों के फोन आ चुके हैं। शहर में उनकी कोई रिश्तेदारी नहीं।’
‘मैं रिश्तेदार नहीं, दोस्त हूँ, उन्हें फोन दीजिए, वरना…।’
‘वरना क्या?’
‘अपना नाम बताइए।’
‘क्या कर लेंगे आप। कह दिया न कि वह किसी से बात नहीं करेंगे।’ मेरा जवाब सुने बगैर उसने फोन रख दिया।
मैंने बहुत बेबसी से ममता की तरफ देखा। वह भी मेरी विडंबना समझ रही थी।
‘बोतल लाओ।’ मैंने कहा। हर शिकस्त के बाद मुझे बोतल ही सहारा देती थी। जब तक मैं पेग ढालता फोन बजता रहा। मेरे मित्र लोग मुझसे ज्यादा बेचैन हो रहे थे। हर कोई यह पूछता, ‘कब चलेंगे?’
मेरी स्थिति अत्यंत हास्यास्पद होती जा रही थी। सूरज डूब चुका था। वैसे भी यह मेरी कारसेवा का समय होता है। ऐसे में मैं किसी भी बाह्य हस्तक्षेप से गुरेज करता था। लग रहा था, आज की शाम बर्बाद हो जाएगी। मैंने ममता से कहा, सबसे संगीत समिति के गेट पर मिलने को कहो। दूसरों की बात दरकिनार वह खुद चलने के लिए बेकरार हो रही थी। मैंने जल्दी से दो-एक पेग चढ़ाए और ममता से कहा, ‘वहीं होटल में जा कर मिलते हैं।’
होटल पहुँचे तो बाहर लोगों का भारी हूजूम था। पुलिस लग गई थी और भीड़ को नियंत्रित कर रही थी। गेट के पास ही पुलिस की एक जीप खड़ी थी। संयोग से उपनगर अधीक्षक उसमें बैठे थे, जो मेरी पहचान के निकल आए। उन्होंने एक सिपाही साथ कर दिया, जिसने होटल का गेट खुलवा कर हमें भीतर कर दिया। भीतर भी लोगों की अच्छी-खासी भीड़ थी। भीतर पहुँच कर लगा जैसे कोई किला फतेह करके यहाँ तक पहुँचे हैं। भीतर लड़के-लड़कियों और शहर के प्रभावशाली लोगों की भीड़ थी। अफसरों की बीवियाँ, उनके चमचे और अखबारों के संवाददाता और छायाकार मुस्तैद नजर आ रहे थे। एक कमरे के सामने छायाकारों की भीड़ देख कर सहज की अनुमान हो गया कि वी.आई.पी. उसी कमरे में हैं। कमरे के किवाड़ बंद थे। मुझे एक प्रशंसक की तरह वहाँ लाइन में लगना बहुत अपमानजनक लग रहा था। मगर इसके अलावा और कोई चारा भी न था। मुझे यह एहसास होते देर न लगी कि वह अब पुराना जगजीत सिंह नहीं रहा, वह एक स्टार बन चुका है। उसके कमरे के किवाड़ ऐसे बंद थे कि वह कभी खुलेंगे ही नहीं और वह छत फाड़ कर संगीत समिति पहुँच जाएगा। दीवानों की इस भीड़ में मैं अपने को बहुत निरुपाय, अटपटा और अनुपयुक्त अनुभव कर रहा था कि अचानक दरवाजा खुला। कमरे से कुछ साजिंदे निकले और पोर्च में खड़ी कार मैं बैठ गए। एक बैरा ट्रे में मिनरल वाटर की बोतलें और गिलास लिए कमरे में घुस गया। उसके वापिस आते ही किवाड़ फिर बंद हो गए। दरवाजे पर एक सिपाही तैनात हो गया।
अँधेरा घिरने लगा था और मेरा हलक सूख रहा था। एक बार तो जी में आया, चुपचाप घर लौट चलूँ, यह खेल तमाशा मेरे वश का नहीं है, मगर मैंने अपने गले में खुद ही एक फंदा लगा लिया था और अब उससे मुक्ति संभव न थी। जाने कितने मित्र संगीत समिति के बाहर जगजीत सिंह से ज्यादा मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। तभी एक लाल बत्तीवाली एंबेसडर पोर्च में आ कर रुकी। ए.डी.एम. सिटी कैप्टन द्विवेदी उसमें से उतरे। संयोग से वह भी मेरे मित्र थे। गाड़ी से उतर कर उन्होंने चारों तरफ नजर दौड़ाई। मुझे देख कर हाथ हिलाया और जगजीत सिंह के कमरे में घुस गए। मैं दूर खड़ा था, वरना उनके साथ हो लेता। कमरे के किवाड़ एक बार फिर खुले। इस बार जगजीत सिंह और चित्रा नमूदार हुए। लोगों में हलचल मच गई। ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ आगे बढ़ी। जगजीत और चित्रा गाड़ी की तरफ कदम बढ़ाते हुए ऑटोग्राफ देने लगे। मैंने यही वक्त मुनासिब समझा और वहीं खड़े-खड़े पंजाबी की एक भारी भरकम गाली के साथ चिल्लाते हुए आवाज दी, ‘जगजीत!’ जगजीत ने मेरी तरफ देखा और मुस्कुराते हुए हाथ हिलाया। मैं और ममता भीड़ को चीरते हुए गाड़ी तक पहुँचे। जगजीत ने हम दोनों को गाड़ी में घुसने का इशारा किया। साथ में चित्रा थीं। हम चारों पिछली सीट पर बैठ गए। अगली सीट पर गार्ड बैठा था। कैप्टन द्विवेदी ने उसे पीछे की गाड़ी में आने का संकेत दिया और खुद ड्राइवर की बगल में बैठ गए। गाड़ी भीड़ को चीरती हुई फुर्र से संगीत समिति की तरफ दौड़ने लगी। समय बहुत कम था, फिजूल की औपचारिकता में पड़ने के बजाए मैंने जगजीत को अपने विडंबना बताई। उसने तुरंत आश्वासन दिया कि इंतजाम हो जाएगा। जगजीत ने कन्सर्ट के बाद साथ चलने और साथ में भोजन करने का निमंत्रण भी दिया। मेरी जान में जान आई। किसी तरह लाज बची। संगीत समिति के गेट पर ही हम लोग उतर गए। मेरे दोस्तों के चेहरे पर छाई निराशा मुझे जगजीत के साथ उतरते देख आशा में तब्दील हो गई। मैं तमाम दोस्तों को भीतर ले जाने में सफल हो गया, मगर इस दौरान जिस तनाव, यंत्रणा और पीड़ा से गुजरा था, उसे देखते हुए एक बार फिर तीसरी कसम खाई कि मेरा कोई मित्र कभी गलती से प्रधानमंत्री भी हो गया तो कानों-कान किसी को इसकी भनक न लगने दूँगा। मैंने कहाँ तक इस कसम का पालन किया, कह नहीं सकता, मगर इतना जरूर हुआ कि अपने अतिरिक्त उत्साह पर अंकुश लगाना सीख गया। इस सारी दौड़धूप में मैं इतना निढाल हो गया था कि जगजीत ने क्या सुनाया, कुछ याद नहीं रहा।
होटल लौट कर हम लोगों ने साथ-साथ भोजन किया। जगजीत ने विधिवत चित्रा व साजिंदों से हमारा परिचय करवाया। नशे में मैंने जाने किस झोंक में चित्रा को सलाह दे डाली कि वह गजल गाना बंद कर दे और रवींद्र संगीत गाया करें। मेरी बात से चित्रा तो मुस्कराने लगीं, मगर साजिंदे मुझसे खफा हो गए। उन्हें जानते देर न लगी होगी कि यह मेरी अनधिकार चेष्टा थी। हम लोग खुशी-खुशी घर लौटे, खुशी की एक वजह यह भी थी कि मैं पी कर इससे भी ज्यादा गुस्ताख हो सकता था। ममता संतुष्ट थी कि मैं ज्यादा अनियंत्रित नहीं हुआ।
[ ग़ालिब छुटी शराब – रवीन्द्र कालिया]
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