अंततः कविराज, जैसे कि पढ़ाई के जमाने से ही वे सहपाठियों में पुकारे जाते थे, की पहली पुस्तक प्रकाशित हो ही गयी। सालों लग गए इस पुण्य कार्य को फलीभूत होने में पर न होने से देर से होना बेहतर!

पहले कम्प्यूटर इंजीनियरिंग और बाद में मैनेजमेंट की पढ़ाई करके प्रबंधन के क्षेत्र में झण्डे गाड़ने की व्यस्तता के कारण उन्हे ऐसा मौका नहीं मिल पाया कि वे किताब प्रकाशित करा पाते । पर एक दिन किताब छपवाने का ख्याल फिर से आ गया तो उसने जाने का नाम ही नहीं लिया। सिर पर चढ़ाई करके बैठ ही गया विचार कि इससे पहले कि तुम और गंजे हो जाओ किताब छपवा लो तो बस विचार के आगे समर्पण करके उन्होने अपने पुराने हस्तलिखित कागज ढूँढे। हिन्दी में लिखी कविताओं का अनुवाद अंगरेजी में किया, हिन्दी में टाइप करना सीखा और युद्ध स्तर पर कम्प्यूटर में अपनी पुरानी कवितायें हिन्दी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं में टाइप करके संग्रहित कर दीं।

कबीर की उलटबांसियों के घनघोर प्रशंसक थे वे, और विरोधाभासी बातें एक ही कविता में कहना कविराज के कवित्व का एक विशेष गुण रहा है और इसीलिये उन्होंने अपनी किताब का शीर्षक भी ’रेगिस्तानी हिमपात’ रखा ( उनकी पुस्तक के शीर्षक के रहस्य को जगजाहिर करना मुनासिब न होगा, यही एक शीर्षक उनके असल शीर्षक के भाव के इतना नजदीक है जैसे सौरमंडल के अन्य सदस्यों के बनिस्पत धरती से चंद्रमा) ।

तब हॉस्टल के काल में वे बैठे बैठे, चलते चलते, नहाते नहाते, खाते खाते कवितायें उवाचते रहते थे, बल्कि सार दर साल बदलते रहने वाले उनके हरेक रुम मेट का यही कहना था कि यह बंदा नींद में भी कवितायें गढ़ता रहता है।

एक बार होली के अत्यंत अल्पकालिक दो दिवसीय अवकाश में मित्रो ने किसी अवसर पर खुद खाना बनाने का आयोजन किया तो प्याज काटते काटते कविराज के मुख से तान उठ गई और सुर झड़ने लगे।

नैनों में अश्रु आये प्याज जो काटी हाये

ऐसे में कोई आके मोहे चश्मा लगा दे

कविता में कैसी भी तुकबंदी कर दें पर कविराज गाते बहुत अच्छा थे। किशोर कुमार के गीत को उनके जैसी आवाज में खुले गले से गाने की कोशिश करते और मुकेश के गीत को उनके जैसी विधा में।

वैसे तुकबंदी की प्रेरणा उन्हे अभिनेता प्राण से मिली। हुआ यूँ कि उन्होने “दिल दिया दर्द लिया” फिल्म देखी और प्राण के बचपन की भूमिका निभाने वाले बाल कलाकार के मुख से निकले एक काव्यात्मक नारे ने उन्हे बहुत लुभाया था। वह पात्र दूध लेकर आये नौकर से गाकर कहा करता था

दूध नहीं पीना तेरा खून पीना है

कविराज को भी बचपन से ही दूध नापसंद था सो स्पष्ट है कि उन्हें उपरोक्त्त नारा पसंद आना ही था। हाँ खून पीने की बात उन्हे पसंद न आयी थी। सो उन्होने उसकी जगह चाय रख दी थी और अक्सर वे गुनगुनाते थे।

दूध नहीं पीना मुझे चाय पीनी है।

और भी तमाम फिल्मों में प्राण कुछ न कुछ काव्यात्मक तकियाकलाम बोला करते थे और उनके अभिनय की यही बात कविराज को लुभा गयी। बाद में उन्होने प्राण के तरीके से ही बड़े अभ्यास के बाद सिगरेट के धुंये से हवा में छल्ले बनाना सीख लिया। हालाँकि वे धुम्रपान नहीं करते थे पर ऐसा करने वाले साथियों से कहते थे कि जब थोड़ी सी सिगरेट रह जाये तो मुझे छल्लों की प्रेक्टिस के लिये दे देना।

बकौल कविराज, कविता रचने के प्रति उनका प्रेम जीवन के पहले पहले प्रेम के कारण ही पनपा। आठवीं कक्षा में पढ़ते रहे होंगे, जब साइकिल से स्कूल जाते हुये उन्हे एक अन्य स्कूल की छात्रा से प्रेम हो गया। उनकी साइकिल बिल्कुल उसी गति और तरीके से चलने लगी जिस तरह से उस लड़की की साइकिल के पहिये चलायमान रहते।

घर में कविराज के प्रोफ़ेसर पिता भी आरामकुर्सी पर आँखें बंद करके “देखा देखी बलम हुयी जाए” गाती हुयी बेग़म अख्तर की आवाज में घंटों खोये रहते थे।

प्रेम का जीन तो पक्का ही पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदा रहता है!

कविराज का प्रेम जब देखादेखी की हदों में सिमटने से इंकार करने लगा और पढ़ते हुये कॉपी किताबों के पन्नों में भी तथाकथित प्रेमिका का चेहरा दिखायी देने लगा और बैठे बैठे वे उसके ख्याल में खो जाने लगे तो उन्हे प्रेरणा मिली प्रेम पत्र लिखने की। कायदे से यही उनकी स्वयं की रची पहली रचना थी। दुनिया के बहुत बड़े बड़े लेखकों के लेखन की शुरुआत प्रेम पत्र लिखने से ही हुयी है।

तो शुरुआत उनकी गद्य से हुयी। करुण हास्य का बोध उन्हें इस प्रेम गाथा से गुजरने के बाद ही हुआ। बाद में वे खुद ही चटकारे लेकर अपने पहले प्यार की पहली चिट्ठी का हाथों लिखा और आँखों देखा हाल सुनाया करते थे।

कुछ पंक्त्तियाँ तो अभी भी याद आती हैं। उस जमाने में उन्हें लड़की की नाक बहुत पसंद थी। मुमताज़, नताशा सिन्हा जैसी अभिनेत्रियाँ उनकी पसंदीदा नायिकायें होती थीं, जिनकी नाक सामान्य से थोड़ा हट कर हो, और उनके जैसी ही नाक उस लड़की की भी थी। पत्र में उसके प्रति प्रेम को विस्तार से स्वीकारने की औपचारिकता के बाद उन्होने अपनी कल्पनाओं को प्रदर्शित करते हुये लिखा था कि वे उसकी नाक को अपनी नाक से छूना चाहते हैं।

तब उन्हें पता न था कि संसार के बहुत सारी ट्राइब ऐसी हैं जहाँ लोग नाक से नाक छुआकर प्रेम को प्रदर्शित करते हैं|

हंसते हुये लड़की के गाल सुर्ख लाल हो जाया करते थे और उनके अनुसार उन्हें लाल अमरुद याद आ जाते थे। दुनिया के बहुत सारे लोगों की तरह उन्हें भी बचपन में सफेद से ज्यादा लाल रंग वाले अमरुद बहुत ज्यादा आकर्षित करते थे। लाल अमरुद उनके अंदर सौंदर्य बोध जगाता था जैसे कि बसंत में टेसू के फूल भी उन्हे आह्लादित कर जाते थे। नदी किनारे लगे अमलतास के पेड़ तो उन्हे इतना आकर्षित करते थे कि बहुत बार पेड़ से लटकी फूलों की झालरें तोड़ने के चक्कर में वे नीचे नदी में गिर चुके थे। तैरना उन्हे थोड़ा बहुत पहले से आता था पर तैरने में कुशलता तो उन्होने अपनी इसी हरकत से हासिल की।

कहने का तात्पर्य यह है कि बचपन से ही वे कुदरती तौर पर एक प्रेमी थे। अपनी इस प्रकृति की शेखी में वे निहायत गंभीर होकर अंग्रेजी में कहा करते थे,” You know! By nature, I have always been a die-hard romantic, and I will be a romantic till the last breath of my life”.

ऐसे वे हुआ करते थे। अभी भी हैं जब अमेरिकी धरती पर अपनी तकनीकी एवं प्रबंधन की कुशलता के झंडे गाड़ दुनिया में नाम कमा चुके हैं|

प्रेम करना या प्रेम में होना उनके लिये बहुत जरुरी था। वे कहते भी थे और बहुत सारे मित्र इस बात से इत्तेफाक रखते थे कि भारत नामक देश में, खासकर हिन्दी भाषी प्रदेशों में, युवा लोग दो इच्छाओं का तहेदिल से पीछा करते हैं- एक किसी लड़की से प्रेम करना और दूसरी, आई.ए.एस बनना। दूसरी इच्छा बहुत कठिन श्रम माँगती है तो उसे सम्भालने के लिये और जीवन की अन्य कठिनाइयों से उत्पन्न ऋणात्मक ऊर्जा को सम्भालने के लिये युवा प्रेम में आसरा खोजा करते थे। आजकल भी खोजा करते होंगे बस प्रेम अब कागजी और हवाई न रहकर देह से ज्यादा जुड़ गया है और अब प्लेटोनिक प्रेम डायनासोर की भांति किस्से कहानियों की कल्पनाओं का विषय बन गया है और सच्चाई के ठोस धरातल पर युवागण “50 Shades of Grey” के ग्रन्थ में अपनी ओर से कुछ और शेड्स जोड़ देने की फिराक में रहते हैं|

बहरहाल कविराज ने कॉपी से पन्ने फाड़कर एक लम्बा सा रुक्का लिखा जिसमें उन्होंने अपने पहले प्यार की पहली चिट्ठी में अपनी सारी भावनायें बहा दीं और कई दिनों तक मौका तलाशते रहे कि लड़की उन्हें कहीं मिनट भर को ही सही पर अकेली मिल जाये। एक दिन सुबह स्कूल जाते हुये उन्हें ऐसा मौका मिल भी गया और उन्होने शीघ्रता से अपनी साइकिल लड़की की साइकिल के नजदीक लाकर रेलगाड़ी की रफतार से धड़कते दिल के साथ पत्र जेब से निकाला और हकलाते हुये लड़की से कहा,” तुम्हारे लिये है पढ़ लेना“।

चेहरा उनका, मारे डर के लाल हो चुका था। पत्र को उसके हाथों में थमाकर उन्होंने सरपट साइकिल दौड़ा दी।

दोपहर बाद स्कूल से लौटते हुये उसी जगह जहाँ उन्होंने लड़की को पत्र सौंपा था एक बलिष्ठ युवक ने उन्हें रोक लिया।

संयोग की बात कि इस घटना से पहले दिन उनके अंग्रेजी के अध्यापक ने सबको Aftermath शब्द का अर्थ समझाया था पर कविराज उसे समझ नहीं पाये थे। हो सकता है कि उनका अंतर्मन प्रेमिका के ख्यालों में गुम हो और उनकी इंद्रियाँ ज्ञान ग्रहण न कर पायीं। पर उस युवक के रोके जाने के बाद हुई घटना और उसके बाद मन में उठने वाले भावों ने उन्हें अंग्रेजी के शब्द का अर्थ बखूबी समझा दिया। कहते भी हैं कि जीवन में स्वयं के अनुभव का ही सबसे बड़ा महत्व है, महात्मा बुद्ध ने भी कहा, अप्प दीपो भव:| अपनी दीपक आप बनो, स्वंय के भीतर ज्ञान का प्रकाश जन्माओ|

उस शाम उनके विचलित मन में प्रथम बार काव्य का प्रस्फुटन हुआ और उन्हें कक्षा में पढ़ी काव्य पंक्तियों के अर्थ ऐसे समझ में आने लगे जैसे उनकी कुंडलिनी जाग्रत हो गयी हो।

वियोगी होगा पहला कवि विरह से उपजा होगा गान

जैसी पंक्त्तियों ने उनसे कहलवाया

वियोगी ही बन पाते हैं कवि, विरह से ही उपजता है ज्ञान

तो उपरोक्त्त पंक्ति उनके द्वारा रची गयी पहली काव्यात्मक पंक्त्ति थी। पूरे चौबीस घंटे उनका दिमाग किसी और ही दुनिया में विचरण करता रहा। फिर जाने क्या हुआ कि उन्हें करुण – हास्य जैसे मिश्रित भाव का बोध होने लगा। अगली रात के करीब दो बजे होंगे, जब पूरे मोहल्ले में शायद वे ही जाग रहे थे, उन्होंने सिनेमा के परदे पर भावनात्मक रुप से लुटने-पिटने के बाद एक अजीब सी मोहक मुस्कान फेंकने वाले राज कपूर की भांति एक मुस्कान अपने चेहरे पर महसूस की और उनके हाथों में थमी कलम सामने मेज पर रखी कॉपी के पन्ने पर वीरेन्द्र सहवाग के बल्ले से तीव्र गति से निकले रनों की भांति शब्द उड़ेलने लगी।

कलम रुकी तो उन्होने पढ़ा कि कुछ पंक्तियाँ पन्ने पर ठहाका मार रही थीं। उन्होंने अपनी लिखी उन पंक्तियों को ऐसे पढ़ा जैसे कि वे उनके अस्तित्व से अजनबी हों।

समझते रहे थे हम आज तक जिसे अपनी कविता

वह कमबख्त तो निकली सूरज पहलवान की बहन सविता

अब कभी न बन सकने वाले कमीने साले ने,

घुमा के थप्पड़ ऐसे ऐसे मारे हैं,

लाल कर दिये गाल हमारे,

आंखों में नचा दिये तारे हैं|

तो हास्य मिश्रित करुण भाव से यह उनका पहला साक्षात्कार था। पहले प्यार में खाये थप्पड़ों के तेज ने उन्हें यह साहस न करने दिया कि वे यह राज जान पाते कि कैसे लड़की के भाई को उनके प्रेम पत्र के बारे में पता चला। यह राज राज ही बना रहा और उन्हें सालों तक सालता रहा।

पहले प्यार ने उन्हें कवि बना दिया। बाद में उनकी लेखन प्रतिभा उन लोगों के बड़े काम आई जो प्रेम करने की जुर्रत तो कर बैठते थे पर प्रेम पत्र तो छोड़िये घर वालों को कुशल क्षेम का पत्र भी नहीं लिख पाते थे ऐसे सारे साक्षर पर अनपढ़ तथाकथित प्रेमियों के लिये प्रेम पत्र कविराज ही लिखा करते थे।

कविराज की काव्य रचने की क्षमता में सबसे खास बात थी कि जैसे ’बस दो मिनट’ जैसे विज्ञापन, नूडल्स को भारतीयों पर थोप रहे थे वे मिनट भर में ही लुभाने वाली पंक्तियाँ लेकर हाजिर हो जाते थे। नारे बनाने में उनका कोई सानी न था।

सीनियर बुश ने इराक पर हमला किया और सैटेलाइट टी.वी की बदौलत जब दुनिया ने युद्ध का लाइव कवरेज देखा और भारत में बुश और सद्दाम हुसैन के पक्ष और विपक्ष में ध्रुवीकरण होने लगा तो उन्हें सद्दाम हुसैन से व्यक्तिगत कोई लगाव न था पर कविराज बुश की साम्राज्यवादी नीतियों के सख्त खिलाफ थे। एक रोज सुबह जब कुछ लोग जॉगिंग करते हुये उनके कैंपस के नजदीकी मोहल्ले की सड़क से सटी दीवार के पास से गुजरे तो उन्होंने बड़े बड़े अक्षरों में लिखा पाया

सद्दाम उतरे खाड़ी में बुश घुस गये झाड़ी में

बीती रात कविराज खाना खाने के बाद से कुछ घंटों के लिये गायब थे। लौटने पर उन्होने बताया था कि वे पास के सिनेमा हॉल में नाइट शो देखने गये थे।

पहले तो कभी वे अकेले फिल्म देखने न गये थे। उन्होंने कभी स्वीकार न किया परंतु मित्रों को संदेह था कि बुश और सद्दाम हुसैन के ऊपर बनाया गया नारा उन्होंने ही गढ़ा था।

छुट्टियों में हॉस्टल की मैस के बंद होने पर कैम्पस के नजदीक स्थित मेडिकल कॉलेज के कैम्पस में अन्दर ही एक ढाबा हुआ करता था| कविराज अपने हमराज हम दो मित्रो को वहां ले गए | वे तो पहले भी वहां जाते रहे होंगे| कविराज ने फुसफुसाते हुए कहा था,” दोस्त, त्वचा के रंग का सौन्दर्य से कोई रिश्ता होता नहीं है| बस चुपचाप श्यामा के सौंदर्य दर्शन का आनंद लेना”|

ढाबे पर झौंपडी के बाहर ही बैठकर खाने का ऑर्डर दिया कविराज ने और कुछ ही पलों में एक श्यामवर्णा लड़की अन्दर से बाहर आई और हेंडपंप से एक बर्तन में पानी भरने लगी| कविराज ने अपने नेत्रों से उस ओर देखने का हल्का सा इशारा किया| अमेरिकी सुपर मॉडल नेओमी कैम्पबेल की त्वचा तो फोटो में संभवतः मेकअप और फोटोग्राफी की तकनीकों से इतना चमकती होगी लेकिन गरीबी में पली बढ़ी उस श्यामवर्णा की त्वचा, घनी सर्दियों में बादलों से घिरे कम प्रकाश वाले उस ठंडे दिवस में भी दमक रही थी| सच में ही ऐसा श्यामवर्णा सौन्दर्य न पहले कभी देखा था और न बाद में कभी देखने को मिला|

पानी भरकर लौटते हुए श्यामा की निगाह कविराज की ओर गई तो उसके चेहरे पर मुस्कान इस तरह खिली जैसे अनायास कली से फूल विस्तारित हो गया हो| वह पास आयी और कविराज से बोली,” बड़े दिनों बाद आये सर”|

कविराज कुछ कहने ही वाले थे कि श्यामा के पिता ने उसे आवाज देकर झौंपडी के अन्दर बुला लिया और वह हंसती हुयी अन्दर चली गयी|

कविराज ने कहा, गुरु देखा| जब श्यामा का सौन्दर्य ऐसा है, तो श्यामवर्णी मुरली वाले कृष्ण के सौन्दर्य की कल्पना करो| जिन कवियों ने उनके सौन्दर्य की वर्णन किया है वह अतिशयोक्ति नहीं है|

सही है भाई, आज तो ऐसा ही लगा ताजा खिला काला गुलाब देख लिया हो| सम्मोहित करने वाला सौन्दर्य है| हड़प्पा सभ्यता की नर्तकी वाली मूर्ति की याद ताजा हो गयी श्यामा को देख| सांचे में ढला आबनूस का बुत है ये लड़की| ये फ़िल्म वाले क्यों गोरे रंग के पीछे बवाल काटे रखते हैं और विज्ञापन वाले गोरेपन की क्रीम बेचते रहते हैं| श्यामा को देख लें तो फ़िल्म वाले भी और विज्ञापन वाले भी, दोनों ही गोरे रंग की आसक्ति से दूर हो जाएँ|

तीसरे मित्र ने कहा,” पर कवि, यार ये मेडिकल कॉलेज के इन छात्रों की आँखों से ही शरीर का एक्स रे खींचने वाली प्रतिभा के सामने तुम्हारी श्यामा रह कैसे पाती होगी| ऐसी मासूमियत से हंस कैसे सकती है”|

कविराज ने एक गहरी सांस ली, पर उनहोंने कहा कुछ नहीं|

अब कौन मानेगा उस दिन लौटते हुए मेडिकल कॉलेज के गेट पर खड़े पर खड़े एक मिनी ट्रक के पीछे कविराज के अंतर्मन में छिपे चिर युवा प्रेमी ने ढाबे से उठाकर लाये हुए कोयले से लिखा था – हंस मत पगली प्यार हो जाएगा|

ट्रकों के पीछे एक पंक्ति, दो पंक्तियों की बहुत सी तुकें वे अक्सर लिख दिया करते थे| कहते थे, ये मेरे शब्द, यहाँ वहां कोई तो पढ़ेगा, समझेगा, सराहेगा|

ऐसा नहीं कि वे केवल तुकबंदी वाली कवितायें ही रचते थे। वे बेहद ज़हीन और संवेदनशील कवितायें भी रचते थे। बस उन्हें देख पाने का सौभाग्य उनके केवल हम दो मित्रों को ही मिला था और वह भी इस आश्वासन के बाद कि उनके इस संवेदनशील रुप की बात जाहिर न की जाये। वे अपनी छवि अमिताभ बच्चन के चरित्रों जैसी दिलजलों वाली धीर-गम्भीर छवि ही बनाये रखना चाहते थे, ऐसा दिलजला जो कॉमेडी का सहारा तो लेता है पर अंदर से अकेला है।

कितने ही साथियों के प्रेम सम्बंध कविराज की लेखनी के कारण मजबूती के जोड़ से जीवित रहे। कितनों के प्रेम सम्बंध शादी की परिणति पा गये। यह संदेहास्पद है कि किसी भी साथी ने अपनी पत्नी पर कभी यह राज खोला होगा कि उसे लिखे जाने वाले उच्च कोटि के प्रेम पत्रों में उसका योगदान बस इतना था कि वह कविराज के लिये चाय, फिल्म और खाने का इंतजाम करता था।

कविराज की कवितायें कॉपियों, रजिस्टरों एवम डायरियों के पन्नों में सुरक्षित सहेजी जाती रहीं|

सालों बीत गये। साथी दुनिया में इधर उधर बिखर गये। सोशल मीडिया के विभिन्न पटलों का पर्दापण हुआ तो सम्बंध फिर से स्थापित हुये और फिर ऊर्जा जाती रही तो त्योहारों और नव वर्ष आदि के अवसरों पर शुभकामनायें भेजने तक संवाद बने रहे। यादें तो यादें हैं कभी जाया नहीं करतीं, जीवन कितनी ही और कैसी ही व्यस्तताओं में क्यों न उलझा ले पर ऐसे मौके आते हैं जब बीते हुये की स्मृतियाँ पास आकर बैठ जाती हैं।

और ऐसे में जब एक रोज़ वाट्सअप पर सूचना मिले कि आखिरकार कविराज की कवितायें छप ही गयीं और पुस्तक डाक से पहुँचने वाली है तो उपजी प्रसन्नता की अभिव्यक्ति पुराने स्मृतियों के सम्मान हेतु ऐसे छेड़छाड़ भरे लेखन द्वारा ही संभव है|

…[राकेश]

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