कहते हैं हिटलर बचपन में एक चित्रकार बनना चाहता था लेकिन आर्ट स्कूल की प्रवेश परीक्षा में वह उत्तीर्ण न हो पाया और आर्ट स्कूल ने उसे अपने यहाँ प्रवेश देने से इनकार कर दिया| हिटलर के अन्दर एक ऋणात्मक भाव ने जन्म लिया और वह बदले की भावना से ग्रसित हो गया| अन्दर जो सृजन की उर्जा थी वह विध्वंस की ओर जाने के लिए मचलने लगी और अवसर आने पर उसकी इस विनाशकारी प्रवृत्ति ने दुनिया में विध्वंस की ऐसी चित्रकारी की कि जगत में दूर-दूर तक लहू का लाल रंग फ़ैल गया| अगर वह अपनी सृजनात्मक ऊर्जा को सही राह पर चला पाता और तार्किक ढंग से सोचता तो एक आर्ट स्कूल का इनकार उसे इतने बड़े द्वेष से न भर पाता कि बड़े होकर वह मानवता का ही ऐसा दुश्मन बनता जैसा कि वह बना|

एकलव्य को द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या और अन्य शस्त्र विद्या सिखाने से इनकार कर दिया तो वह द्रोणाचार्य और समाज के प्रति घृणा से नहीं भर गया अपितु स्वयं ही अभ्यास कर करके उसने उस वक्त के सर्वश्रेष्ठ धर्नुधारी योद्धाओं अर्जुन और कर्ण के समकक्ष की योग्यता प्राप्त की|
पश्चिम की सभ्यता में हिटलर के समक्ष एकलव्य सरीखे प्रचंड वीर का उदाहरण नहीं था और इसीलिये वह विनाश के रास्ते का अनुगामी बन गया|
आर. बल्कि की फ़िल्म – चुप, का मुख्य चरित्र – डैनी (दुलकर सलमान), जो फ़िल्म में नायक और खलनायक दोनों है, भी हिटलर सरीखा है जो आधुनिक समाज में स्वयं ही सब कुछ तय करके समाज में हिंसा की खौफ़ पैदा करने वाली इबारतें लिखता है| अत्याचारी पिता द्वारा नियंत्रित भयानक किस्म के घरेलू जीवन में एक नारकीय बचपन गुजार कर बड़े होने पर वह अपने ही जीवन पर एक फ़िल्म बनाता है जिसे फ़िल्म आलोचकों और दर्शकों ने नकार देते हैं और दुनिया की नज़रों से वह दूर होकर पूर्णतः एकाकी जीवन व्यतीत करता है| दुनिया से उसका सामना तो रोजाना होता है पर दुनिया केवल उसके व्यक्तित्व के एक बेहद छोटे से अंश से ही परिचित होती है जो कि एक ऐसे व्यक्ति का है जिसकी एक विशिष्ट सी दूकान है फूल बेचने वाली| फूलों की दूकान के मालिक के रूप में वह नायिका – नीला मेनन (श्रेया धन्वन्तरी) और दर्शकों दोनों के लिए आकर्षक व मनमोहक है| उसके साथ थोडा सा रहस्यमयी तत्व भी जुड़ा हुआ है जिसके कारण भी वह नीला और दर्शकों के लिए आकर्षण का केंद्र है क्योंकि उसके अनजाने तत्वों के प्रति उत्सुकता बनी रहती है| एक बार जब उसके व्यक्तित्व के सभी रंग दर्शकों के सम्मुख आ जाते हैं तब फ़िल्म और दर्शक के मध्य का समीकरण थोडा बदल जाता है| नीला अवश्य समय लेती है मुख्य चरित्र की पूरी असलियत को जान पाने में| पर उससे पहले फ़िल्म की थीम के केन्द्रीय तत्व की बात करना आवश्यक है|
फ़िल्म आलोचक/समीक्षक और फ़िल्म निर्देशक (निर्माता, अभिनेता आदि भी) के बीच एक नाजुक सा रिश्ता होता है|
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ईमानदारी से और सिनेमा के विकास और उसमें उच्च स्तर बनाए रखने हेतु की गई फ़िल्म समीक्षा सिनेमा का भला ही करती आई है| लेकिन किसी फिल्मकार, कलाकार के प्रति व्यक्तिगत द्वेष से की गई आलोचना न सिनेमा का भला करती है, न ही कलाकार का और न ही उस आलोचक का| इसी तरह ऐसे आलोचक तो सिनेमा का बहुत ही बड़ा नुकसान किया करते हैं जो फ़िल्म कम्पनियों के, निर्माता निर्देशकों के, या फ़िल्मी सितारों के पे रोल पर होते हैं और दर्शकों और पाठकों को भ्रम में डालते रहते हैं यह दर्शाकर कि वे तो स्वतंत्र फ़िल्म आलोचक हैं| असल में वे घूसखोर हैं जो सिनेमा संसार के प्रति हद दर्जे के बेईमान हैं|
फ़िल्म आलोचना से बेहतर शब्द फ़िल्म समीक्षा है| जैसे अच्छी फ़िल्में बनाना आसान काम नहीं उसी प्रकार अच्छी फ़िल्म समीक्षायें लिखना भी आसान नहीं| एक फ़िल्म समीक्षक को दुनिया भर की फ़िल्में देखते रहना पड़ता है, विभिन्न विषयों की जानकारी रखनी पड़ती है, हर काल के साहित्य और समसामायिक विषयों के समुद्र में लगातार तैरते रहना पड़ता है तब कला के स्तर को छू पाने में सफल फ़िल्मों की आत्मा को समीक्षक पाठक और दर्शक तक पहुंचा पाता है|
कला के क्षेत्रों में ऐसा होता है कि बहुत से कलाकार, लेखक और कवि तभी अपने लिए न्यायपूर्ण प्रशंसा और जनता से सम्मान पा पाए जब किसी अच्छे आलोचक ने उनके रचनाकर्म की कायदे से समीक्षा की| रचने वाले ने रच दिया और वह रचित पाठक या कला में रूचि रखने वाले के पास पहुँच गया और मामला दोनों के बीच का बचता है, ये आलोचक बीच में कहाँ से आये| यह तर्क अक्सर वही कलाकार दिया करते हैं जिनकी किसी मामूली कृति की आलोचना आलोचक कर देते हैं| उन कलाकारों, कवियों और लेखकों से आलोचना की महत्ता पूछिए जिनके कारण इन रचनाकारों को अपने रचनाकर्म का सही मूल्यांकन मिला| जनता हमेशा ही सही मूल्यांकन नहीं कर सकती और बहुत बार विशेषज्ञ ही इस काम को कर पाते हैं| प्रसिद्ध हो चुके ही नहीं बल्कि गूढ़ रचने वाले भी कला के लिए उतने ही आवश्यक हैं आखिर मानव का विकास एक सामूहिक प्रक्रिया है|
फ़िल्म एक ऐसा क्षेत्र है जहां बहुत बड़ी पूंजी का समावेश होता है| अगर किसी अच्छे निर्देशक की किसी ऐसी फ़िल्म की समीक्षा समीक्षक ढंग से कर दें जो दर्शकों के लिए समझना कठिन थी तो ऐसे निर्देशक ज्यादातर बहुत खुश होते हैं कि उनकी एक विशेष फ़िल्म को समझने वाले लोग उपस्थित हैं| लेकिन अगर किन्हीं निर्देशकों और कलाकारों की किन्हीं फिल्मों में ऐसे दर्शकों को भी कमियाँ नज़र आने लगें जिन्हें दृष्टि दोष है, और समीक्षक इन बातों को जाहिर कर दें तो ऐसे निर्देशकों और कलाकारों को तब फ़िल्म समीक्षक एक बेकार की उपस्थिति लगने लगते हैं और फ़िल्म और दर्शक के बीच वे एक अवांछित उपस्थित समझे जाते हैं| तब ऐसे प्रश्न अक्सर विद्वान समझे जाने वाले निर्देशक और कलाकार भी पूछने लगते हैं कि इन समीक्षकों ने क्या स्वंय कोई फ़िल्म बनाई है? सारी फ़िल्में कला ही नहीं होतीं|
साहित्य, जहां रचनात्मक प्रक्रिया एकल व्यक्ति की लगन, निष्ठा और निरंतर प्रयास से उत्पन्न होती है, से फ़िल्म निर्माण की प्रक्रिया भिन्न होती है क्योंकि फ़िल्म एक सामूहिक रचनात्मक प्रयास की उत्पत्ति होती है हालांकि निर्देशक को कप्तान मानने के कारण अंतिम उत्पाद (फ़िल्म) पर उसी का रचनात्मक स्वामित्व माना जाता है| बहुत से निर्देशक इस स्वामित्व के अधिकारी होते हैं तो बहुत से अन्य नहीं भी होते| जो निर्देशक होने के बावजूद इस फ़िल्म रुपी जहाज के एकल नियंत्रक कप्तान नहीं होते उन्हें भी इस अधिकार के मिलने में खासा आनंद तो आता ही है कि वे ही इस बनी फ़िल्म के अकेले नियंता, नियंत्रक और रचियता रहे हैं| और बहुत से निर्देशक ऐसा मानने लगते हैं कि जैसा सम्मान फ़िल्म आलोचक सत्यजीत रे और उनकी फिल्मों को देते रहे हैं वैसा ही उनके और उनकी फिल्मों के प्रति भी दर्शायें| एक ब्लॉकबस्टर हिन्दी फ़िल्म देने वाला आधुनिक निर्देशक जब ऐसी अपेक्षा रखने लगता है कि उसे हिन्दी सिनेमा के इतिहास में वी शांताराम, महबूब खान, राज कपूर, गुरुदत्त, चेतन आनन्द, और विजय आनंद आदि जैसा स्थान दिया जाए तब एक ईमानदार फ़िल्म समीक्षक के सामने बड़ी दुविधा उत्पन्न हो जाती है|
फ़िल्म में किसी अन्य क्षेत्र की तुलना में इतना ज्यादा धन है कि इसके साथ अहंकार आ जाना एक स्वाभाविक सी बात है| ऐसे ही फ़िल्म समीक्षक के अन्दर भी अहंकार पनप जाना अस्वाभाविक नहीं है, विशेषकर ऐसे फ़िल्म आलोचकों के अन्दर जो फिल्मों को रेटिंग के आधार पर प्रस्तुत किया करते हैं| डेढ़ घंटे से लेकर ढ़ाई तीन घंटे की फ़िल्म, जिसे बनाने में महीनों लगे होंगे कैसे एक-दो-तीन-चार-पांच सितारा रेटिंग के आधार पर मूल्यांकित हो सकती है?
फ़िल्म में डैनी को सिनेमा का जूनूनी दीवाना दिखाया गया है| उसे हद दर्जे की नफरत है उन आलोचकों से जो फिल्मों को रेटिंग के आधार पर बनाया या बिगाड़ा करते हैं| उन्हें सबक सिखाने के लिए वह अकल्पनीय कदम उठाता है और एक मनोरोगी सरीखा व्यवहार दिखाता है| और जो फ़िल्म, फिल्मकार बनाम फ़िल्म समीक्षक विषय पर एक सार्थक बहस उठाकर बड़ी सार्थक फ़िल्म बन सकती थी वह सीरियल किलर को पकड़ने मात्र की फ़िल्म बन कर रह जाती है| उसमें भी सीरियल किलर्स के मनोविज्ञान की विशेषज्ञ- डॉ ज़ेनोबिया श्रोफ (पूजा भट्ट) की भूमिका आ जाने से फ़िल्म भारत भूमि की न रहकर विदेशी या विदेशी फिल्मों से प्रेरित या उनकी नक़ल वाली सस्पेंस थ्रिलर लगने लगती है| वहीं क्रूरतापूर्वक की गई हत्याओं के शिकारों को पूरी वीभत्सता से दिखाना फ़िल्म के असर को प्रभावित करता है| अगर ये भाग ब्लैक एंड व्हाईट में या कुछ ऐसे दिखाए जाते कि दर्शक को क्रूर हिंसा का एहसास बिना अंग भंग किये मृत शरीरों को बिना देखे होता तो फ़िल्म ज्यादा असर उत्पन्न करती|
डैनी और नीला के मध्य धीमे धीमे पनपने वाले रोमांस वाले हिस्सों में फ़िल्म बेहद आकर्षक और स्वप्निल लगती है| फ़िल्म में डैनी और नीला दोनों गुरुदत को बेहद पसंद करते हैं| और उनकी यह पसंदगी फ़िल्म को मोहक बनाती है|
डैनी को गुरुदत की फ़िल्म – “कागज़ के फूल” बेहद पसंद है और उसे ऐसा लगता है कि उस वक्त के फ़िल्म आलोचकों ने बेवजह एक क्लासिक फ़िल्म की आलोचना की और गुरुदत्त को समयपूर्व निर्देशन से अवकाश प्राप्त करने के लिए विवश किया| ऐसा संभव है कि उस वक्त के आलोचकों ने “कागज़ के फूल” को इतना कोसा कि गुरुदत्त में वैसा आत्मविश्वास नहीं रहा कि वे तुरंत अन्य कोई फ़िल्म निर्देशित करते| लेकिन फिल्म – चुप में बार बाद दुहराई बात कि गुरुदत्त फ़िल्म बनाने के काम से विलग हो गए तथ्यात्मक नहीं है| कागज़ के फूल के बाद भी गुरुदत्त ने साहिब,बीबी और गुलाम और चौदहवीं का चाँद जैसी फिल्में बनायीं, भले ही एक निर्माता के रूप में ही उनका नाम गया लेकिन ऐसा संभव ही नहीं है कि गुरुदत्त के स्तर के निर्देशक की कोई रचनात्मक भूमिका इन दोनों विख्यात और सफल फिल्मों में न रही हो| इसी दौरान वे देव आनंद के साथ बैठकें भी कर रहे थे एक और फ़िल्म साथ में बनाने के लिए| “कागज़ के फूल” की असफलता और उस पर फ़िल्मी आलोचकों द्वारा क्रूर आलोचना से वे आहत अवश्य हुए लेकिन फ़िल्म निर्माण से अलग नहीं हुए|
उनका केस डेविड लीन से अलग था, जिनकी फ़िल्म – Ryan’s Daughter, पर फ़िल्म आलोचकों विशेषकर Pauline Kael, द्वारा की गई क्रूर टिप्पणियों से आहत होकर 14 वर्षों तक न कोई फ़िल्म बनाई और न ही किसी अन्य फ़िल्म के निर्माण से जुड़े|
एक अच्छा फ़िल्म समीक्षक गुरुदत्त की प्यासा की श्रेष्ठता कागज के फूल पर देख सकता है| एक ईमानदार फ़िल्म समीक्षक का कर्त्तव्य है कि वह फ़िल्म के पहले प्रदर्शन के समय भी लिखे कि कागज़ के फूल में जॉनी वॉकर से सम्बंधित बहुत सा हिस्सा पैबंद सरीखा है जो फ़िल्म की कमर्शियल जरूरतों के लिए जोड़ा गया शायद वित्त प्रबंधकों और वितरकों के दबाव में | गुरुदत्त उसे न चस्पा करते तो इस बहुत अच्छी फ़िल्म की गुणवत्ता अद्भुत होती|
एक कलाकार को चाहे वह लेखक हो, अभिनेता हो, या निर्देशक हो, संवेदनशील होना ही होता है| डैनी में दो व्यक्तित्व बसते हैं लेकिन नीला के प्रति प्रेम होने बावजूद उसके अन्दर बैठे प्रेमी और हत्यारे के मध्य कोई मानसिक संघर्ष नहीं छिड़ता और वह निरा हत्यारा ही बना रह जाता है जो फ़िल्म को कमजोर करता है और क्लाइमेक्स को बोगस बना देता है|
जिस फ़िल्म की आलोचना और रेटिंग के लिए वह नीला को सजा देता है, उस फ़िल्म को थियेटर में देखते हुए वह आनंद से दुहरा हुआ दिखाया जाता है और नीला को वह इस बात के लिए प्रताड़ित करता है कि नीला को पता ही नहीं कि यह फ़िल्म एक विदेशी फ़िल्म की फ्रेम दर फ्रेम नक़ल भर है|
“चुप” का सस्पेंस थ्रिलर भाग और अच्छी सार्थकता पाटा अगर देने के अन्दर बैठा हत्यारा इस बार विदेशी फ़िल्म की अनाधिकृत नक़ल बनाकर दर्शकों को मूर्ख बनाने वाले निर्देशक पर हमला करता| तभी तो वह सिनेमा का सच्चा जुनूनी प्रशंसक सिद्ध होता| नीला के प्रति प्रेम उसे दुविधा में डालना ही चाहिए|
तार्किक अंत न होने से फ़िल्म जरुरी बहस उठा पाने में असफल रहती है| आर. बल्कि ने एक बेहद रोचक अवसर तो रचा लेकिन उसका पूरा लाभ लेने से वे चूक गए|
….[राकेश]
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