फ़िल्म “वध” “दृश्यम” (भाग 1 एवं 2) जैसी कसावट ली हुयी सस्पेंस थ्रिलर नहीं है, यह चरित्रों के बीच हाई वोल्टेज ड्रामा रचने के कारण दर्शक को बाँध सकने वाली फ़िल्म भी नहीं है| “वध” में निम्नमध्यवर्गीय जीवन की पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं पर जोर दिया गया है और कैसे ज़ुल्म सहते सहते अति हो जाने पर एक साधारण मनुष्य भी मानव हत्या जैसा अतिवादी कदम उठा सकता है और अकस्मात् घटित से कैसे उसका और उसकी पत्नी का पहले से ही तनावग्रस्त जीवन कितनी भयंकर मानसिक यंत्रणा से भर जाता है, और कैसे निरंतर बदलती परिस्थितियों में अपनी तात्कालिक निर्णय ले सकने की क्षमता से वह अचानक हुए अपराध से कानूनी शिकंजे मनाने से बच जाता है, इस यात्रा को दिखाया गया है| हालांकि मानसिक प्रताड़ना उसे पुलिस के समक्ष अपने अपराध को स्वीकार करने के लिए विवश कर देती है लेकिन जल्दी ही वह इस अपराधबोध से बाहर निकल कर पुलिस के शिकंजे से बाहर जा खडा होता है|

धीमी गति से साधारण मनुष्य की साधारण जीवन शैली को दिखाती फ़िल्म का थियेटर में चल पाना किसी भी काल में संभव नहीं था लेकिन टीवी पर या ओटीटी पर इसे या ऐसी फ़िल्म को इसकी गुणवत्ता के कारण अच्छी संख्या में दर्शक देखते रहे हैं और सराहते रहे हैं और बहुत समय तक स्मृति में भी बना कर रखते रहे हैं| निस्संदेह इस फ़िल्म में थोड़ी चुस्ती लाई जा सकती थी, कथा के कानूनी पहलुओं के तकनीकी पक्षों को और बेहतर बनाया जा सकता था (मसलन मृतक मौके मौत के बाद उसके मोबाइल फोन के पुनः खुलने का तथ्य, ह्त्या में उपयोग में लाये गए हथियार पर हाथों के निशान आदि)|

भारतीय समाज में एक शिक्षक अन्य नागरिकों से कुछ बेहतर सम्मान पाता है| लोग एक शिक्षक से आदर्श व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं| स्कूल से अवकाश प्राप्त साधारण शिक्षक की आर्थिक स्थिति बस किसी तरह बची खुची ज़िंदगी चलाने लायक होती है| पंडित शम्भूनाथ (संजय मिश्रा) और उनकी पत्नी मंजू (नीना गुप्ता) संतोषी जीवन जी रहे हैं| मंजू जहां कुशल गृहणी का कर्तव्य निभाती है वहीं पंडित जी आसपास के गरीब बच्चों को पढ़ा कर अपने शिक्षक रहे होने के दायित्व का निर्वाह अभी तक करते हैं| इकलौता बेटा अमेरिका जा बसा है जो माँ-पिता द्वारा स्काइप पर वीडियो कॉल करने पर नाराज़ हो जाता है कि वह तो कॉल करता ही है उन्हें विडियो कॉल करके उसे परेशान करने की क्या जरुरत है? उसके लिए माता-पिता की उसे, उसकी पत्नी और अभी जन्मी बेटी को वीडियो द्वारा देखे जाने की भावना का कोई मूल्य नहीं है| भारत में छूट चुके, उसके कारण कर्जे में डूब चुके माता पिता अब उसके वर्तमान जीवन में अवांछित तत्व हैं|

शम्भूनाथ और मंजू के वर्तमान जीवन का एक अँधेरा पहलू है प्रजापति पांडे (सौरभ सचदेव) द्वारा गाहे बगाहे उनके घर का उपयोग शराब पीने, मांस खाने और वेश्यावृत्ति का उपभोग करने के कारण| सामाजिक रूप से सम्मानित शिक्षक के लिए इसे अपने जीवन में सहन करना प्रताड़ना भरा है लेकिन्वे इसे रोक नहीं सकते|

इसे रोक सकता है सिर्फ क़ानून| अगर पुलिस न्यायोचित तरीके से कार्य करे तो साधारण मनुष्य का जीवन सुरक्षित रहे और असामाजिक तत्वों से जूझने का कर्तव्य पुलिस का ही बना रहे लेकिन किन्ही भी कारणों से हो लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और असामाजिक तत्व और पुलिस के बीच सांठ-गाँठ साधारण जनता के समस्याओं से भरे जीवन को और मुश्किल बनाती है क्योंकि कानून का भय न होने के कारण असामाजिक तत्व आम लोगों का जीना और मुश्किल बना देते हैं| असामाजिक तत्वों से जूझ कर उन्हें परास्त करना का कार्य छोड़ पुलिस उनसे धन उगाही करके अपने और उनके मध्य शान्ति कायम रखती है| शायद असामाजिक तत्वों के सरपरस्तों की शक्ति के कारण यह गठबंधन चलता जाता है और पुलिस विभाग में कोई एक दो बेहद ईमानदार अधिकारी इस स्थिति को बदलना भी चाहे तो वह अकेला पड़ जाता है और सारा तंत्र उसके विरुद्ध हो जाता है|

पुलिस अधिकारी शक्ति सिंह (मानव विज), प्रजापति पांडे से उसके गैरकानूनी कार्यों को नज़रअंदाज़ करने के बदले धन लेता है लेकिन उसे चेतावनी भी देता है| सड़क पर सरेआम शम्भूनाथ को प्रताड़ित और अपमानित करने के लिए वह पांडे को न केवल रोकता है बल्कि उसे धमकी भी देता है और शम्भूनाथ से कहता भी है कि अगर पांडे कुछ ज्यादती करे तो बताएं|

शक्ति सिंह के ऐसे आश्वासन से प्रोत्साहन पाकर शम्भूनाथ, पांडे द्वारा उनके मकान पर कब्जा किये जाने की धमकी की शिकायत लेकर थाणे पहुँचते हैं तो शक्ति सिंह का रूप बदला पाते हैं और शक्ति सिंह उन्हें ही धमकाता है कि वे चुपचाप पांडे का सारा पैसा देकर मामले को ख़त्म करें|

अब शम्भूनाथ को पुलिस और कानून से कोई राहत नहीं मिलनी और उनके थाने जाने से नाराज़ पांडे घर आकर उनकी पिटाई करता है| एक वृद्ध शिक्षक का अपने ही घर में एक युवा गुंडे से पिटाई खाना कैसे उनके आत्मसम्मान और आत्म विश्वास की धज्जियां उड़ा देगा और उस पर भी जब गुंडा उनकी बेटी समान 11-12 साल की छात्रा नैना को उसके घर से बुलाकर लाने की मांग रखता है तो अब एक शरीफ आदमी क्या करेगा? पिटता हुआ वृद्ध या तो चुपचाप कन्या को लाकर नशे में धुत्त इस राक्षस के हवाले कर दे जो न केवल कन्या, उसके माता पिता बल्कि उनकी स्वयं की अगामी ज़िन्दगी को नष्ट कर देगा या वे कुछ ऐसा करें जिससे यह स्थिति यहीं रुक जाए!

पुलिस से तो उन्हें सहायता मिलने से रही| कर्जे के कारण उनका जीवन पांडे ने नरकतुल्य बनाया हुआ है| ऐसे में पुत्रीवत कन्या का उपभोग करने की पांडे की कुत्सित लालसा उन्हें विवश कर देती है कि वे इस मामले को अपने हाथों में ले लें| और इससे पहले की कोई कुछ समझे बिजली की गति से एक वृद्ध शिक्षक बाजी पलट देता है|

फ़िल्म “वध” दो बातों में एक सफल फ़िल्म है, एक तो नायक द्वारा खलनायक के वध किये जाने को लेकर किसी दर्शक के मन में कोई संशय नहीं आयेगा कि नायक ने गलत किया, उसके सामने कोई विकल्प नहीं बचा था| दूसरे नायक की निजी ज़िंदगी में इस वध से पहले और बाद में घटते रहने वाले मानसिक तनावों से दर्शक पूर्णतया परिचित होता चलता है और नायक दंपति के मनोभावों के साथ कदमताल करता चलता है, इसमें निर्देशक जोड़ी (जसपाल सिंह संधू एवं राजीव बरनवाल) का कुशल निर्देशन और नायक नायिका की भूमिकाएं निभाने वाले अभिनेताद्वय संजय मिश्र और नीना गुप्ता का बेहतरीन अभिनय मुख्य तत्व हैं|

नायक ने जो किया सो तो किया लेकिन फ़िल्म इस मामले में भी सफल है कि यह कायदे से स्थापित करती है कि जो कुछ नायक ने किया उसकी सामाजिक एवं निजी पारिवारिक स्थितियां भी उसकी वर्तमान ज़िंदगी की कठिनाइयों के पीछे जिम्मेदार हैं| अपरोक्ष रूप से नायक नायिका की बदहाल ज़िंदगी के पीछे उन दोनों का अपने इकलौते महत्वाकांक्षी बेटे की ब्लैकमेलिंग मुख्य कारण है जिसे अमेरिका जाना है और निम्नमध्यवर्गीय पिता द्वारा अपनी कुल जमापूंजी दस लाख स्वेच्छा से उसे देने की उदारता भी उसके लिए नाकाफ़ी है और उसे इतने ही रूपये और चाहियें ताकि वह आराम अमेरिका में सैटल हो सके| विवश बाप अपने अकेले मकान को सूद पर ब्याज देने वाले एक गुंडे के हाथों गिरवी रख देता है और उसके दुर्दिन शुरू हो जाते हैं| ब्याज चुकाने में ही उसकी कमर टूटती जाती है| बेटा अमेरिका में कायदे से सैटल हो गया है, शादी हो गयी है, एक बच्ची का जन्म हो गया है और अब बेटे और उसकी पत्नी के लिए भारत में छूट गए लड़के के माता पिता एक बोझ के सिवा कुछ नहीं| जो बेटा सीना ठोक कर बोल कर गया था कि मकान गिरवी रख दो आखिर वह तो है ही कर्जा चुकाने को, उसे अब पिता द्वारा कर्जे की बात छेड़ना भी चिड़ा देता है, और वह कह देता है,” आप लोगों का कभी खत्म होता ही नहीं, अभी मैंने यहाँ मकान लिया है उसकी क़िस्त देनी है”|

माँ – बाप की गर्दन गुंडे के हाथों में सौंपने वाला उन्हीं का अपना बेटा है| गुंडे को तो गुंडई दिखानी ही है, गुंडई उसका चरित्र है, उसे तो मकान पर कब्जा करना ही है, लेकिन बेटे के लिए कर्जा न लेना हो तो नायक जाएगा ही क्यों ऐसे गुंडे की शरण में?

फ़िल्म “वध” का यह पहलू सबसे असरदार है और हालांकि फ़िल्म के अपराध और कानूनी पहलुओं के सामने दर्शक के लिए इन पारिवारिक पहलुओं का दब जाना नितांत संभव है लेकिन यह समान्तर ट्रैक प्रभावशाली है| साइबर कैफे में अपने एकाउंट का अंतिम निबटारा करके उसे बंद करने के निर्देश देने से लेकर अपने मोबाइल से बेटे का अमेरिका का फोन नंबर डिलीट कर देने से अपनी वर्तमान ज़िंदगी से बेटे का अध्याय समाप्त करने और अपने मकान को नैना को उपहार स्वरूप देकर किसी और अनजानी जगह रहने जाने की यात्रा पर निकल पड़ने से अब शम्भूनाथ और मंजू का बचा हुआ जीवन दर्शक के लिए रहस्यमय बन जाता है| बहुत समय तक तो बेटा निश्चिन्त रहेगा कि अब माता पिता परेशान नहीं करते लेकिन कभी तो रिश्ते की सच्चाई करवट लेगी जब उसे कचोटने लगेगा कि महीनों से या शायद साल भर से माता-पिता ने कॉल नहीं किया | मानसिक द्वन्द से तो उसे अब गुजरना है जब उसके सामने अपनी करनी दौड़ने लगेगी| माता पिता के संपर्क न करने के कारण उत्पन्न सन्नाटे में उसे अपने कृत्यों की आवाज सुनाई देनी ही देनी है|

अपने माता-पिता को दुर्दशा की राह पर भेजने वाला तो वही है| कर्मफल के जटिल संसार में शम्भूनाथ और मंजू को प्रताड़ना भरे जीवन जीने के लिए विवश करने का सबसे बड़ा अपराधी तो उनका अपना बेटा ही है| प्रजापति पांडे जैसे राक्षसी शिकंजे में अपने माता-पिता को भेजने का अपराधी तो उनका स्वंय का ही बेटा है| इस गाथा का असली अपराधी नंबर 1 वही है| उसके संपर्क का नंबर अपने फोन से डिलीट करके पंडित शम्भूनाथ उसके साथ रिश्ते का तर्पण कर देते हैं| बेटा ही उन्हें अपनी नासमझी में उनकी वर्तमान स्थितियों को न समझने की चेष्टा न करके उन्हें ही हर बात के लिए जिम्मेदार ठहरा कर उन्हें तिल तिल कर धीरे धीरे मार ही रहा था|, इसलिए भी शम्भूनाथ को क़ानून अपने हाथ में लेने में संकोच नहीं हुआ| खोने को उनके पास कुछ था ही नहीं, और बचाने को एक उदीयमान कन्या का जीवन था|

फ़िल्म “वध” में अपराधी नंबर 2 है पुलिस जो राठौड़ जैसे माफियाओं से डरकर उसके गुर्गे प्रजापति पांडे के सामने घुटने टेक देती है और आम जनता को इनके असुरी किले का कैदी बना देती है| पुलिस अपना काम तरीके से करे तो क्यों किसी साधारण नागरिक शम्भूनाथ को प्रजापति पांडे प्रताड़ित करे और इतना प्रताड़ित करे कि एक अहिंसक वृद्ध को एक राक्षस का वध करने के लिए हथियार उठाना पड़े? पुलिस और शम्भूनाथ का अपना बेटा, प्रजापति पांडे के समकक्ष अपराधी हैं शम्भूनाथ के जीवन में हिंसा लाने के लिए|

संजय मिश्रा और नीना गुप्ता के साथ सौरभ सचदेव, मानव विज और नैना की भूमिका में अनन्या सिंह ने फ़िल्म के अभिनय पक्ष को मजबूत रखा है|

कथा और चरित्रों के अनुरूप सेट डिजायन और शूटिंग स्थल फ़िल्म की विश्वसनीयता बढाते हैं|

…[राकेश]

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