
ब्रितानी साम्राज्य से स्वतंत्रता पश्चात दशकों तक मनी ऑर्डर और पेंशन जिसकी आर्थिक रीढ़ रही हो, जहाँ नारी दैनिक जीवनयापन की धुरी बनी रही हो, और जहाँ पक्की सड़कें बन जाने के कारण, कहीं बाज़ार आदि जाने में लगने वाले कई घंटों की अवधि कम होने से बचे समय का पुरुष क्या करें के प्रश्न भी सामजिक अध्ययन का हिस्सा बन जाते हों, ऐसे उत्तराखंड के पर्वतीय आंचलिक जीवन पर एक विश्वसनीय और सिनेमाई दृष्टि से वैश्विक स्तर फ़िल्म बनाने के लिए एक सर्बियन निर्देशक – Goran Paskaljevic, को सामने आना पड़ता है, तो यह समूचे भारत के सिनेमा उद्योगों के लिए एक विचारणीय मुद्दा है| एक विदेशी निर्देशक भारतीय कलाकारों को लेकर एक बेहतरीन फ़िल्म बना देता है तो इससे यह तो ज्ञात होता ही है कि भारतीय फ़िल्म निर्देशकों के लिए पर्वतीय क्षेत्र अभी तक अनजाने ही रहे हैं|
पहाड़ के जीवन का अपना व्याकरण होता है| पर्वतों में मानव अस्तित्व की सदियों से उपस्थिति से जीवन का यह पर्वतीय व्याकारण उत्पन्न, स्थापित और स्थिर किया है| मैदानी हस्तक्षेप से थोड़े बहुत घर्षणों के बावजूद मोटे तौर पर इस व्याकरण में बहुत परिवर्तन नहीं ही हो पाते, विशेषकर पर्वतों के दूर दराज स्थित स्थलों में|
पहाड़ इतने विशाल हैं कि धरती के तमाम कविगण अगर तय कर लें कि पहाड़ के हरेक पहलू पर कवितायें रचेंगे तब भी पहाड़ के न जाने कितने रंग, रूप अछूते रह जायेंगे| जो लोग अपनी पूरी उम्र पहाड़ पर व्यतीत करते हैं वे भी पहाड़ों को कहाँ पूरा जान पाते हैं?
पहाड़ से मतलब
बहुत-सी चीज़ें
मसलन ख़ामोशी कोई चीज़ है
मैं कभी नहीं जान पाता
अगर पैदा न हुआ होता
पहाड़ में। (प्रमोद कौंसवाल)
पहाड़
गुरुत्वाकर्षण तो धरती में है
फिर क्यों खींचते हैं पहाड़
जिसे देखो
उधर ही भागा जा रहा है
बादल
पहाड़ों को भागते हैं
चाहे
बरस जाना पड़े टकराकर
हवा
पहाड़ को जाती है
टकराती है ओर मुड़ जाती है
सूरज सबसे पहले
पहाड़ छूता है
भेदना चाहता है उसका अँधेरा
चाँदनी वहीं विराजती है
पड़ जाती है धूमिल
पर
पेड़ों को देखें
कैसे चढ़े जा रहे
जमे जा रहे
जाकर
चढ़ तो कोई भी सकता है पहाड़
पर टिकता वही है
जिसकी जड़ें हों गहरी
जो चट्टानों का सीना चीर सकें
उन्हें माटी कर सकें
बादलों की तरह
उड़कर
जाओगे पहाड़ तक
तो
नदी की तरह
उतार देंगे पहाड़
हाथों में मुट्ठी भर रेत थमा कर। (कुमार मुकुल)
पहाडी औरतें
पहाड़ की औरतें
सूरज को जगाती हैं
मुँह अँधेरे
बनाकर गुड़ की चाय
और उतारती हैं
सूर्य-रश्मियों को
जब जाती हैं धारे में
भर लेती हैं सूरज की किरणों को
जब भरती हैं
बंठा धारे के पानी से
पहाड़ की औरतें रखती हैं
सूरज के लिए
कुछ पल आराम के
भरी दुपहरी में
सुस्ता लेता है भास्कर
पहाड़ी औरतों के सिर पर रखे
घास के बोझ तले!
और साँझ को
जब गोधूलि बेला में
आते हैं पशु-पक्षी अपने
आशियानों में लौटकर
तो सूरज को भी कर देती हैं
विदा…
अपनी रसोई में चूल्हे की
आग जलाकर!
पहाड़ी औरतें
रखती हैं बनाकर यादों को
कुट्यारी
और जब कमर झुक जाती है उनकी
तो समूण बनाकर
सौंप देती हैं वो कुट्यारी
अपने नाती-पोतों को!
पहाड़ी औरतें असमय ही
हो जाती हैं बूढ़ी!
क्योंकि उन्हें होता है
तज़ुर्बा चढ़ाई का और रपटीली ढलानों का भी!
पहाड़ी औरतों के चेहरे की झुर्रियों में
पूरा पहाड़ दिखाई देता है
लदा होता है उनके कांधों पर
बोझ पहाड़ जैसा!
पहाड़ की औरतें
नहीं डरती चढ़ाइयों को देखकर
यूँ ही नहीं घबराती
उतरती रपटीली पगडंडियों पर चलने से
क्योंकि वो रोज़ ही भरती हैं कुलाँचे
किसी कस्तूरी मृग सी इन रास्तों पर
असल में पहाड़ी औरतें
रखती हैं एक पूरा पहाड़
अपने अंदर!
उनके गुठ्यार में
लिखी होती हैं
पहाड़ की पीड़ाएँ! (रुचि बहुगुणा उनियाल)
बंगाली पृष्ठभूमि के अंतर्राष्ट्रीय साख के अभिनेता विक्टर बनर्जी से ऐसा सहज अभिनय इस फ़िल्म में करवाया गया है कि वे गढ़वाल के ही मूल निवासी लगते हैं| हिंदी फिल्मों में ज्यादातर प्रशासनिक अधिकारी, या उच्च वर्ग के उद्योगपति आदि की भूमिकाओं में अक्सर दिखाई देने वाले अविजीत दत्ता ने ठेठ निम्न मध्यर्गीय गढ़वाली ग्रामीण की भूमिका प्रभावशाली तरीके से निभा कर अपने अभिनय स्तर की गहराई से दुनिया को परिचित करवाया है|
“देव भूमि” लगभग 92 मिनट की फ़िल्म है, लेकिन यह पहाड़ के जीवन से मेल खाती गति से एक पहाडी गाँव के जीवन को सही ढंग से प्रदर्शित कर पाने में समर्थ है|
40 साल बाद राहुल नेगी (विक्टर बनर्जी) लन्दन से भारत आकर उत्तराखंड में केदारनाथ स्थित अपने गाँव में आया है| इन 40 सालों में उसने बहुत कुछ नया देखा है जबकि उसका गाँव बहुत नहीं बदला है| 40 साल पहले जिस घटना के कारण राहुल नेगी को गाँव छोड़ना पड़ा था, आज भी उसके निबटारे के लिए गाँव में पंचायत बैठती है और राहुल को उसमें बुलाया जाता है| राहुल पर आरोप है कि उसने 40 साल पहले गाँव के प्रधान के ऊपर जानलेवा हमला किया था और इसीलिए वह गाँव छोड़कर भाग गया था|
गाँव का ही पुराना नागरिक एक नवांगतुक की भाँति गाँव में पहुँचता है तो गाँव से बाहर एक आश्रम में शरण लेता है क्योंकि उसे बखूबी पता है कि गाँव में सीधे घर पहुँचने पर कोई उसका स्वागत नहीं करेगा| धीरे धीरे एक थ्रिलर की राह पर चलकर राहुल नेगी के बीते जीवन के रहस्य खुलने लगते हैं| जब तक वह ऐसे लोगों से मिलता है, जो उसके जाने के बाद कभी गाँव या उसके आसपास आकर बसे हैं जैसे आश्रम के बाबा (एस पी ममगाईं) और स्कूल की अध्यापिका शान्ति (गीतांजलि थापा), वे उसे विदेश से आया एन आर आई समझ और ढंग से मिलते हैं पर एक छोटे गाँव मनाग की तरह बात फैलती है और सुबह होते होते सभी को पता चल जाता है कि नवागन्तुक असल में गाँव का कथित भगोड़ा अपराधी राहुल नेगी है| राहुल नेगी का अपना सगा भाई उसे दुत्कार कर घर से भगा देता है लेकिन इसमें उसका भय सम्मिलित है कि कहीं राहुल पुश्तैनी संपत्ति के नाम पर एक टूटे फूटे घर में हिस्सेदारी न मांगने लगे| असल में राहुल नेगी का अपना भाई ही पंचायत बैठाकर राहुल पर मुकदमा चलाने का हिमायती है| पूर्व प्रधान का बेटा कहता रह जाता है कि उसके पिता ने मरते समय राहुल नेगी को क्षमा कर दिया था लेकिन राहुल का भाई इस बात पर जोर देता रहता है कि उसके भाई ने प्रधान जी पर आक्रमण करके और नाच गाकर जीवनयापन करने वाली घुमंतू जाति की युवती से प्रेम करके सारे गाँव की परम्पराओं का अपमान किया था अतः उसे सजा मिलनी ही चाहिए|
गाँव में राहुल का एक बचपन का मित्र भी है बलबीर ( वी के शर्मा, थियेटर के वरिष्ठ लेखक, निर्देशक एवं अभिनेता, संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत) जिसने 40 साल से उस खुखरी को जंगल में छिपा कर रखा हुआ है जिससे कथित रूप से राहुल नेगी ने प्रधान पर आक्रमण किया था| बलबीर के ठहरे हुए ग्रामीण जीवन में राहुल नेगी का सबसे नजदीकी मित्र होना एक रोमांच उत्पन्न करता है| गाँव वालों के सामने वह बिना किसी भूमिका के इस दावे का खुलासा भी करता है कि राहुल का उससे अच्छा दोस्त कोई नहीं है और न कभी मिलेगा| राहुल उसके जीवन का एक एक्स फैक्टर है| राहुल से जुड़े होने की बदनामी के बावजूद उसके रहस्य को बनाए रखना बलबीर के जीवन में रोमांच का तत्व है|
राहुल नेगी की एक बहन है प्रिया (उत्तरा बाउकर) जिसके फौजी पति युद्ध में शहीद हुए हैं जिन्हें मरणोपरांत सेना ने पुरस्कृत किया है लेकिन सालों बाद भी जिस सरकारी सहायता का वादा किया गया था वह उसे प्राप्त नहीं हुयी है| पेंशन और थोड़ी बहुत खेती के बल पर वह जीवन काट रही है| लेकिन उसका स्वाभिमान बदस्तूर बना हुआ है| एक सच्चे फौजी की विधवा के रूप में इस स्वाभिमान को छोटी सी भूमिका में उत्तर बाउकर ने कमाल रूप से प्रदर्शित किया है| भाई राहुल नेगी द्वारा अपनी संचित पूंजी उसे दिए जाने के स्नेहमयी प्रस्ताव को भी वह नम्रता लेकिन दृढ़ता से ठुकरा देती है| वह जानती है कि गाँव में रहने वाला उसका अन्य भाई लालची है, और राहुल के हिस्से पर कब्जा किये बैठा है और इस बात को वह राहुल से साझा भी करती है| यह भी हो सकता है कि गरीबी ने राहुल के भाई को ऐसा बना दिया है क्योंकि जितनी घर संपत्ति गाँव में है उसमें हिस्सेदारी करके गुजारा मुश्किल है| वजह जो भी हो गाँव की जमीन जायदाद के कारण ही भाई नहीं चाहता कि राहुल वहां एक दिन भी टिके| विदेश में रहते हुये राहुल ने पारिवारिक रूप से एकाकी जीवन व्यतीत किया है और बहन की पुत्रवधू, पौत्र और पौत्री को देख वह अपने को रोक नहीं पाता और बच्चों को नहलाने की अनुमति लेकर उन्हें नहलाने लगता है, और इस बहाने पारिवारिक जीवन के कभी उपलब्ध न हो सकने वाले आनंद के एक क्षणांश को जी लेता है|
गाँव के पाठशाला की शिक्षिका शान्ति एक फौजी अधिकारी की बेटी है और जिस अंगरेजी शिक्षा की पृष्ठभूमि से वह आती है उसके प्रतिनिधि अपवाद को छोड़कर ऐसी स्थिति में नहें पाए जा सकते जिसमें वह अपनी धुन के कारण वहां अध्यापन कार्य में अपनी युवावस्था लगा रही है| पहाड़ के ग्रामीण स्कूल की अध्यापिका के स्तर से वह कहीं ज्यादा पढी लिखी और काबिल है लेकिन वह एक लक्ष्य लेकर चल रही है| गाँव केबहुत से लोग अपनी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते और वह उन्हें प्रेरित करती है कि लड़कियों को स्कूल भेजा जाए| उसकी सबसे अच्छी छात्रा आशा की नाबालिग अवस्था में ही शादी कर दी जाती है| शान्ति चाहकर भी इस कुप्रथा का विरोध करके आशा को इस बेमेल विवाह के चंगुल में फंसने से नहीं रोक पाती इसकी परिणति एक बेहद दुखद घटना के रूप में होती है|
आशा के विवाह के अवसर पर परम्पराओं के निर्वाह के दौरान लोक नृत्य के प्रदर्शन में राहुल नाच गाकर जीवनयापन करने वाले समूह की नृत्यांगना से बातचीत करता है तो उसके 40 साल पहले के जीवन के कुछ रहस्य खुलते हैं जब उसका अपना भाई उसे विवाह स्थल से भगा देता है|
राहुल तो गाँव से भाग गया था लेकिन जिस युवती – माया (सोहेला कपूर) से उसने प्रेम किया था, उसके साथ गाँव वालों ने क्या किया? राहुल की बहन ही इस बाबत उसे जानकारी देती है| अपने को माया का गुनाहगार समझ राहुल गाँव के बाहर बनी कुटिया में निर्वासित माया से मिलने जाता है| पिछले 40 सालों में राहुल ने अनगिनत बार माया को याद किया होगा और अब उससे मिलने जाने की उत्सुकता, सामना होने के भय, और माया को अकेला छोड़ गाँव से भाग जाने के अपराध बोध से ग्रस्त होने के मिश्रित भावों के मूर्त को विक्टर बनर्जी एक कुशल शिल्पी की भाँति गढ़ते हैं| वहां उपस्थित एक लडकी से बात करने से लेकर, उससे अनुमति लेकर माया के घर में प्रवेश करने से लेकर, माया का सामना करके उससे क्षमा मांगने और उसे देखकर हिस्टीरिया से घिरी माया की प्रतिक्रिया से स्तब्ध रहने की यात्रा को विक्टर बनर्जी अदभुत रुप से अभिनीत करते हैं|
जिस गाँव को छोड़कर राहुल भागा था वहां 40 साल बाद लौट कर आने का एक उद्देश्य है| राहुल अपनी दृष्टि धीरे धीरे खोता रहा है और कुछ ही दिनों में वह दृष्टिविहीन होने वाला है| अँधा होने से पहले वह एक बार जी भरकर अपनी जन्मस्थली को देख लेना चाहता है, अपने नाते रिश्तेदारों, मित्रो और परिचितों से मिल लेना चाहता है| इच्छा तो उसकी संभवतः यही थी कि अपने जीवन के शीश दिन वह अपने गाँव में व्यतीत करे लेकिन गाँव में उसके पांव टिकने नहीं दिए जाते| हर जगह की अपनी राजनीति होती है और सापेक्षता का नियम चलता है| मैदानी लोगों की चालाकियों से पर्वतीय लोग ठगा महसूस करते होंगे लेकिन ऐसा नहीं कि आपस में वे एक दूसरे से चालाकियां नहीं करते बस वे चालाकियां आपसी हैं तो बुरे भले के भेद में स्वीकृत होती हैं|
बिना अध्यात्म के किसी भी पहाड़ का कोई भी किस्सा अधूरा ही रह जाने वाला ठहरा| आँखों की दृष्टि खो जाने बाद वह कैसे जी पायेगा यह बात राहुल को भयभीत करती रही होगी| पर यहाँ अपने मूल स्थान पर आकर, आश्रम में बाबा जी के दृष्टिकोण को देखकर, लोगों से बातचीत करके, उनके व्यवहार से, विदेश में बीते अपने जीवन और वहां जीते हुए यहाँ केदारनाथ में बिठाये बचपन के जीवन की स्मृतियों और उसके मोह के कारण यहाँ पुनर्वापसी से उसके अन्दर विचारमंथन होना एक सहज बात है| विशाल पहाड़ की शान्ति जीवन के न बदल सकने वाले कडवे सच के समक्ष खड़े व्यक्ति में अध्यात्म की धाराएं अवश्य ही बहायेगी| बहती नदी के शीतल जल के प्रवाह में राहुल अपना मोबाइल फेंक देता है अब उस जगह के बाहर के लोगोंसे उसके संपर्क का माध्यम समाप्त हो चुका है|
शान्ति के जल चुके स्कूल के पुनर्निर्माण हेतु वह अपनी सारी जमा पूंजी दान करके बलबीर की सहायता से कार्य शुरू करवा कर, गाँव से चला जाता है|
अब जब वह देख नहीं सकता तब हिम से ढके पर्वत के अपार सौन्दर्य के समक्ष एक चट्टान पर बैठे हुए जब वह दिखाई देता है तो एकबारगी लगता है उसने कितना कुछ खो दिया है, अब कैसे जियेगा यह आदमी? लेकिन शान्ति और उसके छात्र से मिलते समय छात्र के चेहरे को स्पर्श करके उसे पहचानने के कारण राहुल के चेहरे पर जो प्रसन्नता व्याप्त होती है वह दर्शाती है उसने जीवन के इस सच को भी अंगीकार कर लिया है और अब उसके अन्दर कोई द्वन्द नहीं है, संघर्ष नहीं है| नेत्रों में दृष्टि रहे न रहे, वह इससे ऊपर उठ गया है|
कुमाऊँ के विलक्षण साहित्यकार दिवंगत शैलेश मटियानी की कहानियां जो सच्चाई विकरित करता संसार रचती हैं वैसा ही प्रभाव Goran Paskaljevic की यह फ़िल्म – देवभूमि, रचती है|
…[राकेश]
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