गुलज़ार की फिल्म किनारा (1977) का यह गीत कई मायनों में अनूठा है। ऐसा कोई और गीत हिन्दी फिल्मों में मुश्किल से ही मिलेगा। हिन्दी सिनेमा की सबसे खूबसूरत और विश्वसनीय रुप से रोमांटिक जोड़ियों में से एक हेमा मालिनी– धर्मेन्द्र की आकर्षक जोड़ी, जो कि परदे पर बड़े ही प्राकृतिक और स्वाभाविक रुप से सामंजस्यता, सहजता, और नजदीकी प्रस्तुत करती रही है, इस गीत की आत्मा को बखूबी प्रदर्शित कर गयी है।
गुलज़ार के बोल तो लुभावने हैं ही। गुलज़ार इस गीत में कविता और अकविता के मेल को बुनते हैं और दोनों विधाओं का बेमेल संगम इस गीत को विशिष्ट बनाता है। कानों को भूपेंद्र धर्मेन्द्र के लिये बहुत उपयुक्त्त गायक सुनायी देते हैं। उनके गाने का अंदाज़ ऐसा ही है जैसे धर्मेन्द्र सामान्य भूमिका में सहज रुप से अपने संवाद बोलते हैं।
पंचम ने इस गीत को गायन, वाद्य और संवादरुपी गायन द्वारा एक विशिष्टता प्रदान की है। पंचम, गुलज़ार द्वारा लिखे इस बेहद रोमांटिक गीत को सजाते हैं सिर्फ तारों वाले वाद्य-यंत्रों से निकले संगीत संयोजन के द्वारा और ढ़ोलक, ड्रम आदि के परिवार की सहायता बिल्कुल भी इस गीत में नहीं लेते हैं। यह गीत अपने ऑडियो स्वरुप में ही भरपूर जादू जगाता है और गुलज़ार ने इसके फिल्माकंन को इतना रोचक और गहन अनुभूति वाला गीत बनाया है कि देखने में इसका जादू कई गुना बढ़ जाता है।
ऐसा गीत वैसे तो है ही नहीं दूसरा हिंदी फिल्मों में पर अगर हो भी तो अकसर ऐसे गीत को निर्देशक वर्तमान में केन्द्रित करते हैं। गुलज़ार यादों के सहारे भूतकाल में जाकर उस वक्त्त के वर्तमान में तीनों कालों का समावेश कर देते हैं। सब कुछ आरती (हेमा मालिनी) की चंदन (धर्मेन्द्र) से जुड़ी स्मृतियाँ हैं और इन स्मृतियों में उस दौर की बातें हैं जब आरती और चंदन केवल प्रेमी ही नहीं थे बल्कि मंगेतर थे और उनकी शादी होने वाली थी। उनकी अतरंगता देखकर उनके पति-पत्नी होने का आभास होता है और इसी आभास से गुलज़ार छेड़छाड़ करते हैं इस गीत में। ऐसा सिर्फ गुलज़ार ही कर पाते हैं हिंदी फिल्मों में। अपने फिल्मी और साहित्यिक जीवन के सृजनशील दशकों में उन्होने स्त्री-पुरुष के प्रेम के कई कोण खंगाले हैं अपनी रचनाओं (गीतों, कहा्नियों और फिल्मों) के जरिये और हर बार प्रेम संबंधों के बारे में अपनी समझ और कल्पना से अपने पाठकों, श्रोताओं एवम दर्शकों को मोहित और एक हद तक हतप्रभ किया है। उनकी रचनाओं से रुबरु होकर ऐसा अक्सर लगता है कि ऐसा होता है पर इसे अभिव्यक्त्ति भी दी जा सकती है क्या?
गुलज़ार महसूस की जाने वाली कठिन अभिव्यक्ति को एक रुप प्रदान करने वाले कलाकार हैं।
इसी गीत के रस में डूब जायें तो इसका विश्लेषण अलग से करने की जरुरत नहीं है और गुलज़ार, पंचम, भूपेंद्र और हेमा-धर्मेन्द्र बड़ी सहजता से इस गीत के पीछे की कीमियागिरी को परत दर परत दर्शक के सामने खोलते चले जाते हैं और दर्शक मोहित हुआ इस प्रक्रिया का आनंद लेता है जैसे किसी फूल के कली से विकसित होने की प्रक्रिया को लगातार देख पाने से मिल सकता है।
गुलज़ार हेमा मालिनी को तो उनके पूरे स्त्रैण रुप में प्रस्तुत करते ही हैं, साथ ही वे धर्मेन्द्र, जो कि उस समय में ही-मैन की छवि में स्थापित हो गये थे, को भी एक संवेदनशील प्रेमी बना डालते हैं इस गीत में।
किसी ने फिल्म न भी देखी हो पर गीत को देखकर जाग्रत हुई उसकी कल्पना उसे इस गीत के लगभग पूरे इतिहास से परिचित करवा देगी।
एक ही ख्वाब कई बार देखा है मैंने
तूने साड़ी में उड़स ली हैं चाभियाँ घर की
और… चली आयी है,
बस यूँ ही मेरा हाथ पकड़ कर
एक ही ख्वाब कई बार देखा है मैंने
ये पंक्तियाँ स्पष्टतया बताती हैं कि नायक को सपने में भी ऐसा दीखता है कि उसकी प्रेमिका उसकी पत्नी बन गयी है और अब उसके जीवन और घर की मालकियत में अधिकार की सहभागी बन चुकी है। यह सपना उस दौर से संबंधित है जब प्रेमी शादी का इंतजार कर रहे हैं। उनमें नजदीकी है पर शादी अभी तक न हो पाने के कारण एक मर्यादाजनक दूरी भी है और इसी निकटता-दूरी के मध्य झूला झूलने का आनंद यह गीत लेता है और दर्शकों को दिलवाता है।
आरती बेहद उत्सुकता से चंदन की कल्पना को सुन रही है। कल्पना जरुर चंदन की है पर यह है उनके सांझे समय के बारे में। आरती और चंदन की अंतरंगता स्पष्ट है गीत के शुरु से ही।
चाभी को उड़स लेने की कल्पना से आरती रोमांचित हो उठी है। लाज ने आरती पर घेरा डालना शुरु कर दिया है और वह चंदन के सामने से उठकर दूर आ जाती है। चंदन अपनी ही कल्पना पर मोहित होकर खुश है। और जब उसकी तंद्रा भंग होती है तब आरती वहाँ सामने नहीं है।
मेज पर फूल सजाते हुये देखा है कई बार
गुलज़ार बेहद कुशलता से चंदन और आरती के वर्तमान और चंदन की कल्पना के दृष्यों का संगम करते हैं कभी तो कल्पना सच के दृष्यों पर आकर अपना पारदर्शी रंगीन परदा डाल देती है और कभी कल्पना में से वर्तमान का वास्तविक रुप झरोखा बना देता है। समय के दोनों रुपों के बीच एक सहज रुपांतरण होता रहता है और यह इस रोमांटिक गीत का एक अन्य तकनीकी आकर्षण है।
मेज पर फूल सजाते हुये देखा है कई बार…
पंक्ति को दिखाते हुये कैमरा आरती और चंदन दोनों पर अपनी पकड़ बनाये रहता है और चंदन उठकर आरती के पास आता है और उसके चेहरे पर और आँखों में शरारत उतर रही है और इन भावों को ढ़ंग से उभारने के लिये कैमरा घूम कर चंदन के चेहरे पर केंद्रित हो जाता है।
और बिस्तर से…
चंदन की अभी तक की कल्पना लुभाती आ रही है आरती को पर चंदन के शरारती रुख से उत्पन्न लज्जा भाव भी उन्हे घेर रहा है, उन्हे लगता है कि चंदन की कल्पना नितांत निजी क्षेत्र में प्रवेश कर रही है। यह समय है आरती के भाव दिखाने का…
वे कुछ हैरत भरी उत्सुक आँखों से चंदन की आँखों में झांकती हैं…कुछ ऐसा पूछते हुये कि यह कल्पना कहाँ जा रही है?
और बिस्तर से कई बार जगाया है तुझको …
और शर्माती हुयी आरती हँस कर वहाँ से उठ जाती हैं।
चलते फिरते तेरे कदमों की वो आहट भी सुनी है
आरती थर्मस से चाय स्टील के गिलास में डाल रही है और पास ही एक एल्यूमिनियम का लंचबॉक्स रखा है। इससे ऐसा आभास होता है कि यह घर चंदन का है और आरती खाने का सामान अपने घर से लायी है।
एक ही ख्वाब कई बार देखा है मैंने,
क्यों चिट्ठी है या कविता
अभी तक तो कविता है
इन पंक्तियों से ऐसा प्रतीत होता है कि गीत से पूर्व प्रेमियों के मध्य वार्तालाप चल रहा था जहाँ प्रेमी ने प्रेमिका को समर्पित कविता और चिट्ठी की बात की है। गीत ऐसे ही नहीं उपज गया है बल्कि यह उनकी निजी बातचीत का प्रसार है।
गुनगुनाती हुयी निकली है नहा कर जब भी,
अपने भीगे हुये बालों से टपकता पानी,
मेरे चेहरे पे छिटक देती है तू टिकू की बच्ची,
एक ही ख्वाब कई बार देखा है मैंने
गीत वर्तमान से फिर कल्पना में जाता है और दोनों काल फिर से आलिंगनबद्ध हो जाते हैं।
ताश के पत्तों पे लड़ती है
कभी कभी खेल में मुझसे
हेमा मालिनी ने अपने चारों तरफ कुछ रेखायें खींच रखीं थीं कि उन्हे परदे पर क्या-क्या नहीं करना है। और यह गुलज़ार का ही कमाल है और शायद धर्मेन्द्र के परदे पर हेमा मालिनी के प्रेमी की भूमिका में उपस्थित होने से भी इसमें सहायता मिली हो पर किनारा के धर्मेन्द्र के साथ वाले दृष्यों में हेमा मालिनी को उनकी परम्परागत छवि से थोड़ा अलग रुप में देखा जा सकता है। इस गीत में ही वे धर्मेन्द्र के फ्लाइंग-किस के प्रत्युत्तर में वैसा ही करती हैं। ऐसा उनकी उस दौर की अन्य फिल्मों में नहीं मिलेगा।
और…,
कभी लड़ती भी ऐसे कि बस…
खेल रही है मुझसे
लड़ना तो प्रेमियों के मध्य एक हमेशा रहने वाला भाव है। और आरती चंदन के उलाहने से खुश है पर चंदन फिर से आरती को छेड़ने के मूड में है।
और… आगोश में नन्हे को लिये
आरती चंदन की इस शरारती छेड़छाड़ पर बनावटी गुस्सा दिखाती है।
विल यू शट अप
चंदन बताता है…
और जानती हो टिकू, जब तुम्हारा ये ख्वाब देखा था
अपने बिस्तर पे मैं उस वक्त पड़ा जाग रहा था।
यह खुली आँखों का सपना है। यह चेतन दिमाग की प्रेमभरी कल्पनायें हैं। अतृप्त भावनाओं से उत्पन्न नींद में आने वाला सपना नहीं।
प्रेममयी क्षणों में प्रेम से सराबोर प्रेमी झूले पर झूलने के लिये बैठ जाते हैं।
किसी भी दृष्टिकोण से देखें, गीत के बारे में बस यही कहा जा सकता है – वाह प्रेम के तारों को झंकृत करता हुआ क्या ही अदभुत गीत है!
…[राकेश]
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