प्रकृत्ति में सौंदर्य बिखरा पड़ा है और विभिन्न तरीकों से प्रकृत्ति खूबसूरती की छटा बिखेरती है। कोई एक ही विशिष्ट वस्तु सुंदरता की प्रतीक नहीं है। ऐसी विशिष्टता पर पक्षी, पशु, पेड़, फूल, झील, नदी, पहाड़, और समुद्र आदि की किसी एक ही किस्म का एकाधिकार नहीं है।
अलग-अलग जगहों पर सूर्योदय तक की खूबसूरती विभिन्नता लिये होती है। समुद्र किनारे के सूर्योदय का सौंदर्य पहाड़ के सूर्योदय से भिन्न होता है और हरे-भरे पहाड़ों से अलग सौंदर्य हिम आच्छादित पर्वत श्रंखलाओं से घिरी घाटी में जन्मते सूर्योदय में होता है। सूरज तो एक ही है पर उसके उदय होने की लालिमा की छटा अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रुप और भाव लेकर आती है।
प्रकृत्ति के मूल संदेश का तात्पर्य यही है कि हर जीव में और हर पेड़-पौधे में अपना एक अलग सौंदर्य होता है और एक ही समय में विभिन्न किस्म की खूबसूरती एक साथ अस्तित्व में आ सकती है। संगीत के सभी राग अपने आप में महान हैं और अपना अपना सौंदर्य रखते हैं। धरा के इस भाग में तो सुंदरता बिखेरते तारों के एक समूह तक को सप्तऋषि कहा गया है। सातों का अस्तित्व है, न किसी से बड़ा न किसी से छोटा।
भारत में भी समय समय पर बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार और गायक एक ही समय में अपनी अपनी कला की विशिष्टता लिये हुए अस्तित्व में रहे हैं और उन्होने जगत को अपनी कला के सौंदर्य से मोहित किया है और आनंद क्या होता है इसकी अनुभूति एक साधारण एवम सामान्य मनुष्य को भी करायी है।
हिन्दी सिनेमा जगत में भी ऐसे असाधारण गायक हुये हैं और वे एक ही काल में अपनी सुगंध चारों तरफ बिखेरते रहे हैं। हरेक की कला का अपना ही सौंदर्य रहा है। वे तुलनीय नहीं है बल्कि सप्तऋषियों के समूह की तरह उनके समूह भी प्रशंसनीय और वंदनीय हैं।
कभी किसी का कोई गीत गुरुत्वाकर्षण बल का अहसास खत्म करा देता है तो कभी दूसरे का कोई गीत भीषण गरमी में अंतर्मन को शीतलता के अहसास से शांत कर जाता है, कभी किसी और का गीत हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में पूरे अस्तित्व को नरम-नरम आंच से सेने लगता है। किसी का गीत बरखा के अहसास से भीगा जाता है तो किसी का गीत अंतर्मन को प्रफुल्लित कर जाता है। किसी का गीत दुख की सच्चाई से रुबरु कराकर मन को शोधित करने की प्रक्रिया से गुजारने लगता है तो कोई गीत प्रेम का अंकुरण कर जाता है। किसी का गीत एकांतवास की महिमा जाग्रत कर जाता है तो कोई गीत की भावना को जगाता हुआ मनों को जोड़ता चला जाता है।
यह सब कुछ और बहुत कुछ हो जाता है संगीतकार, गीतकार और गायक की कलाओं के संगम के कारण।
संगीतमयी हिन्दी फिल्मों के बहुत सारे शिखर दशकों से अस्तित्व में आते रहे हैं। 1950 में बनी जोगन फिल्म भी एक ऐसा ही शिखर है। यह फिल्म तो अपने विषय के कारण ही अनूठी है और न पहले और न ही बाद में किसी अन्य हिन्दी फिल्म ने प्रेम, सन्यास और जीवन दर्शन को इतने सहज और प्रभावी ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। बुलो सी रानी द्वारा सृजित इसका संगीत तो अनूठा है ही। मीराबाई के भजनों से लेकर, हिम्मत राय शर्मा, प. इन्द्र चन्द्र, बूटा राम और खुद निर्देशक केदार शर्मा की लेखनी से निकले एक से बढ़कर एक गीत इस फिल्म में चमक रहे हैं। हर गीत का अपना वैभव है, अपनी चमक है. अपनी सार्थकता है।
हरेक गीत जिस भाव के लिये वह रचा गया है वैसे भाव श्रोता में जगा देता है।
फिल्म में भक्त्ति रस के बहुत सारे गीत हैं। दुख को खंगालने वाले भजन भी हैं और शुद्ध निरपेक्ष भाव वाले भजन भी और सन्यस्त भाव वाले भजन भी। कुछ गीत हैं जो चरित्रों की भावनाओं को प्रदर्शित करते हैं।
ऐसा ही एक गीत है हिम्मत राय शर्मा द्वरा रचित एवम गीता दत्त द्वारा गाया हुआ गीत – जरा थम जा तू ए सावन मेरे साजन को आने दे
जैसे तोता सिखाने पर बोल सकता है वैसे अगर कोयल हिन्दी सीख पाती तो जो वह गाती वह जोगन फिल्म के इस गीत से मिलता जुलता होता।
यह गीत गीता दत्त ने ऐसे अंदाज़ में गाया है जितना कि कोई भी उच्च कोटि का गायक प्रकृत्ति के विराट स्वरुप में समाहित होकर गा सकता है। इस गीत में प्रयास नहीं है और यह पहाड़ में अपने उदगम के बाद मुक्त्त रुप से बहती नदी के प्रवाह के समान प्राकृतिक रुप से बहता जाता है और श्रोता के मन के अंदर उतरता जाता है। इस गीत से ज्यादा प्राकृतिक होकर गाना मनुष्य के लिये संभव नहीं है।
कभी बेहद शांत चित्त की अवस्था में कहीं वन में कूक रही कोयल को सुनने का सुअवसर प्राप्त हो और बाद में उतने ही शांत चित्त से इस गीत को सुनने का मौका निकाला जाये तो ऐसा ही प्रतीत होगा यह गीत एक स्त्री ने नहीं गाया है बल्कि कोयल ही हिन्दी में कूक रही है।
नायिका मन ही मन अपने साजन के आने की संभावना से प्रसन्न है और बरस रही बरखा से निवेदन कर रही है कि उसे कुछ समय के लिये रुक जाना चाहिये जिससे कि उसके साजन वहाँ आ सकें। वाद्य-यंत्र अपने सामूहिक प्रयास से पहले ही वातावरण बना देते हैं कि नायिका बहुत प्रसन्नचित्त अवस्था में है।
जरा थम था तू ए सावन
मेरे साजन को आने दे आने दे
मेरे रुठे पिया को फिर
मेरी बिगड़ी बनाने दे
नायिका को पता है उसकी मीठी मनुहार सावन को रोकेगी नहीं पर अपने भाव उदगार करने के आनंद को जीने का मौका वह चूकने नहीं देना चाहती। बल्कि वह बरखा के बरसने से जन्मे प्राकृतिक वातावरण से मन में उपजे भावों का भी आनंद ले रही है। वह उत्सुक है प्रकृति से बरस रहे सौंदर्य का उपयोग अपने श्रंगार में करने के लिये।
ओढ़नी पे बिजलियों की गोट मैं लगाऊंगी
पीस के काली घटायें काजल बनाऊँगी
अपनी कल्पना में पूरी तरह से डूब गयी नायिका कुछ उदास हो जाती है गाते गाते।
गरज बादल की अपने दिल की धड़कन में बसाऊँगी
यह उदासी क्या इसलिये है कि अपने धड़कते ह्रदय की पुकार अपने साजन को सुनवाने के लिये उसे बादलों की गरज उधार लेनी पड़ रही है?
पर यह उदासी क्षण भर में ही गायब हो जाती है जब वह फिर से बरखा के प्राकृतिक सौंदर्य के मोहपाश से बंधकर फिर से कल्पना में खो जाती है।
तेरी नन्ही फुहारें गूँद के माला बनाऊँगी
बरखा की बूँदों से जुड़ी हुयी इससे खूबसूरत कल्पना और क्या होगी?
सलोने के रिझाने को मुझे सपने सजाने दे
जरा थम जा तू ए सावन मेरे साजन को आने दे
बहुत अच्छे संगीत के साथ ही नायिका की भूमिका में गहराई तक डूबी हुयी नरगिस का बेजोड़ अभिनय सावन और साजन के बहाने नायिका के अंतर्मन में उठे भावों को सिनेमा के परदे पर प्रस्तुत करने वाले बेहद खूबसूरत गीत को विश्वसनीय जीवंतता प्रदान करती हैं।
गीता दत्त जब मन को प्रफुल्लित कर देने वाले अंदाज़ में जरा थम जा तू, गाती हैं तो संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के मन जो कि जीवन की आपाधापी में कोलाहलपूर्ण व्यस्तता में रम चुके हैं, वे एकबारगी तो थम ही जाते हैं। एक बार थमने के इस मौके का स्वाद ले चुका मन इससे आगे जाकर प्रयास करके शांति को जीवन में पुनः ला सकता है।
जीवन में इधर-उधर आते-जाते हुये कभी कूकती कोयल को सुनने का सुअवसर मिल जाये तो इस गीत को जरुर याद कर लें।
…[राकेश]
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