सोचूँ तो सारी उम्र मोहब्बत में कट गई

देखूँ तो एक शख़्स भी मेरा नहीं हुआ (जॉन एलिया)

मनुष्य जीवन काटना हमेशा ही दुधारी तलवार पर चलने का काम है| एक तरफ जीवन अपने रस में मनुष्य को इस कदर डुबोता जाता है कि मनुष्य की लिप्सा समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती और आसक्तियां उसे इस उससे जोड कर उसे भुलावे में रखे रखती हैं और वह इन रागों के वशीभूत हो स्थायित्व की कामनाओं से घिर जाता है| दूसरी तरफ यही जीवन बड़ी बेरहमी से मनुष्य के सम्मुख ऐसी ऐसी बेवफाईयां प्रस्तुत करता रहता है कि मानव मन के भीतर “वीतराग” आलाप भरने लगता है और मन में चौबीसों घंटे विरक्ति ज्वार भाटा लाती रहती है|

धरा पर अन्य जीवित अस्तित्वों जैसे वृक्षों, और पशु-पक्षियों में भी अपने जैसों की करनी से क्या विरक्ति उत्पन्न होती है? इसका ठीक ठीक अनुमान अभी तक संभव नहीं हुआ है| क्या पशु पक्षी और वृक्षों में भी उनके अपने अस्तित्व से जन्में या साथ साथ किसी एक ही अस्तित्व से जन्में अस्तित्वों के धोखे से गहन दुःख उत्पन्न होता है, विरक्ति उत्पन्न होती है? या वे इन करीबियों से कोई अपेक्षा ही नहीं रखे जिससे जुदाई के बाद उन्हें पीड़ा से वैसी स्थिति से नहीं गुजरना पड़ता जहां उन्हें अपना अस्तित्व ही बेमानी लगने लगे!

मेरे बच्चे बेगाने हो जायेंगे

अपरिचय से मेरा गला रुंध जाएगा

भरे हुए घर में ठौर नहीं होगा

मैं आउंगी तुम्हारे पास,

तुम मौत से प्यार कर रहे होगे

और मुझे भूल गए होगे (दूधनाथ सिंह)  

दिल्ली में भगत सिंह के जीवन और बलिदान पर आधारित फ़िल्म – शहीद, के प्रदर्शन समारोह में, भारत के विलक्षण प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के अनुरोध – जय जवान जय किसान, के नारे पर लोगों को प्रेरित करने वाली कोई फ़िल्म बनाएं, पर अभिनेता मनोज कुमार ने दिल्ली से मुंबई की ट्रेन यात्रा में ही ऐसी एक फ़िल्म “उपकार” की कहानी और संकल्पना तैयार कर ली थी| पहली बार घोषित रूप से निर्देशन का उत्तरदायित्व ओढने वाले मनोज कुमार को मुख्य भूमिका स्वयं ही निभानी थी और अपने छोटे सौतेले भाई के चरित्र की भूमिका में वे संघर्षरत नवोदित अभिनेता राजेश खन्ना, जिन्हें अभी तक एक भी फ़िल्म नहीं मिली थी, को लेना चाहते थे लेकिन उसी समय राजेश खन्ना ने अभिनय प्रतिभा प्रतियोगिता जीत ली और उन्हें प्रतियोगिता के वादों के मुताबिक़ उन्हें तीन फ़िल्में मिल गयीं, जिनमें चेतन आनन्द की “ आख़िरी ख़त” सबसे पहले बनी| कभी मनोज कुमार ने शशि कपूर से वादा किया था कि जब भी वे निर्देशन के क्षेत्र में उतरेंगे तब उन्हें अपनी फ़िल्म में अभिनय का अवसर देंगे| लेकिन छोटे भाई की भूमिका ऋणात्मक भावों से भरी हुयी थी और शशि कपूर अपने को नायक की भूमिकाओं में स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे, मनोज कुमार को लगा इस भूमिका को करने से शशि कपूर को हानि हो सकती है, सो अंततः उन्होंने अपने छोटे भाई की भूमिका निभाने के लिए प्रेम चोपड़ा को अनुबंधित कर लिया|

फ़िल्म में एक बेहद महत्वपूर्ण चरित्र पैरों से अपाहिज मलंग का था जो एक तरह से पूरे गाँव के विवेक का रखवाला है| वह गांववालों के लिए एक दर्पण सरीखा है जो अपने कटु वचनों से उन्हें सत्य बताता रहता है| कबीर की भाँति बिना लाग लपेट के साधुक्कड़ी भाषा में सच बोलने वाला फक्कड़ मलंग नायक भारत (मनोज कुमार) से स्नेह रक्त है और उसकी सच्चाई और ईमानदारी का कायल होने के बावजूद दुनिया के छल भरे तौरतरीकों के विरुद्ध उसे सावधान भी करता रहता है| मलंग संन्यस्त नहीं है क्योंकि भारत के दुःख से वह दुखी हो जाता है, उसे अपने जीवन में संभवतः बहुत धोखे मिले होंगे, जिनके अनुभवों के आधार पर वह भारत को आगाह करता रहता है|

उसी चरित्र मलंग के लिए, जब भारत से उसका छोटा सौतेला भाई – पूरण (प्रेम चोपड़ा), जमीन में हिस्सा मांगकर बंटवारा चाहता है, मनोज कुमार एक गीत गवाना चाहते थे|

संगीतकार जोड़ी कल्याण जी आनंद जी, के आनंद जी ने अपने कुछ समय पहले वास्तविक जीवन में घटी कुछ घटनाओं पर आधारित एक दार्शनिक गीत गीतकार- इन्दीवर, से लिखवाया था| मनोज कुमार को वह गीत बेहद पसंद आया लेकिन संगीतकार जोड़ी को इस बात पर आपत्ति थी कि इतना अच्छा गीत परदे पर प्राण प्रस्तुत करें| प्राण की छवि एक दुर्दांत खलनायक की थी| पहले तो मनोज कुमार के सभी शुभचिंतकों ने उन्हें इस भूमिका में प्राण को लेने से रोकने की कोशिश की थी लेकिन मनोज कुमार के मन मस्तिष्क में एकदम स्पष्ट था कि इस भूमिका को केवल प्राण ही निभायेंगे| इतना विश्वास तो प्राण को भी स्वंय पर नहीं होगा कि खलनायक की भूमिकाओं में बेहद प्रसिद्ध होने के बाद दर्शक उन्हें ऐसी धनात्मक भूमिका में स्वीकार भी करेंगे? आखिर राज कपूर, नर्गिस की आह में वे अपने हाथ जला ही चुके थे जिसमें उन्होंने एक अच्छे चरित्र की भूमिका निभाई थी और बेहद अच्छे संगीत और अभिनय पक्ष के बावजूद “आह” बहुत बड़ी असफल फ़िल्म थी|

मनोज कुमार नए निर्देशक थे लेकिन वे कल्याण जी आनंद जी की आपत्तियों के समक्ष डटे रहे और प्राण पर ही गीत का फिल्मांकन करने का अपना अंतिम निर्णय घोषित कर दिया| इस निर्णय से नाराज़ संगीतकारों की सिफारिश पर पहले यह गीत किशोर कुमार के पास गया जिन्होंने यह सुनते ही कि परदे पर गीत को प्राण गायेंगे, गीत गाने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे सिर्फ नायक के चरित्र के लिए गीत गाते हैं, खलनायक के लिए नहीं| हालांकि फ़िल्म – हाफ़ टिकट, में वे प्राण के लिए “आके दिल पे लगी सीधी कटारिया” गा चुके थे लेकिन उन्होंने “उपकार” में प्राण के लिए गीत गाने से इनकार कर दिया|

गाना मन्ना डे पर पहुंचा और उन्होंने इस सुअवसर का लाभ उठाने में रत्ती भर भी कमी नहीं छोडी और इस दार्शनिक गीत को इतनी खूबसूरती से गाया कि फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद जब इस गीत के डंके देश में चारों तरफ बज रहे थे, किशोर कुमार अपनी गलती स्वीकारने मनोज कुमार के पास गए| यह बेहद खूबसूरत गीत किशोर कुमार के भाग्य में तो था और इस गीत ने उनके दरवाजे पर दस्तक भी दी पर उन्होंने अपनी करनी से इस गीत को घर से बाहर निकाल दरवाजा बंद कर लिया|

मन्ना डे ने इस गीत को पूरे जी जान लगा कर गाया है| पचास वर्ष बीतने के बाद भी गीत आज तक श्रोताओं के मन मस्तिष्क को भावनाओं से भर देता है| गायक मुकेश भी इस गीत में उपस्थित भाव प्रवणता के कारण इसे गहराई प्रदान कर सकते थे, उन्होंने ऐसे कई गीत गाये भी हैं| रफ़ी, किशोर भी इसे शानदार अंदाज़ में गा सकते थे| केवल विचार के लिए ऐसी कल्पना असंभव नहीं कि दर्शन और भावों से भरे इस गीत को यदि सचिन देब बर्मन अपनी गायिकी प्रदान करते तो एक अद्भुत अनुभव से हिन्दी सिने संगीत के श्रोता गुज़र पाते| पर इस गीत का प्रारब्ध मन्ना डे की ही गायिकी में अस्तित्व में आना था| यह शानदार गीत मन्ना डे के गाये हिंदी गीतों में श्रेष्ठ गीतों में से एक है|   

कसमें वादे प्यार वफ़ा सब

बातें हैं बातों का क्या

कोई किसी का नहीं ये झूठे

नाते हैं नातों का क्या

कसमें वादे प्यार वफ़ा…

आदमी के कथनों, वादों का कोई विशेष मोल नहीं होता, परिस्थितिवश, भावावेश में या अपने को बेहतर दिखाने हेतु व्यक्ति बहुत से वादे कर दिया करते हैं| बेहद नजदीकी व्यक्ति भी वक्त आने पर अपने वादे से मुकर सकते हैं और वे परिस्थितियों को इस वादाखिलाफी का कारण बता सकते हैं| वास्तव में बहुत ही कम इंसान ऐसे होते हैं जिनका संकल्प दृढ होता है और जो अपने कहे/दिए शब्दों पर टिके रह सकते हैं, बाकी बस देने के लिये वचन दिया करते हैं|  

नाते रिश्ते भी समयाधीन संबंध हैं और समय के साथ इनके स्वरूप भी बदलते जाते हैं| जब इस दुनिया में माँ और उसकी संतान के रिश्ते में बदलाव आ सकता है तो बाकी सभी रिश्ते तो गौण हैं| ममता का, वात्सल्यता का रिश्ता सबसे गहरा होता है और इस रिश्ते का सबसे ज्यादा लाभ उठाने वाले ही लाभ देने वाले से अपना रिश्ता बदल लिया करते हैं| भाई-भाई, भाई-बहन, पिता-संतान और मैत्री जैसे रिश्ते तो उतने मजबूत हो भी नहीं सकते जितने माँ और संतान के मध्य होते हैं| माँ की ममता की तरफ से यह गीत नग्न सच का बखान करता है| कोई किसी का नहीं, ये झूठे नाते हैं, नातों का क्या…

माँ (कामिनी कौशल) का अपना बेटा पूरण (प्रेम चोपड़ा), सौतेले बेटे भारत (मनोज कुमार) के त्याग और समर्पण को भुला बैठा है| जिस अग्रज ने अपने भविष्य पर ताला लगाकर इसलिए काम करना शुरू कर दिया कि गरीबी में छोटे भाई की शिक्षा दीक्षा हेतु उसका अपनी पढ़ाई छोड़ काम पर लग जाना आवश्यक है, उसके त्याग को ही पूरण तुच्छ निगाह से नहीं देख रहा बल्कि अपनी माँ से भी सम्बन्ध तोड़ने को तैयार है क्योंकि उसके अनुसार माँ उसे कम और सौतेले बेटे को ज्यादा प्रेम करती है|  

उपरोक्त पंक्तियों को गाये जाने के दौरान कैमरे द्वारा बारी बारी से मलंग, भारत, पूरण, और माँ के चेहरों के भावों को पकड़ना गीत के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देता है|  

मन्ना डे, भारत की दयनीय स्थिति से घायल मलंग के छलनी हुए ह्रदय के भावों के अनुरूप  अभिव्यक्ति से गीत आरम्भ करते हैं, जिससे भावों का दुःख विस्तारित होना शुरू हो जाता है|

होगा मसीहा सामने तेरे

फिर भी न तू बच पायेगा

तेर अपना खून ही आखिर

तुझको आग लगायेगा

आसमान पे  

आसमान पे उड़ने वाले

मिट्टी में मिल जायेगा

कसमें वादे प्यार वफ़ा…

यह अन्तरा हिन्दू परम्परा से सम्बंधित है| बनारस के मणिकर्णिका घाट पर प्रति दिन कई बार अस्त्तित्व में आते सत्य का बखान इसमें है| मृत शरीर को शमशान ले जाते लोगों का घोष- राम नाम सत्य है, जीवन की नश्वरता का बोध शवयात्रा में सम्मिलित सभी लोगों को हो जाए, इसका प्रयत्न है|

मलंग, भारत को चेता रहे हैं कि बहुत भले कर्म करने से भी मृत्यु से बचाव नहीं है, एक न एक दिन मौत अपने आगोश में ले ही लेगी, अतः व्यवहारिक बनकर आज के जीवन को सुधार ले|

पूरण को मलंग चत्ताते हैं कि आज भले ही अहंकारवश वह आकाश में उड़ रहा है और देवरूप भाई को धोखा डे रहा है अपनी माँ को ठेस पहुंचा रहा है लेकिन एक दिन उसे भी मिट्टी में मिल जाना है फिर क्यों ये धोखे?

सुख में तेरे साथ चलेंगे

दुख में सब मुख मोड़ेंगे

दुनिया वाले तेरे बनकर

तेरा ही दिल तोड़ेंगे

देते हैं भगवान को धोखा

इन्सां को क्या छोड़ेंगे

कसमें वादे प्यार वफ़ा…

संत कबीर ने सदियों पहले एक अध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक सत्य और तथ्य का काव्यात्मक वर्णन किया था|

दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय

जो सुख में सुमिरन करे उसे दुःख काहे को होय

उसी दोहे की तर्ज पर इन्दीवर उपरोक्त अंतरे की पहली दो पंक्तियाँ रचते हैं| सुख में सभी बड़ी आसानी से साथ आ जाते हैं लेकिन किसी के दुःख में साथ निभाना कठिन है, यह संवेदनशीलता, समय, मानसिक और भावनाओं के संतुलन, आदि बहुत सी बातों की परीक्षा लेता है| अपने हित की पूर्ती के लिए लोग संग साथ बढाते हैं और अपनी हित पूर्ती के बाद व्यक्ति की कोई चिंता नहीं करते, उससे दूरी बना लेते हैं| फ़िल्म उद्योग में तो ये पंक्तियाँ सदैव चिरतार्थ होती रहती हैं जहां संबंध व्यावसायिक सफलता के ऊपर निर्भर करते हैं| गीतकार, संगीतकार, गायक, अभिनेता, निर्देशक और निर्माता सभी के अनुभवों में ये पंक्तियाँ बार बार सही सिद्ध हुयी होंगी|

मलंग मनुष्य मात्र की चारित्रिक कमी पर उंगली उठाते हैं कि जब मानव सदैव सर्वत्र सर्वव्यापी ईश्वरीय शक्ति से धोखा करता है तब उसके सामने दूसरे इंसान की क्या हैसियत है| इंसान को धोखा देना तो मानव के लिए एक मामूली बात है|

इस गीत की व्यक्तिगत संबंधों पर आधारित पक्तियां यहीं समाप्त हो जाती हैं लेकिन फ़िल्म के अंत से कुछ पहले जब भारत भारतीय सेना में भरती होकर पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण किये जाने पर युद्ध में घायल हो जाता है तब युद्ध में टूटी फूटी इमारतों के खंडहरों के मध्य दुखी घुमते मलंग हरेक समाज को चुभने वाले बोल गाते हैं –

काम अगर ये हिन्दू का है

मंदिर किसने लूटा है

मुस्लिम का है काम अगर ये

खुदा का घर क्यूँ टूटा है

जिस मज़हब में जायज़ है ये

वो मज़हब तो झूठा है

कसमें वादे प्यार वफ़ा…

दिल्ली के पास हरियाण के एक गाँव में वास्तविक स्थल पर फ़िल्म की शूटिंग करने से फ़िल्म के कथानक का असर ज्यादा पड़ा है, और इस गीत के फिल्मांकन में भी स्टूडियो के नकली सेट से उलट असली खेतों में शूट करने से गीत बहुत ज्यादा प्रभावशाली बन पड़ा है|

उपकार” से ही निर्देशक मनोज कुमार ने सिद्ध कर दिया था कि गीतों के फिल्मांकन में वे सिरमौर निर्देशकों में से एक हैं|

…[राकेश]

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