Pratidvandi-001जीवन हमेशा ही पलक झपकते ही अपना रुख बदल लेता है| बस एक क्षण का समय ही पर्याप्त होता है जीवन की दिशा बदलने वाली घटना के घटित होने के लिए| आसानी से चल रहा जीवन एक तीव्र मोड़ ले लेता है जब भी कुछ अनपेक्षित घट जाता है|

सत्यजीत रे की फिल्म -‘प्रतिद्वंदी’ सिद्धार्थ नामक युवक का जीवन दिखाती है| सिद्धार्थ राजकुमार सिद्धार्थ की भांति ऐसी परिस्थितियों का सामना करता है जो उसके विचारों और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को परिवर्तित कर देती हैं| परिस्थितियों से पिट पिट कर, मध्यम मार्ग का अनुसरण करता हुआ वह एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहां वह तैयार हो जाता है जीवन को उसी रूप में स्वीकारने के लिए जिस रूप में वह उसके सामने आता है|

सिद्धार्थ के आसानी से चलते जीवन को बहुत बड़ा झटका लगता है उसके पिता के अचानक हुए देहांत से| इस अनायास आई विपदा से उसका परिवार घोर आर्थिक विपत्तियों से जूझने लगता है और उसे आर्थिक अभाव के कारण मेडिकल की पढ़ाई बीच में छोड़ देनी पड़ती है| पिता की मृत्यु की अकेली घटना उसके अच्छे और स्थिर व्यावसायिक जीवन जीने के सपने को तोड़ देती है|

सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित कथा पर सत्यजीत रे ने बेहद प्रभावशाली फिल्म बनाई| सिद्धार्थ को नियमित फ़िल्मी परिभाषाओं से नायक का दर्जा दे पाना मुश्किल है| एक साधारण घर के संघर्षरत युवा के जीवन का सूक्ष्म विश्लेषण गहराई और विस्तार से फिल्म दिखाती है|

पिता की मृत्यु घर के तीन जवान सदस्यों को अलग-अलग ढंग से प्रभावित करती है| सिद्धार्थ मेडिकल की पढ़ाई बीच में छोड़कर नौकरी ढूँढने लग जाता है जिससे परिवार का भरण पोषण कर सके| उसका भाई नक्सल आंदोलन से जुड़ जाता है इस आशा में कि हिंसक क्रान्ति से समाज में वांछित बदलाव आयेंगें| सिद्धार्थ की माँ उससे शिकायत करती है कि उसकी बहन का दफ्तर में अपने बॉस से चक्कर चल रहा है| वह बेटी के लिए चिंतित है और सिद्धार्थ बहन के देर से घर लौटने पर उससे इस बात को करने में परेशानी महसूस करता है पर हिम्मत जुटाकर वह इतना बोल देता है कि शायद उसका बॉस अपनी पोजीशन का लाभ उठाकर उसका शोषण कर रहा है| बहन उसकी बातों को महत्व न देते हुए उसे अपने बॉस से जाकर मिलने के लिए कहती है जिससे कि वह सिद्धार्थ की नौकरी कहीं लगवाने में सहायता कर सके|

सिद्धार्थ का चरित्रचित्रण फिल्म की जान है| उसकी बुद्धिमत्ता, उसके परेशानी से भरे जीवन, उसके जीवन के बीते हुए वाक्यों से ग्रसित उसका आज का जीवन, सब कुछ विस्तार से, गहराई से और रोचक ढंग से दर्शाया गया है|

सिद्धार्थ फिल्म के शुरुआत के पलों में एक साक्षात्कार देने जाता है और वहाँ उसे बहुत से आवेदकों की भीड़ मिलती है| कोई उससे कहता है कि उसका नंबर आने में कम से कम 3-4 घंटे तो लग ही जायेंगें| सिद्धार्थ इमारत से बाहर आकर दर्जी की तलाश करने लगता है जो उसकी पैंट की मरम्मत कर सके|

अभी हाल ही में उसके जीवन में बड़े बदलाव आए हैं और अब उसे नौकरी की तलाश है ताकि वह अपने परिवार की जिम्मेदारी उठा सके| पर अभी उसमें उर्जा अहै और आशा है कि उसे योग्य नौकरी मिल जायेगी|

बुद्धिमत्ता के हिसाब से वह इस नौकरी के लिए जरुरत से ज्यादा गुणी है| साक्षात्कार में बुद्धिमत्ता और सजग दिमाग से दिए गये उसके उत्तर साक्षात्कारकर्ताओं को स्तब्ध कर देते हैं|

जब एक साक्षात्कर्ता उससे पूछता है कि स्वतंत्रता के समय इंग्लैंड का प्रधानमंत्री कौन था तो सिद्धार्थ पहले पूछता है – किसी स्वतंत्रता सर!

साक्षात्कर्ता स्पष्टतः हैरान परेशान है ऐसे प्रश्न पूछे जाने से और स्पष्ट करता है कि भारत की स्वतंत्रता|

अन्य साक्षात्कर्ता पूछता है कि पिछले दशक की सबसे बड़ी घटना वह किसे समझता है?

सिद्धार्थ – विएतनाम युद्ध!

साक्षात्कर्ता – तुम क्यों समझते हो कि विएतनाम युद्ध मनुष्य के चाँद पर जा पहुँचने से बड़ी घटना है?

सिद्धार्थ – विज्ञान की प्रगति से मनुष्य का चाँद पर जाना अपेक्षित था लकिन विएतनाम में जिस तरह वहाँ के साधारण नागरिकों ने जीवट दिखाकर संघर्ष किया उससे वह अचंभित रहा कि साधारण मनुष्य उस स्तर का प्रतिरोध भी कर सकते हैं|

साक्षात्कर्ता – क्या तुम कम्यूनिस्ट हो?

सिद्धार्थ – मैं किसी पार्टी का सदस्य नहीं हूँ|

स्पष्टतया उसे नौकरी नहीं मिलनी और नहीं ही मिलती|

ऐसे ही संघर्षरत दिनों में किसी रोज बोरियत से जूझता और कुंठा से भरा सिद्धार्थ फिल्म देखने जाता है पर सिनेमाघर में बम फटता है भगदड़ में उसकी घड़ी टूट जाती है और जब वह उसकी मरम्मत कराने घड़ी की दुकान पर जाता है तो पाता है उसके पास घड़ी की मरम्मत के लिए पैसे ही नहीं हैं| ये सब छोटे छोटे दृश्य सिद्धार्थ के चरित्र चित्रण में बड़ी भूमिकाएं निभाते हैं|

सिद्धार्थ के मन में शान्ति नहीं है और उसका दिमाग तनावों से ग्रस्त रहता है| तनावग्रस्त मानसिकता में वह सड़क पर खड़ा है और एक खूबसूरत महिला को अपनी ओर आते देखता है| महिला को देखकर वह अपने जीवन के भूतकाल में पहुँच जाता है जहां उसके मेडिकल के प्रोफ़ेसर क्लासरूम में स्त्री की शारीरिक संरचना के संबंध में व्याख्यान दे रहे हैं| मेडिकल की पढ़ाई बीच में छोड़ देने का मलाल उसे हमेशा कचोटता है| यदि उसकी ज़िंदगी में सब कुछ सामान्य होता तो उसकी उम्र में एक महिला का शारीरिक सौंदर्य उसके भीतर कुछ अन्य भाव जगाता न कि मेडिकल की किताबों में समाया स्त्री-संरचना का तकनीकि ज्ञान उसके जेहन में कौंधता|

यह बहुत बार होता है जब वह मेडिकल की अपनी क्लास में वापिस पहुँच जाता है| उसका अधूरा सपना और बीता जीवन उसे हमेशा परेशान करते हैं| मेडिकल कालेज छोड़ने के बावजूद भी वह होस्टल जाकर पाने पुराने साथियों के यहाँ जाकर वक्त व्यतीत किया करता है| उसका दोस्त उसे परेशान देख उसे एक नर्स के पास ले जाता है जो वेश्यावृत्ति में लिप्त है पर सिद्धार्थ का मन वहाँ भी नहीं रमता|

वापसी में एक युवती उसे सड़क पर मापने घर के सामने खड़ी मिलती है| युवती उससे सहायता मांगती है| उसके घर की बिजली चली गई है, सिद्धार्थ फ्यूज ठीक करके बिजली वापिस ले आता है| युवती, क्या, उसकी मित्र बन जाती है और धीरे धीरे दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं और प्रेम भी करने लगते हैं पर उनके जीवन की परिस्थितियाँ उन्हें परस्पर प्रेम को स्वीकारने से रोकती हैं|

आखिर एक खाली पेट भजन में तो राम नहीं सकता| और एक संघर्षरत व्यक्ति जिसका जीवन तनावों से घिरा हुआ हो, प्रेम संबंध में पड़ने की छूट ले नहीं सकता| सिद्धार्थ के सामने यक्ष प्रश्न है एक अदद कायदे की नौकरी पाने का जिससे वह परिवार क भरण पोषण कर सके|

जीवन सिद्धार्थ को हाथों से फिसलता दिखाई देता है| घर पर अपनी बहन को मॉडलिंग करने के फितूर से सावधान करते हुए वह चेताता है कि मॉडलिंग में देह-प्रदर्शन की मांग हो सकती है और उससे यह उत्तर सुनकर कि उसकी फिगर अच्छी है, वह अपने को अपनी बहन को रक पाने में असमर्थ पाता है|

वह इतने सारे संघर्ष एक साथ नहीं कर सकता कि हर बात की परवाह करे, हरेक को अपने अनुसार चला सके| धीरे धीरे समस्याएं एक नये सिद्धार्थ को गढती जाती हैं, जो सच को स्वीकारने के लिए तैयार है|

सिद्धार्थ को सेल्समैन की नौकरी मिलती है लेकिन कलकत्ता से दूर एक छोटी जगह| वह आशा रखता है कि वहाँ जगह मिलते ही वह पता ठिकाना क्या को लिख देगा जिससे वे दोनों नियमित रूप से पत्र-व्यवहार के माध्यम से एक दूसरे के संपर्क में रहें|

धृतमान चटर्जी ने सिद्धार्थ की भूमिका में प्रभावशाली अभिनय का प्रदर्शन किया है|

सत्यजीत रे क निर्देशन तो जीनियस होता ही है, इस फिल्म में उनके दो सिनेमेटोग्राफर्स – सोमेंदू राय , पूर्णेंदू बोस का फिल्मांकन गजब का है, जिनके काम की सहायता से सत्यजीत रे ने सिद्धार्थ की मनोवैज्ञानिक यात्रा और उसके भ्रमों और उसके दिमाग में उत्पन्न मायाजलों को बखूबी परदे पर उतारा है| सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास को उन्होंने बड़ी ही कलात्मकता के साथ दृश्यात्मक बना दिया है| उस दौर के कलकत्ता और उस दौर में युवाओं के जीवन और उनकी परेशानियों को उन्होंने परदे पर साकार कर दिया है| उन्होंने सिद्ध कर दिया कि समकालीन मुद्दों पर वृतचित्र के चरित्र से अलग हट कर रोचक फिल्म बनाई जा सकती है जो समकालीन समस्याओं का गहराई से विश्लेषण कर सके|

बेरोजगारी और युवाओं की समस्याएं 1970 के दशक से आज के दौर तक कतई कम नहीं हुयी हैं| आज भी ज्यादा योग्यता वाले युवा अपने से कमतर योग्यता वाली नौकरी निकलने पर उस पर टूट पड़ते हैं क्योंकि उन्हें जीवन यापन का साधन जुटाना है| आज भी मंहगाई के दौर में भी निजी शिक्षण संस्थानों को छोड़ भी दें तो सरकारी शिक्षण संस्थान अलग अलग प्रवेश परीक्षाएं आयोजित करते हैं, आवेदकों से अच्छी फीस अवीदन पत्रों के बदले वसूलते हैं, छात्रों को कई बार भिन्न भिन्न शहरों में प्रवेश परीक्षाएं देने जाना पड़ता है, तब जाकर उनहे प्रवेश मिलता है| जबकि सरकार आराम से यह कर सकती है कि अखिल भारतीय परीक्षा हो जिसके स्कोर के आधार पर हर शिक्षण संस्थान अपने यहाँ आवेदकों को प्रवेश दे|

बेरोजगारी, मंहगाई, देश में यहाँ वहाँ तरह तरह के जातीय या सम्प्रदायिक तनाव, आतंकवाद, हिंसात्मक राजनीतिक आंदोलन, सब कुछ ऐसा ही है जैसा सत्तर के दशक में था और इस नाते भी सत्यजीत रे की फिल्म “प्रतिद्वंदी” न केवल अपनी कलात्मक गुणवत्ता बल्कि अपनी विषय वस्तु के आधार पर आज तक प्रासंगिक बनी हुयी है|

यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उस जमाने में युवाओं की समस्याओं को लेकर सत्यजीत रे ने इतनी श्रेष्ठ फिल्म बना दी पर हिंदी सिनेमा क्या बना रहा था?

…[राकेश]

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