बड़े बाँध बनने से, माइनिंग के कारण, बहुत बड़े उद्योग लगने के कारण हुये स्थानीय लोगों के विस्थापन को नेहरू युग में देश में अन्यत्र रह रहे लोग महसूस भी न कर पाते होंगे| तब देश के नेता ने एक स्वप्न दिया था निर्माण का, विकास का और सबकी आँखों में वही सपने तैरते थे| भाखड़ा नांगल बाँध आसानी से बन गया होगा क्योंकि देश के सबसे प्रिय नेता ने ऐसे निर्माण को आधुनिक युग के मंदिर कहा था और जनता को भरोसा दिलाया था कि इससे अंततः उनका भला ही होगा|
विस्थापित खुद भी बहुत ज्यादा बोल नहीं पाते होंगे और विस्थापन को विकास की वजह से उत्पन्न आवश्यक परेशानी मान कर सहन कर जाते होंगे| फिर धीरे- धीरे विस्थापन के विरोध में आवाजें उठने लगीं| और टिहरी बाँध जैसी परियोजनाएं अपनी तय सीमा से कम से कम दो दशक बाद अपनी अपनी तय लागत से बहुत ज्यादा लागत में सम्पन्न हो पायीं| विस्थापन के साथ पर्यावरण के प्रश्न भी उठने लगे| भारत में सामाजिक अध्ययन करने की परंपरा ही नहीं रही| यह कभी विश्लेषित ही नहीं किया गया कि ऐसी परियोजनाओं का कितना वास्तविक लाभ देश को मिला, इसे क्या क्या नुकसान हुए, विस्थापित लोगों को नई जगह बसाया तो गया पर इस विस्थापन से उनके जीवन पर क्या असर पड़ा? ये सब हमें नहीं पता क्योंकि यहाँ इन सब बातों का अध्ययन नहीं क्या जाता| विकास बनाम पर्यावरण और विस्थापन अब एक हमेशा का रहने वाला संघर्ष बन चुका है पर परियोजनाएं बनती रहती हैं और लोग विस्थापित किए जाते रहते हैं|
आज भी भारत की 70% आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है जहां शहरों जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव रहा है, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा तो बहुत बाद में आती है, काम काज और पेयजल की सुविधा भी ऐसी नहीं कि सबको काम मिल सके और सबको पीने योग्य पानी मिल सके| सन 1947 में आजादी मिलते के बाद से सत्ता का ज़्यादातर ध्यान शहरों और शहरी आबादी पर ही रहा, सारी योजनाएँ उन तीस प्रतिशत लोगों के लिए ही बनीं जो शहरों में रहते थे, क्योंकि शायद यह माना गया कि उनका विकास तुलनात्मक रूप से आसान होगा और शहर अमीर, सुविधासंपन्न होंगे तो आसपास के ग्रामीण इलाके अपने आप ऊपर उठने लगेंगे| लेकिन ऐसा नहीं हुआ| गांधी का ग्राम-स्वराज और आत्मनिर्भर गाँव का सपना पूरा करने की ओर कदम ही नहीं उठाए गए| गांवों में बसे विभिन्न प्रकार के कार्यों में कुशल कारीगर लोगों के पेट पर लात अंग्रेज़ ही मार गए थे, स्वतंत्र भारत में भए उस ग्रामीण योग्यता पर खास ध्यान नहीं दिया गया और धीरे धीरे गाँव में जीविका के साधन जुटा पाने में असमर्थ ग्रामीण शहरों में आकर बस्ने लगे और शहर दर शहर स्लम्स बसते चले गए| कम जमीन या बिलकुल भी जमीन न पाने वाले गाँव के गरीब शहरों में आकर मजदूरी करने लगे और गाँव से शहर की और जाने का यह सिलसिला सन 1947 से ही अनवरत रूप से कायम है| बिमल रॉय ने अपनी फ़िल्म – दो बीघा जमीन में इस निर्वासन को बखूबी दिखाया|
गरीबी हटाओ के राजनीतिक नारे जनता को लुभाते रहे पर देश से गरीबी न हटी| इसमें राजनीति के साथ समूचा देश दोषी है| देश के वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री सबसे ज्यादा दोषी हैं जो देश से गरीबी हटाने की दिशा में बातों और खोखली नीतियों को प्रस्तुत करने के सिवा कुछ खास नहीं कर पाये|
बात लोगों के विस्थापन से शुरू हुयी थी| बड़ी परियोजना के कारण हुये विस्थापन से पीड़ित विस्थापित लोगों जैसा अन्य लोग शायाद ही महसूस कर पाते हों| एक विस्थापन सन 1947 में देश के बँटवारे के वक्त भी देखा गया था जो अपनी प्रकृति में ही बेहद भयावह था| लूटमार, हत्या और बलात्कार के खूनी पंजों से बचते बचाते निरीह लोग इधर से उधर, उधर से इधर विस्थापित हो रहे थे| चारों तरफ फैली हिंसा की दहशत के साये तले टूटे फूटे लोग विस्थापित हो रहे थे| उस बँटवारे और विस्थापन की स्मृतियों ने पीड़ितों की पीढ़ियों को दशकों तक सताया| शायद उनकी आज की पीढ़ी में भी वो भाय अब तक व्याप्त हो|
उस बँटवारे में विस्थापितों में अमीर भी थे और गरीब भी| इस बार सन 2020 में कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियों में जो विस्थापन भारत ने देखा उसे झेलने वाले सिर्फ और सिर्फ गरीब तबके के लोग थे| ये वही लोग थे जो कभी से देहात से शहरों में आजीविका की खातिर आते रहे थे| इनमें बहुत बड़ी संख्या दैनिक कमाई वाले लोगों की थी| कोरोना के कारण आकस्मिक रूप से घोषित लॉक डाऊन से उत्पन्न स्थितियों में कहीं अस्पष्ट और अनिश्चित भविष्य के भय से, कि कब तक ऐसे ही रहना पड़ेगा, और कहीं रोजगार से हटाये जाने से और कहीं किराये के मकान से निकाले जाने के कारण गरीब मजदूरों के हुजूम के हुजूम पैदल ही अपने मूल स्थानों को जाने के लिए सड़कों पर निकल पड़े| भारत ने संभवतः पहली ही बार दैनिक स्तर पर मानवीय मजबूरी के सैंकड़ों उदाहरण देखे| राजनीतिक दलों में इन गरीब मजदूरों पर भी छिड़े वाक युद्ध से इतर इन दृश्यों ने समूचे देश को द्रवित किया| लोगों ने जगह जगह सामर्थ्यानुसार गरीबों की सहायता भी की| जगह जगह भोजन के भंडारे आयोजित किए गए| पर इतना अवश्य ही कहा जा सकता है कि इस पीड़ित दौर ने गरीबों के मन मस्तिष्क में जल्दी न मिट पाने वाली पीड़ा, संदेह और टूटन की रेखाएँ अवश्य ही खींच दी होंगी| यूं तो पूरे देश को तय करना है कि गरीब घायल मन को कैसे राहत पहुंचाएगा? कहीं न कहीं कलाकारों की ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी होती है| वे न केवल कमजोर की आवाज ही अपनी कला के माध्यम से उठाते हैं बल्कि उनमें आशा का संचार भी करते हैं|
हिन्दी फिल्मों की बात करें तो ऐसे कलाकारों में राज कपूर का नाम सबसे ऊपर आता है जिनमें बहुत बड़ी आबादी के मानस को गहराई में स्पर्श करने की अद्भुत क्षमता थी| श्री 420 के आवारा हूँ, रमैया वास्ता वैया हो या दिल का हाल सुने दिल वाला जैसे उनके गीत हों, उनके बहुत से गीत ऐसे हैं जो देश, काल और सामाजिक स्तर जैसी सरहदों को पार कर एक ही काल में करोड़ों लोगों के दिल को छूने की क्षमता रखते हैं| आश्चर्य नहीं कि देश से बाहर विदेश में भी लोग उनके मुरीद रहे|
उनके समूह वाले गीत संघर्षरत लोगों के दिल की बात बोलते थे, उनके दिलों से दुःख का कांटा निकालते थे और उनमें जिजीविषा भरते थे और उनके दिल में आशा का संचार करते थे| कला का यह भी एक उत्तरदायित्व है और इस दायित्व का निर्वाह उनके गीतों और फ़िल्मों ने सदैव किया|
आज के मजदूरों की स्थिति पर सबसे सटीक गीत राज कपूर पर फ़िल्माया गीत ही प्रतीत होता है| साहिर लुधियानवी द्वारा लिखित और खय्याम द्वारा संगीतबद्ध यह गीत ऐसी स्थितियों के साथ भरपूर संबंध जोड़ता है जैसी आज देश देख रहा है|
चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्ताँ हमारा
रहने को घर नही है, सारा जहाँ हमारा
चीन-ओ-अरब हमारा …
खोली भी छिन गई है, बैंचें भी छिन गई हैं
सड़कों पे घूमता है, अब कारवाँ हमारा
जेबें हैं अपनी खाली, क्यों देता वरना गाली
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
चीन-ओ-अरब हमारा …
देश भर में जगह जगह निराश्रय गरीब रोज़ ही सड़कों पर तैनात खुद को सौंपी गई ड्यूटी को निबाहते पुलिसकर्मियों से टकराते रहते हैं| कहीं मानवीय व्यवहार तो कहीं झिड़की मिलती होगी| यह भारत का एक कड़वा सत्या है कि यहाँ हर स्तर पर व्यक्ति की जेब देखकर उसके साथ व्यवहार होता है|
जितनी भी बिल्डिंगें थीं, सेठों ने बाँट ली हैं
फ़ुटपाथ बम्बई के, हैं आशियाँ हमारा
सोने को हम कलन्दर, आते हैं बोरी बन्दर
हर एक कुली यहाँ का, है राज़दाँ हमारा
चीन-ओ-अरब हमारा …
कहते हैं उन्नति के शिखर पर ही समाजवाद जैसी व्यवस्था फल फूल सकती है| क्या देश एकजुट होकर उस स्थिति को पाने के लिए प्रयास कर सकता है? 130 करोड़ भारतवासी गर्त में जाती अपनी अर्थव्यवस्था को संभाल सकते हैं या नहीं? इतनी बड़ी आबादी वाले देश को तो निर्यात पर निर्भर होने की भी जरूरी नहीं| यहाँ बने उत्पाद यहीं बिक जाएँ तो धन इस हाथ से उस हाथ जाकर सबके घरों को चलाने लगे| हम पिछड़ कहाँ रहे हैं? समाज के सबसे निम्न स्तर पर रह रहे लोगों की क्रय शक्ति बढ़े तो अर्थव्यवस्था में अपने आप जान पड़ने लगेगी| यह तो तय है कि इतने बड़े देश में चंद लोग ही करोड़पति, अरबपति हो जाएँ और बाकी गरीबी रेखा से नीचे रह जाएँ तो देश कभी भी न तो शक्ति बन पाएगा और न ही आत्मनिर्भर|
तालीम है अधूरी, मिलती नही मजूरी
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा
चीन-ओ-अरब हमारा …
देश में ज्ञान-विज्ञान का विस्तार इस प्रकार करने की आवश्यकता है कि गुणी नागरिक स्वयं ही अपने कर्मों से देश को ऊपर उठाने लगें| जब 130 करोड़ लोग प्रयास करेंगे तो क्या नहीं हो सकता? हमें हमारी सामर्थ्य की याद दिलाने कोई जामवंत न आयेगा| हमे स्वयं ही प्रयास करने पड़ेंगे| भारत न तो निष्क्रिय कौम है न ही कमजोर| इसकी हजारों साल पुरानी संस्कृति और सभ्यता में हरेक क्षेत्र में उच्चतम शिखर छूने वाले लोग होते रहे हैं, यह किसी भी तरह से कृपण देश नहीं है|
पतला है हाल-अपना, लेकिन लहू है गाढ़ा
फौलाद से बना है, हर नौजवाँ हमारा
मिल-जुल के इस वतन को, ऐसा सजायेंगे हम
हैरत से मुँह तकेगा, सारा जहाँ हमारा
चीन-ओ-अरब हमारा …
भारत इस समय दुनिया का सबसे युवा देश है लेकिन अगर देश इस युवा शक्ति का उपयोग न कर पाया तो यही युवा शक्ति न केवल अपने को जाया कर देगी बल्कि अवसर न पाने से कुंठित हो चुकी उसकी शक्ति देश के समक्ष बड़ी बड़ी समस्याएँ उत्पन्न कर अकती है| वहीं अगर देश अपने युवाओं को कायदे की शिक्षा, योग्यता, अच्छा स्वास्थ्य और अच्छे अवसर और ऊंचे लक्ष्य दे पाया तो यह देश विकास के मार्ग पर “क्वाण्टम लीप” ले सकता है|
पर ऐसा करने के लिए आज की वास्तविक स्थिति को स्वीकारना भी आवश्यक है| गाँव देहात में रहती 70% आबादी को दरकिनार करके यह देश अब और तरक्की नहीं कर सकता| शहरी क्षेत्र पर ध्यान केन्द्रित करके जितना विकास देश कर सकता था वह उसने पिछले 70 सालों में कर लिया है अब शहरी तिलों से और तेल न निकलेगा| यह सिद्ध बात है कि अंग्रेजों द्वारा भारत को लूटने से पहले भारत का वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी 27% थी और यह समूचे देश, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों के कुटीर उद्योगों की हिस्सेदारी बहुत बड़ी रही होगी, की भागीदारी के बलबूते हुया होगा| भारत कृषि प्रधान नहीं बल्कि उद्योग प्रधान देश रहा है| अंग्रेज़ भारत को भूखा नंगा छोड़ गए| आज भारत ने अपने लिए भोजन और कपड़े तो जुटा लिए हैं पर वैश्विक बाजार में उसी स्थिति, जो अंग्रेजों से पहले थी, को प्राप्त करने के लिए देश के कोने कोने को शिक्षित, योग्य, और उद्योग आधारित बनाना पड़ेगा|
राज कपूर तुम गा गए थे
वो सुबह कभी तो आएगी
अब देखना यही है
वो सुबह कब आयेगी…?
…[राकेश]
Leave a Reply