फ़िल्म – दिल बेचारा, की विशेषता है मौत के निराशा भरे माहौल में प्रेम के आशामयी अंकुर उगाना| मौत का छाता तना होने के बावजूद प्रेम की कोंपले फूट पड़ती हैं और इस तरह यह एक सफल प्रेम की फ़िल्म है, असफल प्रेम की गाथा नहीं| फ़िल्म में हल्के स्पर्श, भीनी भीनी सुगंध और जिह्वा पर फैल जाने वाले स्वाद की प्रकृति में प्रेम विस्तार पाता है|
तुम मुझसे दूर मत जाओ,
एक दिन के लिए भी दूर मत जाओ,
क्योंकि …
क्योंकि…,
मुझे नहीं पता कि इसे कैसे कहना होगा:
एक दिन की अवधि बहुत लम्बी है मेरे लिए तुम्हारी जुदाई में व्यतीत करने के लिए,
मैं सारा दिन तुम्हारा इंतजार करता रहूंगा,
ऐसे जैसे एक सोता हुआ खाली स्टेशन करता है
जब ट्रेनों को कहीं और खड़ा होने के लिए भेज दिया जाता है|
मुझे छोड़ कर मत जाओ,
एक घंटे के लिए भी दूर मत जाओ मुझसे, क्योंकि
तब व्यथा की छोटी-छोटी बूँदें एक साथ बहेंगीं,
धुआँ जो एक घर की तलाश में भटका करता है,
मेरी ओर मुड़ जायेगा
और मेरा टूटा हुआ ह्रदय उसकी जकड में घुट जायेगा|
ओह, काश कि तुम्हारा साया कभी भी समुद्र तट पर खोए नहीं,
काश तुम्हारी पलकें कभी शून्य में स्पंदन न करने पाएं,
मुझे एक सेकेण्ड के लिए भी छोड़ कर मत जाना, मेरे प्रियतम!
क्योंकि उस एक क्षण में तुम बहुत दूर जा चुकी होओगी
और भ्रमित मैं, सारी पृथ्वी पर तुम्हे खोजता घूमूंगा,यह पूछता हुआ,
“क्या तुम वापिस आओगी?”
क्या तुम मुझसे दूर चली जाओगी?
मुझे मरता हुआ छोड़कर!
Don’t Go Far Off (Pablo Neruda)
अनुवाद :- …[राकेश]
हृषिकेश मुकर्जी की दो अविस्मरणीय फ़िल्में हैं ‘आनंद’ और ‘मिली’| आनंद में राजेश खन्ना ने मृत्यु की और कदम बढ़ाते हुये भी बचे जीवन को भरपूर ज़िंदादिली से जीने वाले कैंसर ग्रस्त व्यक्ति की भूमिका इस लुभावने अंदाज़ में निभाई कि जीवन में एक बार भी आनंद देखने वाले व्यक्ति के लिए आनंद की मृत्यु ऐसी प्रतीत हुयी जैसे उसके किसी नजदीकी की मृत्यु हुयी हो| लोगों ने आनंद से जीने के अंदाज़, जीने की कला भी सीखी|
ज़िंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए – जैसा मंत्र और सूत्र वाक्य भी आनंद के माध्यम से ही भारत को समझ में आए|
आनंद के जीवन में प्रेम के अंकुर भी फूटे थे पर उसकी यादों को उसकी कसक को उसकी टीस को अपनी सब छोटी बड़ी बातें अपने मित्रों संग साझा करने वाला आनंद किसी से साझा नहीं करना चाहता और उसे अपने दिल की गहराइयों में छिपाकर अपने साथ ले जाना चाहता है|
आनंद के कुछ बरस बाद हृषिकेश मुकर्जी फिर से एक कैंसर ग्रस्त मरीज के ऊपर बनी फिल्म लेकर आए| इस बार की फ़िल्म- मिली में नायिका मिली (जया भादुडी/बच्चन) ज़िंदादिली से भरपूर लड़की थी जो दैनिक जीवन की छोटी छोटी खुशियों को जीकर अपने शेष जीवन को समृद्ध और सार्थक करती रहती है| न चाहते हुये भी उसके जीवन में प्रेम के अंकुर फूट पड़ते हैं जब उसकी इमारत के एक फ्लैट में एक अमीर युवक रहने आता है जिसे अपना अकेलापन और खामोशी पसंद हैं| युवक और मिली एकदम विपरीत स्वभाव के इंसान हैं| जब तक युवक को मिली के कैंसर ग्रस्त होने का पता चलता है तब तक उसके लिए बहुत देर हो चुकी है और उसका दिल उसको जीने के तरीके सिखाने वाली मिली से प्रेम में सराबोर हो चुका है| आनंद में आनंद की मृत्यु दिखाकर दुःख और दर्द की इंतेहा दिखाकर हृषिकेश मुकर्जी इस बार थोड़ी आशा का समावेश करना चाहते थे| लिहाजा अंत में विवाह करके युवक मिली को लेकर विदेश चला जाता है जहां शायद उसका इलाज हो जाये| दर्शक एक रूमानियत भरे आशावाद से भर जाते हैं|
‘दिल बेचारा’ एक तरह से ‘आनंद’ और ‘मिली’ की ही प्रेम कहानी है और दोनों कैंसर ग्रस्त हैं| मौत से दोनों की होड़ लगी है कि कौन पहले धरा से रवाना होगा| एक दूसरे के साथ प्रेम में हो जाने के उपरांत ऊपर वर्णित पाब्लो नेरुदा की कविता भांति दोनों को यह भय भी सताता है कि अगर उनमें से एक पहले चला गया तो पीछे छुटा हुआ प्रेमी कैसे अपने प्रियतम की जुदाई को सहन कर पाएगा? नायक तो नायिका और अपने दोस्त, जो स्वयं कैंसर के कारण अपनी दोनों आँखों की रोशनी खो चुका है, दोनों को एक चर्च में बुलाता है ताकि जो स्मृति भाषण वे उसकी मौत के बाद देंगे उन्हे उसके सामने अभी बोल सकें| आनंद जैसे नायक से किसी भी उसके नजदीकी की जुदाई असहनीय है और नायक के सामने ही उसकी मृत्यु के बाद दिये जाने वाले संदेश को बोलते समय प्रेमिका और मित्र का भावुक हो जाना दर्शा देता है कि दिल लूटने वाला नायक कितनी गहराई से उनके दिलों में घुसपैठ कर चुका है|
यूं तो जन्मते ही इंसान मौत की तरफ कदम बढ़ाने शुरू कर देता है लेकिन मृत्यु को शर्तिया शीघ्रता से बेहद करीब लाने वाली बीमारियों से ग्रसित अपने नज़दीकियों को न असली जीवन में और न सिनेमा के परदे पर रोजाना एक-एक पग मौत की तरफ बढ़ते देखना आसान नहीं है| फ़िल्म के नायक की भूमिका में सुशांत सिंह राजपूत के दुखद संदिग्ध निधन से जूझते देश के लिए ‘दिल बेचारा’ देख पाना आसान नहीं है| सुशांत के प्रशंसकों के लिए तो बिलकुल भी आसान नहीं इस फ़िल्म को देख पाना|
नोबल पुरस्कार से सम्मानित रशियन लेखक Aleksandr Solzhenitsyn का एक बहुचर्चित उपन्यास है Cancer Ward, जो लगभग एक आत्मकथात्मक उपन्यास है| कैंसर अस्पताल के एक कैंसर वार्ड में घटित उस महा गाथा में प्रेम कहानी का समावेश भी है और दिल बेचारा देखते समय उस उपन्यास की याद आ जाना स्वाभाविक है| कैंसर मरीज भी प्रेम में हो सकते हैं| भले ही उनके जीवन के बहुत कम दिन बचे हों प्रेम के अंकुर उनके हृदय में अभी भी फूट सकते हैं|
एक कैंसर ग्रस्त अविवाहित लड़की का माता पिता होना बेहद कठिन बात है| उनके सम्मुख हमेशा द्वंद रह सकता है कि बेटी के बचे दिनों में उसके जीवन को खुशियों से भर दें या सामाजिक रीतियों को समाज के नियमों का पालन करते रहें और इस बात का ख्याल भी रखें कि बेटी की हर हसरत को पूरा करते हुये कहीं कुछ ऐसा न हो जाये कि उसकी परेशानी और न बढ़ जाये|
दिल बेचारा की रोगी नायिका का पिता उसके जीवन को हर छोटी बड़ी खुशियों से भर देना चाहता है अतः वह बेटी के हर कृत्य के प्रति उदार बना रहता है, माँ बहुत सी बातों का ख्याल करके बेटी को थोड़े अनुशासन से बांधे रखना चाहती है जब तक कि उसे भरोसा नहीं हो जाता कि बेटी का प्रेमी उससे उतनी ही प्रेम करता है जीतना वे दोनों करते हैं और उसके बचे जीवन में प्रेमी का प्रेम भी आ जाये तो बेहतर ही है|
फ़िल्म नायक को सिर्फ एक बार उसके माता पिता के साथ दिखाती है| आज तो दुनिया जानती है सुशांत सिंह ने स्कूली शिक्षा के समय ही अपनी माँ को खो दिया था| शायद इस कमी के कारण ही सुशांत ने अपना कलेजा निकाल कर रख दिया है फ़िल्म में अपनी सिनेमाई माँ के साथ के मिनट भर के दृश्य में| बिना संवाद के उस दृश्य में अभिनय में भावनाओं की गहराई को समाहित करके बेहद सच्चे अभिनय का नमूना सुशांत ने प्रस्तुत किया है|
फ़िल्म के हरेक फ्रेम में सुशांत यही अहसास कराते हैं कि उनके निधन से देश ने कितनी बड़ी संभावना वाला अभिनेता सितारा खो दिया है| वे एक ऐसे अभिनेता सितारे के रूप में सामने आते हैं जो साधारण व्यक्ति की भूमिका को साधारण व्यक्ति के रूप में ही निभा सकने की भरपूर क्षमता रखता था|
आनंद जैसे हंसमुख और ज़िंदादिल व्यक्ति के चरित्र में सुशांत परदे पर उपस्थित चरित्रों को ही नहीं बल्कि दर्शक को भी गुदगुदाते हैं, लुभाते हैं और हँसाते हैं| फ़िल्म के अंदर फ़िल्म बनाने वाले दृश्य हास्य से भरपूर हैं|
सुशांत सिंह के आकर्षक अभिनय के अलावा, नायिका की भूमिका में संजना सांघी और उनके मित्र की भूमिका में साहिल वैद और नायिका के माता पिता की भूमिकाओं में शाश्वत चटर्जी और स्वास्तिका मुकर्जी ने अभिनय में सुशांत का भरपूर साथ दिया|
फिल्म भावनाओं की पिच पर खेला गया प्रेम रूपी टेनिस मैच है जिसमें दर्शक को पता है दोनों ही खिलाड़ियों को मैदान से बाहर हो जाना है पर जब तक वे मैदान पर हैं क्या खेल दिखाते हैं!
ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजिये
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
और यहाँ तो जीवन ही आग का दरिया है और इश्क ने ही कुछ राहत दी हुई है| कोविड-19 द्वारा उत्पन्न मौत के भय से घिरे काल में “दिल बेचारा” जीवन के हर पल को भरपूर जी लेने की सीख देती है|
…[राकेश]
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