महाश्य जी, विद्वान होते हुये भी कई मर्तबा, नादानी कह लें या उनकी मासूमियत, विचित्र स्थितियों में फँस जाते थे।

सामान्य जन की परिभाषा से देखें तो हर पहुँचे हुये व्यक्ति की तरह महाश्य जी भी विरोधाभासों से भरे व्यक्ति थे। उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वे ऐसा ही करेंगे जैसा कि दुनिया वाले उनसे उम्मीद लगाये बैठे हैं।

लोग अगर ये समझ लें कि अब तो महाश्य जी की उम्र हो चली है और अब तो वरिष्ठ नागरिकों वाले लक्षण उनमें दिखायी देंगे तो वे सबको चौंकाते हुये मैदान में बच्चों के साथ फुटबॉल खेलते हुये दिखायी दे जाते थे। पुल से नदी में छलांग लगाते दिखायी दे जाते थे। तैरने का शौक तो उनका उम्र भर न गया। उनका बस चलता तो वे जल-समाधि लेकर ही मृत्युलोक से अलविदा, दसविदानिया, गुडबाय, चुस, एडियोस, सायोनारा आदि कहकर जाते। पर कभी किसी को मुकम्मल जहां मिलता कहाँ है?

महाश्य जी यूँ तो जीवन में नये से नये परिवर्तन के प्रति एकदम बिंदास ढ़ंग से खुले दिल वाले मेजबान बने रहते थे बस एक संगीत ही ऐसा क्षेत्र था जहाँ उन्हें नये परिवर्तन कभी रास नहीं आये। महाश्य जी ठहरे उन बिरले लोगों में से, जिन्होंने बड़े बड़े संगीतकारों के सम्मुख बैठकर उन्हें सुना था।

बिजली वाले रेकार्ड प्लेयर के होते हुये और कैसेट प्लेयर्स के धड़ल्ले से हर तरफ चलन में आने के बाद भी नब्बे के दशक तक घर पर वे हाथ से चाबी देकर चलने वाले ग्रामोफोन पर संगीत सुनते रहे। हजारों नायाब तवे (रेकार्ड्स) उनके पास थे। उनके संग्रह की विशेषता की बात पता चली उनके एक मित्र की मार्फत।

उनका मित्र मानवेंद्र उम्र में उनसे कम से कम पच्चीस साल छोटा रहा ही होगा| संगीत का ऐसा रसिक प्रेमी कि इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के बाद एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी में दो साल भी न टिका और नौकरी छोड़कर अपने शहर वापिस आकर उसने “स्टेट ऑफ द आर्ट” कही जा सकने  वाली संगीत संबन्धित एक दुकान – लय-ताल, खोल ली, जहां रेकार्ड्स, कैसेट्स, वाद्य यंत्र और संगीत संबन्धित पुस्तकों का अद्भुत संग्रह उपलब्ध था| इन विशेषताओं के कारण उसे दुकान नहीं संग्रहालय कहना उचित जान पड़ता था| संगीत के प्रति दीवानगी के कारण अपने इस शौक को ही उसने व्यवसाय भी बना लिया था। उसके पास दुर्लभ संगीत का खजाना होने के कारण संगीत के व्यसनी आसपास के शहरों से भी वहाँ आया करते थे| दुर्लभ संगीत के मामले में महाश्य जी और मानवेंद्र की जम कर पटरी खाती थी|  दोनों के संगीत संग्रह एक दूसरे के पूरक थे| अपने पास संगीत संबंधी किसी वस्तु की अनुपलब्धता के समय महाश्य जी के संगीत संग्रह के भरोसे मानवेंद्र ब्लांइड खेल जाते थे और आगंतुक से  दो तीन दिन में आने के लिये कह देते थे| महाश्य जी के संगीत संग्रह ने उन्हें कभी निराश भी नहीं किया।

मानवेंद्र ने घर से बाहर भी संगीत सुनने के लिये महाश्य जी को एक वॉकमैन दिया तो अब वे कैसेट्स भी जुटाने में लगे रहने लगे| मानवेंद्र ने अपने और उनके रिकार्ड्स के संग्रह से तवे लेकर कैसेट्स में रेकार्ड कर दिये|

एक पुरानी कहावत को मानवेंद्र, महाश्य जी की शान में कुछ यूँ कहते थे

“जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे हमारे नवी“।

पुरानी कहावत के कवि की तर्ज पर तुक भिडाने को वे महाश्य जी को नबी न कह “नवी” कहते थे और ऐसा कहना गलत भी नहीं था| संगीत के मामले में महाश्य जी ने न दिन देखा न रात, न आँधी न तूफान, न दूरी देखी न धन, बस कहीं अच्छे संगीत का कार्यक्रम देखना सुनना है तो महाश्य जी वहाँ पहुँच ही जाते थे। किसी नायाब संगीत के रेकार्ड के बारे में पता चल जाये जो उनके पास न हो तो रात दिन एक कर देते थे उसे पाने के लिये।

महाश्य जी तो क्या शास्त्रीय और क्या अर्द्ध शास्त्रीय, क्या भजन और क्या गज़ल, सब तरह के संगीत की गहरी जानकारी रखते थे। फिल्मी दुनिया से निकले अच्छे संगीत के भी वे कद्रदान थे। हाँ संगीत में कमियाँ उन्हें बर्दाशत नहीं होती थीं। एक बार फिल्मी दुनिया के एक बड़े संगीतकार (जिनका नाम जग जाहिर करना मुनासिब बात न होगी ) के बहुत बड़ी शोहरत पाने वाले एक गीत को सुनकर उन्होंने रेकार्ड कम्पनी के पते पर संगीतकार को चिट्ठी लिख भेजी थी कि मियाँ आप और आपके गायक ने यहाँ गलती कर दी है। आपके गुरु, आज जिंदा होते तो आपका कान उमेठ देते, कैसे उनका शिष्य ऐसी गलती कर सकता है?

संगीतकार ने शर्मिंदा होकर चिट्ठी लिखकर गलती मानी और उनके शहर आने पर उनसे मिलने की गुजारिश भी की।

महाश्य जी के बच्चों में तो संगीत के प्रति ज्यादा शौक कभी नहीं रहा, हो सकता है पिता के तवे सुन सुन कर ही उनका शौक बचपन में ही पूरा हो गया हो। पर महाश्य जी के नाती पोतों ने ज़रूर उनकी नाक में दम कर दिया एक अच्छा स्टीरियो म्यूजिक सिस्ट्म खरीदने के लिये। बच्चों की न भी सुने आदमी पर नाती पोतों की बात टालना जरा टेढ़ी खीर है।

नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में किसी वर्ष अक्टुबर माह में दशहरे अवकाश के किसी दिन अंततः महाशय जी ने हथियार डाल ही दिये बच्चों की जिद के सामने और वे एक अच्छा सा स्टीरियो म्यूजिक सिस्ट्म खरीदने के लिये राजी हो गये। बच्चों ने उन्हें बताया कि एक नई खुली दुकान फलां फलां म्यूजिक सिस्ट्म खरीदने पर दस कैसेट्स फ्री दे रही है। उन्होंने अपनी पसंद की कैसेट्स के नाम दे दिये कि फ्री वाले कोटे से इन कैसेट्स को ले आना और दादा पर मेहरबानी करते हुये उन्हें भी दस में से दो कैसेट्स अपनी पसंद की लाने की पेशकश कर दी।

संयोग से अपने परिवार में अनायास उत्पन्न किसी परेशानी के कारण मानवेंद्र दो माह के लिये अपने पैतृक गाँव गए हुये थे सो उनसे सलाह करने का मौका भी नहीं था।

विवश होकर महाश्य जी म्यूजिक सिस्ट्म खरीदने बच्चों द्वारा सुझाई गई दूकान पर पहुँच गये। मॉडल आदि तो सब बच्चों ने पहले ही तय कर दिया था। जब महाश्य जी दुकानदार को बच्चों द्वारा मंगायी गयी कैसेट्स की लिस्ट दे रहे थे तो कुछ लड़के लड़कियाँ हल्ला गुल्ला मचाते दुकान के अंदर आये।

आते ही उन्होने दुकानदार से कहा,” बाबा सहगल देना एक“।

दुकानदार ने उनसे कहा कि जरा मैं भाईसाहब को कैसेट्स दे दूँ।

अरे हमें भी जल्दी है, पार्टी में पहुँचना है जल्दी से। हमें बाबा सहगल दे दो, इन्हें देते रहना बाद में।

महाश्य जी ने कुछ चकित होकर नौजवानों की भीड़ को देखा और दुकानदार से बच्चों को उनकी कैसेट देने को कहा।

नौजवानों के जाने के बाद महाश्य जी ने लगभग खुश होते हुये दुकानदार से कहा,” कमाल है आजकल के बच्चे भी ऐसा संगीत सुनते हैं! ”

दुकानदार ने ज्यादा ध्यान न देते हुये कहा,”हाँ जी आजकल तो यही चल रहा है इन नौजवानों में“।

महाश्य जी ने दुकानदार से कहा कि वह बच्चों की लिस्ट में मौजूद आठ कैसेट्स के सिवा एक कैसेट बेगम अख्तर या मल्लिका पुखराज की दे दे और उन्हें भी एक कैसेट बाबा सहगल की दे दे और ये दोनों कैसेट्स एक अलग लिफाफे में बंद कर दे।

दुकानदार ने आठ कैसेट्स एक पैकेट में और बाकी दो कैसेट्स एक अलग पैकेट में बंद करके उन्हें दे दीं| खुश महाश्य जी ने कहा,” नौजवान पीढ़ी उतनी भी बिगड़ नहीं रही है संगीत के मामले में जितना हम सोचते थे आजकल के शोर शराबे वाले बेसुरे संगीत को सुनकर। चलो अदब से तो नहीं बोल रहे थे, पर कम से कम सहगल को बाबा तो कह रहे थे।”

रास्ते भर वे कितने ही गानों की पंक्तियाँ गुनगुनाते रहे।

बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाये…,

ग़म दिये मुस्तकिल…,

ऐ दिल ए बेकरार झूम…,

दुख के अब दिन बीते…,

दिया जलाओ जगमग जगमग…,

मेरे सपनों की रानी…,

घर पहुँच कर उन्होंने बच्चों को म्यूजिक सिस्टम और उनकी कैसेट्स का पैकेट दे दिया| बच्चे तो तभी अपनी पसंद के गाने बजाकर उधम मचाने लगे।

महाश्य जी अपनी कैसेट्स अपने कमरे में रखकर किसी और काम से फिर बाहर चले गये। उस दिन सारा समय वे खुशी खुशी सहगल के गाये कितने ही गीत गुनगुनाते रहे। उनसे मिलने वाले भी उन्हें खुश देखकर खुशी पा रहे थे।

अगले दिन दोपहर में अपने संगीत सुनने के समय में उन्होंने बड़े प्यार से नयी कैसेट्स का पैकेट निकाला और सहगल वाली कैसेट हाथ में ली। कैसेट पर छपा फोटो उन्हे कुछ अलग लगा फिर उन्होंने सोचा कि हो सकता है बाजार वालों ने अपनी कारस्तानी दिखा दी हो।

कैसेट उन्होने अपने वॉकमैन में लगायी और आराम कुर्सी पर आँखे बंद करके अधलेटे हो गये।

पर मिनट ही बीता थी कि वे लगभग कूद कर उठ खड़े हुये। ईयर फोन उनके कान से निकल गये और उनमें से हल्की हल्की आवाज आ रही थी

ठंडा ठंडा पानी ठंडा ठंडा पानी ठंडा ठंडा पानी

प्यास लगी है तो बुझानी भी है

ठंडा ठंडा पानी ठंडा ठंडा पानी ठंडा ठंडा पानी

महाश्य जी भौचक्के से खड़े एक बार वॉकमैन को देखते और एक बार कुर्सी के पास रखी छोटी मेज पर पड़ी कैसेट को जिस के कवर से बाबा सहगल की आँखें उन्हें ही देख रही थीं। उन्हें लगा मानो वे आँखे शरारत से उन्हें चिड़ा रही हों।

ईयर फोन से आवाज आ रही थी –

ध्यान मुझे आया मैने पूछा नहीं नाम।

महाश्य जी ने जैसे होश में आते हुये वॉकमैन बंद किया। उन्होंने कैसेट को कवर में बंद करके, पैकेट में रख दिया।

कहीं गीत बज नहीं रहा था पर उनके कान सहगल की आवाज सुन पा रहे थे

चाह बरबाद करेगी हमें मालूम न था

बच्चे कभी नहीं जान पाये कि दादा जी ने दसवीं कैसेट कौन सी ली थी? उन्हे तो यही लगा कि शायद वे रास्ते में ही गिरा आये दसवीं कैसेट।

महाश्य जी ने बाद में मानवेद्र को यह किस्सा तमाम सुनाया| 2008 में महाश्य जी के देहांत के बाद आने वाले उनके पहले जन्म दिवस पर उनकी याद में आयोजित एक छोटी मगर विशिष्ट संगीत गोष्ठी में  मानवेद्र ने यह किस्सा सबसे साझा किया|

2017 में एक एक्सीडेंट में गंभीर रूप से घायल हो जाने के बाद मानवेंद्र को लय-ताल बंद करना पड़ा| आज 2021 में मानवेंद्र भी परलोकवासी हो गए|

महाश्य जी और उनकी मित्रता और संगीत के ऊपर बहसों की उन दो विलक्ष्ण व्यक्तित्वों की जुगलबंदी याद आ गई| एक युग ही समाप्त हो गया उन दोनों के गमन से|

…[राकेश]

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