फ़िल्म – ममता, में संगीतकार रोशन और गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी ने सात गीत रचे और गीतों के बोल,  उनकी धुनें और उनके गायन पक्ष, तीनों ही क्षेत्रों में हरेक गीत अपने आप में उम्दा श्रेणी का है| उनमें से एक गीत – हम गवंवा न जइबे हो को छोड़कर बाकी छः गीत आम श्रोतागण में बेहद लोकप्रिय भी रहे हैं|

रहते थे कभी उनके दिल में (लता), इन बहारों में अकेले ना फिरो (आशारफ़ी), छुपा लो यूँ आँखों में प्यार मेरा (लताहेमंत), रहें न रहें हम (लता, रफ़ीसुमन कल्याणपुर), चाहे तो मोरा जिया ले ले (लता) सभी गीत ऐसे हैं कि संगीत रसिक लगातार बार बार सुन सकते हैं| भावनाओं से भरी इस फ़िल्म का दारोमदार एक स्त्री के जीवन में समाये दुःख पर टिका है|

छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा, जैसे प्रेम गीत जो पुराने प्रेमियों के फलीभूत न हो सकने वाले प्रेम के प्रति दोनों की आत्माओं का एक संयुक्त पवित्र प्रार्थना रूपी गीत है, प्रेम के पूरे न हो सकने के दुःख की झलक देता है, तो एक अन्य गीत “रहते थे कभी जिनके दिल में” भी पुराने प्रेम के दौर को याद करते हुए प्रेमी की निगाह में प्रेमिका की वर्तमान स्थिति का बयान दर्ज करते हुए नायिका के दुःख को ही दर्शाता है| बहुत अच्छे गीत होते हुए भी दोनों ही गीत फ़िल्म के या नायिका के प्रतिनिधि गीत नहीं हैं|

प्रेम सम्बन्ध में भी काल के अनुसार विभिन्न स्थितियां होती ही हैं| उस लिहाज से देखा जाए तो जो गीत फ़िल्म – ममता और इसकी नायिका देवयानी (सुचित्रा सेन) की भावनाओं की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व कोई गीत करता है तो वह “रहें न रहें हम महका करेंगे” है|

यह गीत फ़िल्म की धुरी है और इस गीत के बाद सारी फ़िल्म में इस गीत का असर दिखाई देता रहता है| इसके बोल, इसकी धुन और लता मंगेशकर का गायन ऐसा है कि फ़िल्म देखते हुए दर्शक के मन मस्तिष्क से यह गीत विस्मृत नहीं हो पाता| यहाँ तक कि फ़िल्म के कथानक में जब बरसों बाद देवयानी की बेटी सुप्रज्ञा (सुचित्रा सेन) इसे अपने मंगेतर (धर्मेन्द्र) के साथ गाती है (रफ़ीसुमन कल्याणपुर) तो देवयानी के साथ-साथ दर्शक भी सुखद आश्चर्य से भर उठता है और उसके अन्दर भी भावनाओं की गाडी अगले गियर में चली जाती है|

सचिन देव बर्मन ने 1951 में प्रदर्शित फ़िल्म – नौजवान, में नलिनी जयवंत पर फिल्माए जाने के लिए लता जी से गवाया गीत – ठंडी हवाएं लहरा के आएं, संगीतबद्ध किया था, जिसमें लता जी ने बीच बीच में मनमोहक आलाप गाकर बहती हवा का एहसास जीवंत कर दिया था|   

संगीतकार रोशन ने फ़िल्म – चांदनी चौक (1954) में “ ठंडी हवाएं ” की धुन से प्रेरित एक गीत – तेरा दिल कहाँ है, संगीतबद्ध किया जिसे उन्होंने आशा भोसले से गवाया|

12 साल बाद ममता में रोशन ने उसी धुन पर “रहें न रहें हम” रचा और इस बार गीत लता जी से ही गवाया| सो लता से शुरू हुई धुन पुनः लता के ही खाते में पहुँच गयी| जलतरंग जैसी ध्वनि वाले वाद्य यंत्र की ध्वनि इस गीत के संगीत संयोजन को विशिष्टता प्रदान करती है|

धनी प्रेमी और गरीब प्रेमिका के मध्य बहुत बड़ा आर्थिक-सामाजिक अंतर है| नायक उच्च शिक्षा के लिए विलायत जा रहा है और देश में पीछे छूटी जा रही नायिका को भय ने घेर लिया है कि उसके प्रेम का और उसके जीवन का क्या होगा| अपने जीवन से ज्यादा उसे भय है कि इस प्रेम को पूर्णता तक न पहुंचाने से उसके जीवन का क्या होगा?

वह अपने प्रेमी से पूछती है कि वह विदेश जाकर उसे भूल तो नहीं जाएगा| वह उसे आश्वासन देता है और उससे “रहें न रहें हम” गीत गाने का आग्रह करता है| प्रेमी का आग्रह से स्पष्ट है कि नायिका पहले भी प्रेमी सम्मुख इस गीत को गा चुकी है|

पुस्तक हो या गीत, या फ़िल्म, उनकी विषयवस्तु किसी काल खंड का प्रतिनिधित्व करती ही है| पुराने दौर में प्रेम में जीते प्रेमियों के आपस में विवाह हो ही जाएँ, ऐसा निश्चित नहीं था| और ज्यादातर प्रेम कहानियां तो प्रेमियों के वियोग पर ही संपन्न होती थीं| ऐसे काल में प्रेमीजनों का इस भय से ग्रसित होना कि उनका प्रेम सफल होगा कि नहीं, आसानी से समझ में आने वाली बात है|

ऐसे आशंका से भरे माहौल में प्रेमी एक दूसरे को अच्छे भविष्य की आशा और धनात्मक परिणाम का आश्वासन देने की कोशिश सदैव करते रहते होंगे| और इसमें उनके दावे – कि उनका प्रेम अमर है और इसमें कोई बदलाव नहीं आयेगा, की पुनरावृत्ति देखने को मिलती होगी| प्रेम को ताउम्र कायम रखने की भावना को पालते पालते और साथ ही बिछुड़ने की आशंका से ग्रस्त रहने से ऐसी स्थिति भी आ सकती है जहां मन उस स्थिति की भी कल्पना कर ले कि जब वे वास्तव में जुदा हो जायेंगे|

तब एक निरपेक्षता का भाव आना स्वाभाविक है| ऐसे में दोनों प्रेमियों में से जो भी भावनाओं को अभिव्यक्त दे रहा है वह अपने को परिदृश्य से हटाकर, त्याग करके, अपने प्रेमी के उपस्थित रहने की बात करेगा|

मजरुह सुल्तानपुरी की कलम का जादू इस गीत में भरपूर दिखाई देता है| उन्होंने प्रेमियों की यात्रा को बेहद खूबसूरती से प्रभावशाली शब्दों में व्यक्त किया है|

मजरुह सुल्तानपुरी की कलम का जादू इस गीत में भरपूर दिखाई देता है| उन्होंने प्रेमियों की यात्रा को बेहद खूबसूरती से प्रभावशाली शब्दों में व्यक्त किया है|

रहें न रहें हम

महका करेंगे

बन के कली

बन के सबा

बाग-ए-वफा में

रहें न रहें हम…

प्रेम भले ही भौतिक संसार में विवाह रूपी परिणति पाकर प्रेमियों को एक दूसरे के नजदीक न रख पाए लेकिन एक दूसरे के प्रति उनका प्रेम अमर और अमिट है| यह विचार प्रेमियों को रोमांचित करता है और वे कल्पना करते हैं कि एक दूसरे के प्रति किया गया उनका ईमानदार प्रेम जीवनपर्यंत निष्ठावान रहेगा| वे वफ़ा की इस बगिया में अपने प्रेम की तुलना कली से निकलती भीनी भीनी सुगंध के हवा संग वितरित होने से करते हैं|  

मौसम कोई हो, इस चमन में, रंग बन के रहेंगे हम खिरामा

चाहत की खुशबू, यूँ ही जुल्फों से उड़ेगी, खिज़ा हो या बहारें

यूँ ही झूमते और खिलते रहेंगे

बन के कली…

प्रेमी सोचते हैं कि जीवन का कोई भी कालखंड और कैसी भी परिस्थिति उनके परस्पर प्रेम को न डिगा पायेगी और न ही उसके स्वरूप को बदल पायेगी| वे जीवन के बसंत और पतझड़ में प्रेम के  रंगीन अस्तित्व की एक समान मजबूती की कल्पना से प्रसन्न हैं|

ग़ालिब ने लिखा था –

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का

इसी तर्ज पर मजरूह भी अपनी कल्पना के घोड़े नाजुकता से चलाते हैं –

खोये हम ऐसे, क्या है मिलना, क्या बिछडना नहीं है याद हमको

कूचे में दिल के, जब से आये, सिर्फ दिल की ज़मीं है याद हमको

इसी सरज़मीं पे हम तो रहेंगे

बन के कली…

उपरोक्त अन्तरा गीत के वीडियो संस्करण में सम्मिलित नहीं है लेकिन गीत के ऑडियो संस्करण में उपलब्ध रहता है|

प्रेम में प्रेमीजन इतनी गहराई से रमे हुए हैं कि मिलने बिछड़ने के दो छोरों की विलगता का एहसास उनके अंदर से मिट सा गया है| वे कहते हैं जब से उन्होंने प्रेम के आँगन में प्रवेश किया है तब से हर मसले को दिल के माध्यम से ही समझते हैं| हर बात उन्हें अपने प्रेम की रोशनी में ही दिखाई,सुनाई देती है, समझ में आती है|

जब हम ना होंगे, जब हमारी खाक पे तुम रुकोगे, चलते-चलते

अश्कों से भीगी, चांदनी में, इक सदा सी सुनोगे, चलते-चलते

वहीं पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे

बन के कली…

स्त्री का कम से कम भारत में इस बात पर जोर रहा है कि वह सुहागन ही इस धरा से विदा हो जाए| और ममता की नायिका भी उसी तरह की कल्पना करती है कि उनके संयुक्त जीवन के अंतिम चरण में वह धरा से विदा हो जायेगी और उसका प्रेमी जब उसकी याद में आंसू बहाकर उसके अभाव से व्याकुल घूम रहा होगा तब भी उसे अपने अन्दर उसकी ही आवाज़/पुकार सुनाई देगी और वह उससे दूर नहीं जा पायेगी|

मजरुह ने शब्दों का विन्यास इस तरह से सजाया है कि गाने और विराम में एक ज़रा सी चूक ले बिगाड़ सकती थी लेकिन लता जी ने अन्तरों की लम्बी पंक्तियों को इस खूबसूरती से गाया है, एकदम उचित जगह पर विराम लेकर, मौन साधकर कि गीत जादुई सा लगने लगता है|  

गीत का भाव और बोलों के अर्थ ऐसे स्पष्ट हो जायें जैसे आतिशी शीशे से देखने पर सूक्ष्म वस्तुएं एकदम साफ़ दिखाई दी लगती हैं, और गायिकी गीत की लय की सीमा से रत्ती भर भी बाहर न निकले, और चरित्र का सारा अस्तित्व अपने विराटतम स्वरूप में श्रोता/दर्शक के सम्मुख पनप जाए, ऐसा जो अपने हर गीत के साथ कर पाए, वही लता मंगेशकर है|

                              …[राकेश]


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