दुःख तोड़ता भी है, पर जब नहीं तोड़ता या तोड़ पाता, तब व्यक्ति को मुक्त करता है

(अज्ञेय के विलक्षण उपन्यास “नदी के द्वीप” की दो में से एक नायिका का कथन)

दुःख एक नितांत निजी मसला है मनुष्य के जीवन का| ज़माने को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि किसी पर क्या बीता है या क्या बीत रहा है? उसे उस व्यक्ति के बारे में अपने अनुरूप विचार ही फ़ैलाने होते हैं| निस्संदेह ज़माना सदैव ही पूर्वग्रह से ग्रसित रहता है|

ईद पर मिर्ज़ा ग़ालिब को जीवन के दो बड़े दुखों का सामना करना पड़ा था : उनके रचनात्मक जीवन की साध – बहुत लम्बे इन्तजार के बावजूद पहली पुस्तक का प्रकाशन न हो पाना, और उनके नवजात शिशु का जन्मते ही मर जाना| इन बड़े दुखों ने मिर्ज़ा को तोड़ डाला है|

उधर नगर के चंडूखाने में मिर्ज़ा के बारे में चर्चाएँ चल रही हैं कि मुसलमान होते हुए भी मिर्ज़ा ने दीवाली तो जोरों से मनाई लेकिन ईद पर घर में मातम जैसा रचा कर रखा|

उनके विरुद्ध रहने वाली ये भीड़ दावे करती है कि जैसे मीर को दिल्ली से निकाला गया था वैसे ही मिर्ज़ा जैसे काफ़िर को भी दिल्ली से बेदखल किया जाएगा|

मीर ने तो स्वयं ही अपने विरोधियों के हाथों में अपने खिलाफ हमला करने का अमला जन्मा दिया था ये कहकर :-

‘मीर’ के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उनने तो

क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया

दुखों के आवेग से एकांतमुखी और मौन हो गए मिर्ज़ा की भावनाओं की अभिव्यक्ति भी केवल और केवल शायरी से ही हो सकती है सो उनके रोते ह्रदय के उद्गार प्रकट होते हैं :

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

ख़ाक में क्या सूरतें होंगी, के पिन्हाँ हो गईं

ग़ालिब के अलग- अलग प्रशंसक विद्वान इस शेर की अलग- अलग व्याख्या करते रहे हैं| लिखना होता या इस पर बोलना होता तो संभवतः गुलज़ार इसकी व्याख्या कई मिनटों तक करते रह सकते थे, लेकिन यहाँ उन्हें लिख या बोल कर नहीं बल्कि दृश्य के माध्यम से दर्शकों के सम्मुख इस शेर की अपनी समझ को दर्शाना था|

ग़ालिब एक बच्चे की कब्र पर उसकी शान्ति के लिए इबादत कर रहे हैं| कब्र पर रंगीन फूल उग आये हैं या उन्होंने ही इन फूलों को कब्र पर रखा है| दुखों से भरे अपने जीवन में उन्हें सांत्वना शायरी के माध्यम से ही मिल सकती है और उनके दिलो-दिमाग में छवियाँ और शब्द आपस में उलझ कर काव्य की रचना करते हैं|

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

ख़ाक में क्या सूरतें होंगी, के पिन्हाँ हो गईं

खूबसूरत फूलों के चेहरों में कहाँ सारी खूबसूरती बयाँ हो सकती है? धरती के अन्दर छिपी रह जाने वाली सूरतों की खूबसूरती कैसी होगी या कि उन्हीं दबी रह जाने वाली सूरतों की ख़ूबसूरती की बुनियाद पर ही इतने खूबसूरत फूल धरती की कोख से जन्म उठते हैं?

रंजिसे ख़ूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज

मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, के आसाँ हो गईं

इतने दुःख से दो चार हो रहे ग़ालिब का मन शायरी की शरण में जाते ही रचनात्मक यात्रा पर तेजी से रवानगी लेता है| शायर सच भी कहता है तो उसमें सपाट बयानी नहीं है बल्कि दर्शन का भरपूर प्रदर्शन भी उपस्थित है|

ग़म की अति से जूझ रहे व्यक्ति का अस्तित्व कुछ ऐसे सुन्न भी पड़ सकता है जैसे बर्फ को हाथ में बहुत देर तक पकड़ने से हथेलियां संवेदनशून्य हो जाती हैं| एक स्थिति आती है कि उसे किसी वस्तु की छुअन का कोई अहसास तक नहीं होता| ग़ालिब इसी अवस्था की बात करते हैं कि दुख की अति दुःख के प्रति व्यक्ति को उदासीन बना सकती है| वे ईश्वरीय सत्ता के समक्ष लगभग दबंगई दिखाते हुए कह उठाते हैं कि उन पर पड़ी मुश्किलों की बरसात ने उन्हें इतना भिगा दिया है कि अब कोई मुश्किल उन्हें इतनी बड़ी नहीं लगती कि और ज्यादा भिगा सके| मुश्किलें इतनी पडीं,कि आसान हो गयीं या उन्हें सहना आसान हो गया|

यूँ ही गर रोता रहा ‘ग़ालिब’ तो ऐ ‘ अहल-ए-जहाँ

देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीराँ हो गईं

दुनिया के लोगों से ग़ालिब मुखातिब हो उन्हें चेताते से प्रतीत होते हैं| एक शायर अपनी शायरी से दुनिया को प्रभावित करता ही है| वीर रस का कवि वीरों में साहस और उत्तेजना भर देता है| अवसाद से भरी कवितायें उस रुझान के लोगों को और गहरे अवसाद में धकेल सकती है| प्रेम कवितायें प्रेम-क्षेत्र के प्रति उत्सुक लोगों को उस धरा पर विचरण करने हेतु प्रेरित करती ही करती हैं| ऐसा हरेक भाव के साथ होता है| ग़ालिब भी संभवतः इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि अगर उनके जीवन में रुदन ही विस्तारित होता जाता है तो उनकी शायरी भी ग़म और रुदन ही प्रसारित करेगी और दुनिया को उसी रूप में प्रभावित भी करेगी|

ग़ालिब के बहुत बाद में साहिर लुधियानवी ने पहले गुरुदत्त की फ़िल्म – “प्यासा” और बाद में फ़िल्म – “लाईट हाउस” के लिए इसी तर्ज की एक ग़ज़ल की रचना की

तंग आ चुके हैं कश्मकश-ए-ज़िन्दगी से हम

जिसका एक शेर था

हम ग़मज़दा हैं लाएं कहाँ से खुशी के गीत

देंगे वही जो पायेंगे इस ज़िंदगी से हम

ज़िंदगी जो शायर को बख्शेगी वही शायर आगे दुनिया के सामने परोसेगा| शायर संत तो होता नहीं कि जीवन से मिले विष को नीलकंठ की भांति ग्रहण कर ले और दुनिया को अमृत ही प्रदान करे| शायर रचनात्मकता में आम आदमी से बेहद ऊपर, भावनाओं में बेहद संवेदनशील भले ही होता है, दृष्टि में गहराई वाला हो सकता है, लेकिन उसकी अध्यात्मिक प्रगति आवश्यक नहीं कि आम आदमी से तनिक भी ऊपर की हो| बहुत कम रचनाकार अपने रचनाधर्म को अध्यात्म की सीढ़ी पर उर्ध्वागमन करा उसे ईश्वरीय सत्ता से जोड़ पाते हैं| जिसे सूफी इश्क कहते हैं आवश्यक नहीं एक शायर बेहतरीन शायरी रचने के बावजूद उस तत्व को आत्मसात कर पाए| इन दोनों स्थितियों में अंतर है| तभी हिन्दी के शिक्षक नादानी में कबीर सरीखे महान संत के गूढ़ अध्यात्मिक वचनों को कविता मान उनकी साहित्यिक व्याख्या करने में समय और कागज़ व्यर्थ में खर्च करते रहते हैं और एक भी उलटबांसी का वास्तविक अर्थ जीवन भर नहीं जान पाते| यों कबीर पर वे शोध ग्रन्थ और किताबें लिख डालते हैं| जो ध्यान में वास्तव में नहीं उतरा, उसे कैसे

चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोये, दो पाटन के बीच में बचा न साबुत कोय

का अर्थ महसूस भी हो सकता है?

ग़ालिब अगर यूँ ही ज़िंदगी में रोते रहे तो उनके पाठक, श्रोता भी इस रुदन भरी शायरी से अछूते न रह पायेंगे| उनके ग़म में उनके प्रशंसकों का डूब जाना भी तय है| उनकी शायरी की बस्ती पर एकरंगी वीरानगी छा जाने का ख़तरा है| इस वीरानगी में पहले ग़ालिब के खुद और बाद में उनके प्रशंसकों का खो जाना भी तय है|

जलती मोमबत्ती की लौ पर त्राटक के जैसा ध्यान लगाए अभिनेता नसीरूद्दीन शाह द्वारा जगजीत सिंह की मधुर गायिकी में सजी ग़ालिब की शायरी पर अभिनय का प्रस्तुतीकरण लाजवाब है| शायरी के भावों के हरेक रंग की छटा उनके चेहरे और उनकी आँखों से जीवंत रूप में नुमाया होती है|

गुलज़ार इस धारावाहिक में बड़े अच्छे मौकों पर दर्शन से भरे गीतों को गाकर भिक्षा मांग आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मण का उपयोग करते हैं|

यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है॥

जीवन की नश्वरता और क्षण भंगुरता पर कबीर के ऐसे गूढ़ वचनों का उपयोग इससे बेहतर कब होगा जब मिर्ज़ा का परिवार नवजात शिशु की मृत्यु के दुःख से भारी भरकम जीवन का बोझ अपने सिरों पर उठाये बमुश्किल सांस ले पा रहा है!  

धारावाहिक में मिर्ज़ा ग़ालिब के घरेलू सहायकों विशेषकर कल्लू मियाँ के चरित्र द्वारा गुलज़ार एक पूरी तहज़ीब को साकार रूप प्रदान करते हैं| जिस तरीके और सलीके से कल्लू मियाँ ग़ालिब के लिए भोजन का थाल लेकर जाते हैं, कक्ष में घुसने से पहले आज्ञा मांगते हैं, मिर्ज़ा की बेग़म को दिलासा देते हैं और मिर्ज़ा के कहीं भटके न होकर मित्र हाज़ी मीर की किताबों की दुकान पर समय व्यतीत करने का खुलासा करके पारिवारिक संबंध में मजबूती बनाए रखने का प्रयास करते हैं वह मिर्ज़ा के अपने सहायकों संग मानवीय व्यवहार और अंततः उनसे गहरे संबंध के बारे में दर्शकों को सूचित करता है|

वरना तो एक असफल कलाकार के रिश्ते बहुत लंबे चल नहीं पाते|

गुलज़ार ने अभिनेता राममोहन की अभिनय क्षमता का बेहतरीन उपयोग अपनी फिल्मों- किताब, एवं  नमकीन, और इस धारावाहिक –मिर्ज़ा ग़ालिब में किया है| यहाँ राम मोहन मिर्ज़ा के सहृदय मित्र हाज़ी मीर का चरित्र निभाते हैं| अपनी दुकान में अन्दर बिस्तर पर निढ़ाल पड़े मिर्ज़ा को देख, उनसे उनकी वेदना को बाहर उगलवाकर उनके ह्रदय को हल्का करने के प्रयोजन से हाज़ी मीर कहते हैं,

” बहुत मायूस नज़र आते हो नौशे मियां”|

और एक मित्र के कर्तव्य का निर्वाह करते हुए दर्शन देकर साहस बंधाते हैं,” हौसला रखो, वो है न| कोई न कोई राह निकल ही आयेगी”|

इतने संक्षिप्त से संवाद को बोलने में जिस शारीरिक गति का प्रयोग राम मोहन करते हैं वह उनके बेहद ज़हीन अभिनेता होने का प्रमाण है|

पर बेहद मायूस मिर्ज़ा के लबों से बर्फीले उदगार बाहर आते हैं –

कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई सूरत नज़र नहीं आती

इसे उच्चारते मिर्ज़ा जम्हाई लेते रहते हैं तो हाज़ी मीर हलके अंदाज़ में कहते हैं- लगता है रात सोये नहीं|

जिस पर मिर्ज़ा शेर पूरा करते हैं,   

मौत का एक दिन मुअय्यन है

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

हाज़ी ने यह शेर पहली बार सुना है अतः मिर्ज़ा को एक कागज़ थमा कहते हैं- ताजा कलाम है! इस पर दर्ज करके रख देना मैं संभाल लूँगा| बहुत कलाम जाया किया है तुमने|

हाज़ी कदम कदम मिर्ज़ा के बिखरे जीवन को संभल कर फिर उठ खड़े होने की प्रेरणा देने का प्रयास कर रहे हैं जो कि एक सच्चे मित्र का कर्तव्य है|

मिर्ज़ा मित्र हाज़ी से सलाह लेने के अंदाज़ में उनसे कहते हैं,” मीर साहब सोचता हूँ लखनऊ चला जाऊं, शायद नवाब नसीरूद्दीन हैदर के दरबार में जगह मिल जाए”|

हाज़ी मीर चेताते हैं,” मिर्ज़ा इस मुगालते में न रहो| दिल्ली और लखनऊ वालों का आपस में ईंट घड़े का बैर है| लखनऊ वाले दिल्ली वालों को अपने शहर में शेर नहीं पढने देते|”

मिर्ज़ा प्रतिरोध जताते हैं,” पर मैं तो दिल्ली वाला नहीं हूँ”|

हाज़ी हामी भरते हैं,”दुरुस्त है तुम आगरा के हो लेकिन…”|

दिलजले भाव से घायल मिर्ज़ा कहते हैं,” आगरे का भी कहाँ मीर साहब”|

मैं अंदलीब-ऐ-गुलशन-ऐ- ना आफ़रीदा हूँ

मिर्ज़ा स्वयं को ऐसे गुलशन की बुलबुल कहते हैं जो अभी बसा नहीं है लेकिन भविष्य में बसेगा अवश्य ही|

हाज़ी के प्रश्न करने पर कि क्या ऐसा चमन कभी पैदा होगा जहां ग़ालिब खिल सकेंगे, मिर्ज़ा तुनक कर जवाब देते हैं कि ऐसा अवश्य होगा|

दुनिया के नज़रंदाज़ किये जाने से खफ़ा, कुंठित, लेकिन अपनी प्रतिभा पर पूर्ण विश्वास रखने वाले और बेहद स्वाभिमानी शायर के मिश्रित भावों से मिर्ज़ा आशा जताते हैं कि वे जन भाषा उर्दू के शायर हैं, किसी एक शहर के नहीं, और कभी एक मुकम्मल हिन्दुस्तान बना तो उसकी एक शाख पर उन्हें भी कूकने की जगह अवश्य ही मिलेगी|

मिर्ज़ा ग़ालिब के विभिन्न भावों को इस गहराई से नसीरुद्दीन शाह अपने चेहरे से जाहिर करते हैं कि दर्शक उनकी गहरी अभिनय प्रतिभा के प्रति नत मस्तक हो जाता है|जैसे नदी इठलाती बलखाती बहती है उस आसानी से उनके चेहरे पर भाव तैरते हैं|

जब वे मायूस से हाज़ी की दुकान से रुखसत लेने की बात करते हैं और उनके कानों में किसी स्त्री स्वर द्वारा उनके कलाम को गाये जाने की मधुर ध्वनि पड़ती है तो हाज़ी के पूछने पर कि यह तो आपका ही शेर है, मिर्ज़ा के चेहरे पर अनायास उभर आई मुस्कान और चमक को नसीरुद्दीन शाह ने इस खूबसूरती से प्रदर्शित किया है कि उसका आनंद इस दृश्य को देख कर ही उठाया जा सकता है| हाज़ी के प्रश्न के जवाब में “हाँ” कहने की जरा सी हरकत से वे यह भी दर्शाते हैं कि वे किस गहराई में मिर्ज़ा ग़ालिब के चरित्र को जी रहे थे|

सोहराब मोदी की “मिर्ज़ा ग़ालिब” में सितारा गायिका-अभिनेत्री सुरैया की प्रभावशाली स्क्रीन प्रेजेंस और बाद में कमाल अमारोही की ‘पाकीज़ा” में मीना कुमारी, सागर सरहदी की “बाज़ार” में स्मिता पाटिल, और मुज़फ्फर अली की उमराव जान में रेखा की एक तवायफ़ के रूप में अदाकारी देख चुके दर्शकों को गुलज़ार अपने चयन से मायूस करते हैं जब वे गाने वाली तवायफ़ की भूमिका में नीना गुप्ता को प्रस्तुत करते हैं| हो सकता है नीना गुप्ता ने अपनी ओर से बेहतरीन काम किया हो लेकिन उपरोक्त उदाहरणों के समक्ष वे बेहद हल्की लगीं और इस धारावाहिक में अभी तक अभिनेताओं के सटीक चयन और उनके अच्छे अभिनय प्रदर्शन का प्रवाह बाधित सा लगने लगता है|

वे गुलज़ार के इस भारी भरकम धारावाहिक की कमजोर कड़ी लगती हैं| कितनी भी बार इस धारावाहिक को देखा जाए, वर्षों के अंतराल के बाद भी यह भावना नहीं जाने पाती कि इस एक मसले पर गुलज़ार कमजोर पड़ते दिखाई देते हैं|

तवायफ़ के कोठे से संतुष्ट लौटते मिर्ज़ा के चेहरे की रौनक अलग ही है, उनकी चाल का हल्कापन अब ज़ाहिर है| जिसे देख हाज़ी मीर भी खुश हो जाते हैं|

जहां सब कुछ गलत हो रहा था और जीवन डूबता नज़र आ रहा था वहां एक तवायफ़ द्वारा मिर्ज़ा के अशआर गाना उनके लिए डूबते को तिनके का सहारा बन जाता है और एक नए आत्मविश्वास से भरे वे हाज़ी से कहते हैं,

” जिस शेर को कोठे पर तवायफ़ और गली में फ़कीर गाये उस शेर को कोई नहीं मार सकता”|

यह सच भी है|

…[राकेश]

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