हरे-भरे वृक्षों की भरपूर जीवंत उपस्थिति से हिलोरें मारते पर्वतीय जंगल, मस्तक ऊँचा ताने खड़ी पर्वत की चोटियाँ, रहस्यमयी गहरी खाइयां, खुशगवार मौसम, गुगुदाकर जाती ठंडी हवाएं, कहीं तो चेहरे को छू-छू जाते बादल के टुकड़े, और कहीं ऊपर साफ नीला आसमान मुस्कुराता हुआ, कलरव करते पक्षी, कहीं गीत गाती हुयी जाती हुई पर्वतीय महिलाओं के झुण्ड, कहीं भेड़ों को चराते हुए पर्वतीय पुरुष, कहीं चढ़ाई, कहीं उतराई, प्राकृतिक सौंदर्य से भरे ऐसे वातावरण में कौन है जो मग्न न हो जाएगा और अगर ऐसे मनोरम स्थल पर इन सबका दर्शक एक कलाकार हो तो उसकी दृष्टि उस स्थान के सौंदर्य को वाजिब और भरपूर प्रशंसा देगी|
यूं तो फिल्म दृश्य- संचार का माध्यम है पर हिन्दी फिल्मों में यह जरूरी नहीं कि गीतों के फिल्मांकन विशुद्ध रूप से विजुअल्स आधारित ही हो| कई गीत ऐसे हैं जिन्हें ऐसे फिल्माया गया है जिससे वे शब्द आधारित (गीत के बोल) ज्यादा हो गये हैं और उनके विजुअल फैक्टर्स महत्वहीन बना दिए गये हैं|
पर मधुमती के इस गीत (सुहाना सफर और ये मौसम हसीं) का दृश्यांकन तत्व सौ प्रतिशत शुद्धता वाला है और यह उन गीतों में से है जो पूर्णता लिए हुए हैं| चरित्र, जो कि गीत को परदे पर प्रस्तुत कर रहा है, की प्रकृति से मेल खाते हुए बोल और दृश्यांकन, गीत को सौंदर्य प्रदान करते हैं|
गीत के बोल और गीत का दृश्यांकन दोनों ही यह जता देते हैं कि इस गीत को परदे पर प्रस्तुत करने वाला चरित्र कलाकार है! जिसने फिल्म न भी देखी हो वह यदि गौर से गीत को देखेगा और इसके बोलों पर यथोचित ध्यान देगा तो यह कल्पना करना मुश्किल नहीं कि हो न हो यह व्यक्ति एक चित्रकार का वजूद लिये प्रकृति के सौंदर्य का रस्सावादन कर रहा है|
कवि शैलेन्द्र को यूँ ही नहीं फ़िल्मी गीतकारों में सिरमौर कहा जाता है| यह गीत उनके सर्वोत्तम होने की झलक बड़ी स्पष्टता से प्रस्तुत करता है|उन्होंने प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत चरित्र के भावों को प्रदर्शित करने के लिए जो बोल रचे हैं वे किसी साधारण मनुष्य के देखने से उत्पन्न भाव नहीं हो सकते, वे वोल तो किसी चित्रकार की आंखन देखी को प्रकट कर रहे हैं|
कहीं से एक व्यक्ति आया है और पहाड़ी रास्ते से पैदल ही अपनी मंजिल की ओर जा रहा है| वह पहले से ही प्रसन्न है क्योंकि वह अपनी नयी मिली नौकरी पर नियुक्ति के लिए जा रहा है| और राह में चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य को बिखरे देख कर उसकी प्रसन्नता में कई गुना वृद्धि हो गयी है|
बिमल राय ने कैसे इस गाने में पूर्णता को पिरोया है वह देखा जा सकता है जब गीत के शुरू में ही नायक, ऊँचाई से नीचे गाते हुए जाती हुयी महिलाओं के झुण्ड को देखता है| जब कैमरा नायक को देखते हुए दिखाता है तो महिलाओं की आवाज दूर से आती हुयी सुनाई देती है पर जब कैमरा महिलाओं के पास जाकर उन्हें सामने से दिखाता है तो उनके गाने की आवाज तेज हो जाती है| हरेक निर्देशक इतनी बारीकी का ध्यान नहीं रखता|
सौंदर्य राह में पथिक को रोक भी सकता है और इस बात का इल्म सौंदर्य के इस पारखी नायक को भी है|
सुहाना सफर और ये मौसम हसीं
हमे डर हैं हम खो ना जाए कहीं
इस व्यक्ति की दृष्टि केवल एक भोगवादी व्यक्ति की दृष्टि ही नहीं है और इसका विवेक सुसुप्तावस्था में नहीं है| इसका रुझान आध्यात्मिक है, वरना एक कलाकार होकर भी प्रकृति की खूबसूरती देख यह जिज्ञासा प्रकट न करता कि अभिभूत कर देने वाले इस सौंदर्य का निर्माता कौन है?
ये कौन हँसता है फूलों में छुपकर
बहार बेचैन हैकिस की धुन पर
कही गुनगुन कही रुनझुन
के जैसे नाचे जमीन
प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर नायक के मन में जो उपमाएं उभरती हैं वे अपने स्वरूप में दृश्यात्मक ही हैं| जैसे उछल मारती भागती दौडती पहाड़ी नदी के प्रवाह की तुलना वह उस किशोरी से करता है जो कि अपने प्रियतम से मिलकर इतनी खुश हो जाती है कि उसकी चाल में एक तरह का इतराना आ जाता है|
ये गोरी नदियों का चलना उछलकरके
जैसे अल्हड चले पी से मिलकर
प्यारे प्यारे ये नजारे,
निखार हैं हर कहीँ
नायक प्राकृतिक सौंदर्य में इतना खोया है कि उसे लगने लगता है कि प्रकृति का हर रूप उसके लिए संगीत रच रहा है| और ऑर्केस्ट्रा के एक कंडक्टर की भांति वह इस आभासी ऑर्केस्ट्रा के कल्पित वादकों को हाथों और शारीरिक भाव-भंगिमाओं से संगीत निर्देशन सा देता है|
इस गीत की व्याख्या जैसी दिलीप कुमार ने की है वह काबिले तारीफ़ है| उन्हें अकारण ही अभिनय सम्राट नहीं कहा जाता| पूरे गीत में क्षण भर के लिए भी उत्कृष्ट अभिनय की ले वे टूटने नहीं देते| वे इतना ज्यादा रम गये हैं अपनी भूमिका में कि उनका गीत में होना बेहद स्वाभाविक, वास्तविक और तब भी आकर्षक लगता है| गीत को प्रस्तुत करते हुए गीत की आत्मा में रमने की उनकी गुणवता ऐसी है कि आँख झपकने तक के समय में भी ऐसा देखने में नहीं आता कि उन्होंने कैमरे के लिए अभिनय किया हो या कैमरे में तनिक झांका भी हो| वे कैमरे की मौजूदगी को जानते हैं कि कहाँ रखा है पर इस बात को परदे पर स्थान्तरित नहीं होने देते| वे गीत को ऐसे जी रहे हैं जैसे उनके और प्रकृति के अलावा कोई और वहाँ है ही नहीं| जबकि वास्तव में गीत को शूट होने में बहुत समय लगा होगा पर उनके अभिनय प्रदर्शन में गजब की निरंतरता है|
वो आसमान झुक रहा हैं जमीं पर
ये मिलन हम ने देखा यहीं पर
प्राकृतिक सौंदर्य के इतने विराट प्रदर्शन के समक्ष गहन अनुभूति पाकर मानव खुद को बेहद बौना समझेगा और नायक के अंतर्मन के इस भाव को पकड़ कर ही अभिनेता दिलीप कुमार ने अगली पंक्तियों को प्रदर्शित करते हुए चरित्र को मासूमियत दे दी है| वे इन पंक्तियों को ऐसे गाते हैं जैसे कोई अपरिपक्व किशोर विधार्थी जीवन में अपनी कला को प्रदर्शित कर रहा हो|
प्राकृतिक सौंदर्य में खोये हुए नायक को इस बात का आभास भी हो जाता है कि शायद यहीं उसे ज़िंदगी की सबसे कीमती अनुभव होने वाले हैं और सबसे महत्वपूर्ण घटनाएं यहीं घटेंगी|
मेरी दुनिया, मेरे सपने
मिलेंगे शायद यहीं
गीत दिखाता नहीं पर गीत के समाप्त होते होते ही नायक-नायिका की प्रथम भेंट होती है, जब प्रकृति और संगीत में खोये हुए नायक को नायिका चेताकर पहाड़ की चोटी से नीचे गहरी खाई में गिरने से बचा लेती है|
पूरे गीत में एक विषम बात महसूस की जा सकती है वह है नायक का पहाड़ से उसकी आवाज की गूँज सुनना| उसकी पुरुषोचित आवाज के जवाब में पहाड़ों से टकराकर आने वाली गूँज स्त्री गायन लेकर आती है|
इस छोटे से मसले को छोड़ गीत हर लिहाज से जादुई बन पड़ा है|
तलत महमूद के बाद रफ़ी दिलीप कुमार के गीतों की आवाज बन गये थे और बरसों बाद मुकेश ने बिमल राय की यहूदी (एक गीत) और मधुमती (एक एकल और एक युगल गीत) में दिलीप कुमार के लिए गायन किया था और दोनों ही फिल्मों में उनके गाये गीत न केवल बेहद अच्छे बने बल्कि वे प्रसिद्द भी खूब हुए|
गायक- मुकेश, गीतकार- शैलेन्द्र, संगीतकार – सलिल चौधरी, सिनेमेटोग्राफर – दिलीप गुप्ता,और निर्देशक – बिमल राय, फिल्म – मधुमती (1957)
…[राकेश]
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