फिल्म का नायक अगर पूरी फिल्म में एक भी संवाद न बोले और नायिका भी केवल दो बार मुँह से आवाज निकाले, एक बार चीखने के लिये और दूसरी बार नायक को I Love You बोलने के लिये, तो जिन्होने अभी तक फिल्म न देखी हो, उन्हे लगेगा कि कैसी अजीब फिल्म होगी और इसे देखना बोरियत लेकर आयेगा परन्तु Kim Ki-duk की यह फिल्म, उनकी कुछ अन्य फिल्मों की तरह ही, वास्तव में इस बात को बहुत मजबूती से स्थापित करती है कि संवाद हर बार जरुरी नहीं होते किसी फिल्म को अच्छा बनाने के लिये, बल्कि कुछ मामलों में तो संवाद की अनुपस्थिति दर्शक और फिल्म के बीच एक खास किस्म का सम्बंध स्थापित कर देती है और दर्शक अपने ढ़ंग से दृष्यों की व्याख्या कर सकता है और अभिनेताओं को भी ज्यादा सतर्क होकर काम करना पड़ता है क्योंकि अब उन्हे अपने चेहरे के हाव भाव और शारीरिक हरकतों से दर्शक तक अपने चरित्र की स्थितियाँ, उसकी मनोस्थिति और उसकी स्थिति पहुँचानी होती हैं।
3-Iron एक ऐसे कोरियाई नौजवान की कहानी है जो विचित्र किन्तु बेहद रोचक लगता है और वह ऐसे घरों में अनाधिकृत प्रवेश करके रहता है जिनके मालिक अपने घर से अनुपस्थित होते हैं। यह उसकी आर्थिक जरुरत तो नहीं लगती और ऐसा करने में उसे एडवेंचर करने का आनंद मिलता है। जिस घर में भी वह जाकर रहता है वहाँ की साफ सफाई करता है और अगर कोई भी सामान या यंत्र मरम्मत की बाट जोह रहा है तो वह उसे दुरुस्त कर देता है। एक बार ऐसे ही वह एक ऐसे घर में घुस जाता है जहाँ घर की मालकिन मौजूद है पर नौजवान को इस बात का पता नहीं है। युवती अपने पति की हिंसक प्रवृतियों की शिकार है और स्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि युवक युवती के पति को पीट कर युवती को अपने साथ ले जाता है और अब युवती भी उसकी रोमांचकारी गतिविधियों में उसके साथ साथ रहने लगती है और वे दूसरों के घरों में घुस कर रहने लगते हैं। उनके बीच धीरे धीरे प्रेम पनप जाता है।
पर जीवन में जो भी कर्म कोई कर रहा है वह औरों के जीवन से भी सम्बंध रखता है और एक ऐसे घर में प्रवेश करने पर जहाँ उन्हे घर के मालिक की लाश मिलती है उन्हे जेल जाना पड़ता है और नये प्रेमियों को बिछुड़ना पड़ता है। युवती को उसका पति ले जाता है और युवक को एक पुलिस अधिकारी पर आक्रमण करने के अपराध में जेल में कैद कर लिया जाता है। जेल में पहुँच कर फिल्म दूसरा रुख अपना लेती है और अब इसका प्रारुप जीवन के मायावी स्वरुप या कहें कि रहस्यमयी ढ़ंग का हो जाता है।
युवक की अनुपस्थिति में युवती उन घरों में जाती है जहाँ वह अपने नौजवान साथी के साथ जाकर रही थी। और जेल से छूटने पर युवक भी उन घरों का दौरा फिर से करता है और अंत में युवती के घर में प्रवेश कर जाता है जहाँ युवती तो उसे देख और छू सकती है पर उसका पति नहीं।
नौजवान दूसरों के घरों में चोरी से घुसता है पर उसका चरित्रचित्रण ऐसा है कि कोई भी उसे नापसंद नहीं करेगा और अपराधी तो नहीं ही कहेगा। एक तरह से उसे एक ऐसा प्राणी भी माना जा सकता है जो लोगों के आसपास ही रह रहा है पर वे उसे हमेशा नहीं देख सकते। ऐसे बहुत से जीव वास्तविक जीवन में लोगों के घरों में रहते हैं जिन्हें वे देख नहीं पाते।
फिल्म जीवन के वास्तविक या माया होने के बीच के क्षीण से अंतर की सीमाओं पर अपनी बुनियाद रखती है और फिल्म में युवक के अस्तित्व को स्वप्नकारी प्रकृति का माना जा सकता है। लोग किसी न किसी सहायता या किसी न किसी के द्वारा सहायता किये जाने की आशा में मुश्किल हालात में अपना मनोबल बनाये रखते हैं और अपने पति द्वारा प्रताड़ित युवती को भी युवक के रुप में वह सहारा मिल जाता है जिसके बारे में वह अपनी कल्पना में सोचती रही होगी या सोचती रहती होगी। वास्तविक जीवन में कब कल्पना मानव के मस्तिष्क में एक अलग ही संसार बुनना शुरु कर देती है कहा नहीं जा सकता। कल्पना घनीभूत होकर साये के रुप में साकार भी हो सकती है।
युवक के जेल से आने के बाद फिल्म दर्शक की मनोकामना पूरी करने के लिहाज से आगे बढ़ती है और युवक उसे प्रताड़ित करने वाले पुलिस अधिकारी को दंडित करता है।
जो युवती अपने पति की शक्ल भी देखना पसंद नहीं करती थी वह अपने प्रेमी की अपने घर में मौजूदगी से खुश हो जाती है और अभिनय में ही सही पर पति के साथ अच्छा बर्ताव करने लगती है और उसका पति इस बात पर आश्चर्य भी प्रकट करता है।
अगर व्यक्ति अंदर से खुश है तो वह अपने इर्द गिर्द खुशियाँ बिखेर सकता है।
फिल्म, साधारण सी दिखने वाली एक कहानी के रुप में नहीं परन्तु जीवन से गहरे और गम्भीर किस्म के जुड़ाव के कारण जीवन से सम्बंधित कई मसलों को छू जाती है और दर्शक को सोचने और विश्लेषण करने की यात्रा पर भेज देती है। फिल्म की प्रकृति बहुपरतीय है। यथार्थ और कल्पना का बहुत अच्छा संगम इस फिल्म में किया गया है।
अभिनय और तकनीक, दोनो क्षेत्रों में फिल्म उच्च स्तरीय है और Kim Ki-duk की इस बेहतरीन फिल्म को देखना एक भिन्न और ऊँचे स्तर के एक ऐसे सिनेमा से रुबरु होना है जो बेहद रोचक है और एक ताजगी का अहसास दर्शक तक लाता है।
…[राकेश]
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