देव आनंद अभिनीत राज खोसला दवारा निर्देशित बम्बई का बाबू फिल्म की कहानी में राजिंदर बेदी और एम.आर कामथ ने O Henry की कहानी A Double Dyed Deceiver से प्रेरित प्रसंगों को रखा और इसमें इनसेस्ट के कोण का मिश्रण करके हिंदी सिनेमा के लिए इसे एक बिल्कुल भिन्न फिल्म बना दिया जिसके कथानक की बराबारी न तो इससे पहले बनने वाली हिंदी फ़िल्में कर सकती हैं न बाद में बनने वाली| सत्तर के दशक में जब बी.आर.चोपडा के सुपुत्र रवि चोपडा ने निर्देशन की कमान संभाली तो उन्होंने बम्बई का बाबू के कथानक को कम तनाव उत्पन्न करने वाला बनाकर अमिताभ और सायरा बानो को लेकर जमीर फिल्म का निर्माण किया|
भाई बहन के आदर्श रूप पर जाएँ तो सतह पर फिल्म में इनसेस्ट का पुट है लेकिन यह फिल्म का मकसद नहीं कि हॉलीवुड की फिल्मों The Cement Garden और Desire Under the Elms की भांति इनसेस्ट को खंगालें, बल्कि यहाँ फिल्म नायक नायिका के मध्य एक गलतफहमी, जिसे नायक तो जानता है अतः उसके दिमाग में सब कुछ स्पष्ट है, परन्तु नायिका सच से अनभिज्ञ है अतः तनावग्रस्त है, के कारण उपजी तनावग्रस्त स्थितियों में उनके मानसिक संघर्षों को दर्शाने का लक्ष्य लेकर चलती है|
ऐसा मानसिक द्वंद पहले एल.वी प्रसाद की राजकपूर और मीना कुमारी अभिनीत फिल्म – शारदा में दिखाई दिया था पर वहाँ आधुनिकता का अभाव था| बम्बई का बाबू एक अलग ही राह लेकर चलती है और दर्शकों के दिमाग को मथती हुयी आखिर के 10-15 मिनटों में तो दर्शक को एक तनाव के एक तीव्र आवेग से भर देती है जहां दर्शक फिल्म का ही सक्रिय हिस्सा बनकर नायक नायिका के साथ क्या होगा इसकी चिंता से भर जाता है|
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी इसका एक बेहतरीन पहलू है| फिल्म के शुरुआत में जैसे ही बाबू (देव आनंद) जेल से बाहर आकर बाली (जगदीश राज) के साथ कार में बैठता है, कैमरा दर्शक को एक रोमांचकारी यात्रा पर ले जाता है और दर्शक को ऐसा प्रतीत होता है वह भी बाबू और बाली के साथ उस कार में ही बैठ गया है और कार के सीमित स्पेस से ही वह बाहर की दुनिया को देख रहा है| |
कलाकारों और फिल्म निर्माण से जुडी टीम के अन्य सदस्यों के नाम परदे पर कार की विंड स्क्रीन के ऊपर और नीचे उभरते रहते हैं और विंड स्क्रीन के जरिये दर्शक को बम्बई की चौड़ी सड़कों और ऊँची इमारतों को कैमरा दिखाता रहता है|
एक बेसमेंट में पहुँच कर जबकि ऐसा लगने लगता है कि अब सारे अपराधी किस्म के तत्व मौज मस्ती में मशगूल हैं सो शायद एक क्लब जैसा गीत यहाँ उभरेगा, अचानक ही स्थितियां करवट लेती हैं और हंगामे को सहन करने के जब दर्शक को साँस लेने की फुर्सत मिलती है तब बाबू पुलिस से बचने के लिए भाग रहा है, उस पर एक ह्त्या करने का आरोप लग चुका है|
परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि पुलिस से बचते बचाते वह एक ऐसे पहाड़ी गाँव में पहुँच जाता है जहां एक भगत (Rashid Khan) नाक का शातिर उसकी सच्चाई भांप कर उसे अपने जाल में फंसा लेता है और उसे ब्लैकमेल करके उसे अपनी योजना का हिस्सा बनाकर गाँव के मुखिया शाह जी (Najir Hussain) और उनकी अंधी हो चुकी पत्नी रुक्मणि (Achala Sachdev) का खोया हुआ बेटा- कुंदन, बनाकर गाँव में भेज देता है| कुंदन जब 5 साल का था तब गायब हो गया था और अब 20 साल बाद वह वापिस आया है| कुंदन (देव आनंद) के कहानी गढ़कर सब गाँव वालों को सुना देता है और उन्हें विश्वास दिला देता है कि वही कुंदन है| कुंदन का प्रयोजन धनवान शाह जी की तिजोरी से रुपया और जेवरात आदि चुराकर वहाँ से चले जाना है| पर नियति को अभी कुछ और भी उसके जीवन में लाना है!
कुंदन के दिमाग में सिर्फ शाह जी की धन-संपत्ति पर हाथ साफ़ करने की बात है पर उसके विचारों को झटका लगता है जब वह शाह जी की बेटी माया (Suchitra Sen) से मिलता है जो बीस साल बाद अपने भाई को देखकर अति प्रसन्न है|
अब शाह दंपत्ति और माया के लिए तो कुंदन माया का सगा भाई है लेकिन सच तो बाबू को पता है कि वह कुंदन नहीं है और इसीलिये वह अपने अंदर माया के प्रति उत्पन्न प्रेम के भावों को रोक नहीं पाता|
उसके मन के अंदर संघर्ष चलने लगते हैं| माया तो उसके साथ जंगल पहाड़ों में मुक्त रूप से यह सोचकर विचरण करती है कि वह उसका भाई है, जिसकी कमी उसे बचपन से खलती राही है और कुंदन माया की शारीरिक सुंदरता को और उसकी नजदीकी को और ही निगाहों से देखता है और महसूस करता है और उसका स्पर्श वह एक प्रेमी की तरह ही करता है| इससे पूर्व हिंदी फिल्मों में कैमरे ने नायक को नायिका के शारीरिक सौंदर्य को इस तरह निहारते और महसूस करते कभी नहीं दिखाया था और उस जमाने के प्रचलन के लिहाज से यह एक बोल्ड कदम था|
स्त्री पुरुष के देखने और उसके दवारा स्पर्श किये जाने के अंतर को पहचानने में कभी कभी ही भूल कर सकती है अन्यथा वह तुरंत पहचान लेती है कि उसे देखने वाली निगाहें कैसे हैं और उसे किया गया स्पर्श किन भावों से भरा हुआ है| कुंदन की निगाहें और उसके स्पर्श उसे अजीब लगते हैं लेकिन वह नजरंदाज करती है इन संदेहों को|
घर पर भी कुंदन माया के संग वे सब हरकतें करता है जो एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ करता है और यहाँ तक कि माया दवारा उसे राखी बांधे जाने के प्रयास को भी वह विफल कर देता है, और माया पर दबाव डालता है कि वह उसे भईया न कह कर उसका नाम लेकर उसे संबोधित किया करे| ऐसा नहीं कि वह अंदर से बदल नहीं रहा| माया के प्रति प्रेम, और वृद्ध शाह दंपत्ति दवारा उसे निश्छल प्रेम दिए जाने और उस पर अति विश्वास किये जाने से वह वही बाबू नहीं बचता जिसे भगत ने कुंदन बना कर एक योजना के तहत गाँव में भेजा था|
माया के प्रति उसकी दीवानगी बढ़ती जाती है और शाह जी दवारा उससे माया के विवाह की बात किये जाना उसके सब्र का प्याला छलका देता है| उसके अंतर्द्वंद की तीव्रता तब और बढ़ जाती है जब उसे पता लगता है कि असली कुंदन की मौत उसी के हाथों बम्बई में हुयी थी!
वह बहुत गहरे मानसिक संघर्षों में उलझ जाता है जिससे उसे अपना अस्तित्व ही हिलता हुआ दिखाई देता है|
क्या वह माया और उसके वृद्ध माता-पिता को सच्चाई बताएगा कि वह कुंदन नहीं बल्कि उसका हत्यारा है?
क्या माया से एक प्रेमी की तरह प्रेम करने की खातिर वह माया का विवाह कहीं और होने से रोकेगा?
वह क्या करेगा?
और सच्चाई खुल कर बताने से माया उसे प्रेमी के रूप में स्वीकारेगी? खासकर इस सच्चाई को जानने के बाद कि वही उसके खोये हुए भाई का हत्यारा है?
आजकल जिस तरह की बंदिशें, नैतिकता के नाम पर फ़िल्मी दुनिया पर समाज के स्वयंभू ठेकेदारों ने लाद दी हैं उससे यह संभव नहीं लगता कि आजऐसी बोल्ड थीम पर फिल्म बने तो उसे सेंसर का प्रमाणपत्र लेने दिया जायेगा या अगर मिल भी जाए तो उसे थियेटर में आसानी से चलने दिया जायेगा|
पचास और साठ के दशक के सुपर स्टार देव आनंद ने उन दशकों में फिल्म के कथानकों के हिसाब से कई मर्तबा नई परिपाटी पर चलने का साहस दिखाया था और यही उनकी फिल्मोग्राफी को अपने से ज्यादा समर्थ अभिनेता दिलीप कुमार के समक्ष मुकाबले में ला खड़ा करता है| नैतिकता और प्रेम के बेच संघर्ष में मानसिक द्वंदों से जूझ रहे इंसान के चरित्र को बहुत प्रभावी ढंग से देव आनंद ने परदे पर साकार कर दिया है| बम्बई का बाबू में अपराध, सजा और पश्चाताप के मकडजाल में फंसे बाबू/कुंदन के चरित्र में देव आनंद ने वह सब कुछ फिल्म को समर्पित किया है जो इस जटिल चरित्र को परदे पर साकार करने के लिए आवश्यक था|
सुचित्रा सेन ने बहुत कम हिंदी फ़िल्में कीं पर जब भी कीं वे उन्हें एक महान अभिनेत्री ठहराने का सुबूत ही बन कर उभरीं| हिंदी फिल्मों में उनकी उपस्थिति से हिंदी फिल्मों का इतिहास ही समृद्ध हुआ| सुचित्रा सेन ने परदे पर अपने किरदार में वह दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है जिस पर कि यह विश्वास सहज ही हो जाता है कि बाबू/कुंदन इस स्त्री के लिए सामाजिक परिभाषाओं को आसानी से चुनौती दे सकता है|
राजिंदर बेदी ने देव आनंद और सुचित्रा सेन के मध्य ऐसे दृश्य और ऐसे संवाद रचे हैं कि वे फिल्म की रीढ़ बन जाते हैं| एक उदाहरण –
जंगल में माया के साथ विचरते हुए कुन्दन फूल तोड़कर माया के बालों में लगा देता है| माया चौंक जाती है और ठिठक कर दूर होकर शिकायत करती है,”तुम कैसे अपनी बहन के बालों में फूल लगा सकते हो?”
कुंदन- पर तुम एक स्त्री भी तो हो और स्त्री का सौंदर्य बालों में फूल लगाकर और बढ़ जाता है|
क्रोधित माया- स्त्री और बहन में अंतर नहीं होता?
जाल मिस्त्री का कैमरा प्रकाश और छाया के साथ बहुत से प्रयोग करता है और वातावरण के विभिन्न भावों को प्रस्तुत करता है| भगत के किरदार का असर बढाने के लिए उसे हमेशा ही बादलों जैसे वातावरण के पीछे छिपाकर प्रस्तुत किया गया है|
फिल्म के संगीत की तो बात क्या की जाए, मजरूह सुल्तानपुरी ने गजब गीत लिखे और सचिन देब बर्मन ने ऐसी धुनें बनाई हैं जो पचास साल भी ताजगी की एहसास फिजां में घोल देती हैं| यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में सबसे अच्छे कुछ कोरस गीतों में बम्बई का बाबू के दो गीत शामिल हैं| मुकेश, मुहम्मद रफ़ी और आशा भोसले को उल्लेखनीय गीत मिले और उन्होंने महान प्रस्तुतियाँ दीं|
राज खोसला ने ऐसी शानदार फिल्म बनाई कि इस गैर-सामान्य कथानक और सिनेमाई ट्रीटमेंट फिल्म के चाहने वाले इसे बार बार देखना पसंद करते हैं और जो एक बार भी देख ले इसका मुरीद बन कर रह जाता है|
…[राकेश]
Leave a Reply