Sanya Malhotra is struggling to mourn the death of her husband in Netflix's  Pagglait trailer : Bollywood News - Bollywood Hungama

फ़िल्म “राम प्रसाद की तेहरवीं” के ढांचें में फ़िल्म “क्वीन” की रानी (कंगना रनौत) को रख दें तो “पगलेट” और इसकी नायिका संध्या (सान्या मल्होत्रा) की बुनियाद दिखाई देने लगेगी| फ़िल्म है तो एक युवा व्यक्ति – आस्तिक, की मृत्यु उपरान्त से उसकी तेहरवीं तक की कहानी लेकिन फ़िल्म में आस्तिक के प्रौढ़ माता-पिता के अलावा किसी को भी आस्तिक की मृत्यु का प्रत्यक्ष दुःख नहीं है| आस्तिक की पत्नी संध्या (सान्या मल्होत्रा) को तीन माह पूर्व हुए अपने विवाह से अब आस्तिक की मृत्यु तक आस्तिक से किसी किस्म का लगाव नहीं हुआ था, ऐसा ही आस्तिक के साथ भी रहा होगा| सान्या को उसकी मृत्यु से कुछ भी फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता| वह बड़े आराम से फेसबुक पर आस्तिक की मृत्यु की पोस्ट के नीचे यह देखती है कि कितने लाइक्स किये गए हैं| उसके माता-पिता आते हैं तो वह रोने की कोशिश करती अपने मां को रोकती है,” और कितना रोओगी मां?”

चाय के लिए पूछने आई अपनी सास को वह कहती है,” हम चाय नहीं पियेंगे, परचून की दूकान से एक पेप्सी मंगवा दीजिये”|

कुल मिलाकर अभी तक संध्या जैसे चरित्र  के लिए गाँव देहात में रबल्ली नामक शब्द का उपयोग किया जाता है, पगलेट, इससे थोड़ा ऊपर की श्रेणी का शब्द है| मोटी बुद्धि और कम बुद्धि वाले पुरुष या स्त्री के लिए भी रबल्ले या रबल्ली शब्द का उपयोग किया जाता है| इसी बुनियाद पर “क्वीन” की नायिका रानी का चरित्र भी गढ़ा गया था|

आस्तिक की मां उषा गिरी (शीबा चड्ढा) और पिता, शिवेंद्र गिरी (आशुतोष राणा) के चरित्रों के दुःख के सिवा बाकी सब चरित्रों के माध्यम से “पगलेट” को एक हास्य फ़िल्म बनाया है और जिसे शायद कुछ सामाजिक रीति रिवाजों में पनप गयी बुराइयों पर कटाक्ष करने के लिए व्यंग्य की धार दी गई है| फ़िल्म में शीघ्र ही दो उपकथायें चलने लगती हैं, एक तो आस्तिक की मृत्यु से दुखी उसके माता पिता पर आ गयी परेशानियों और आस्तिक के क्रियाकर्म से सम्बंधित बातें हैं और दूसरी संध्या की उपकथा है|

विवाह के बाद शायद संध्या की कोई भी विशेष दिनचर्या नहीं थी| आस्तिक संग उसका सम्बन्ध गहराई पा नहीं पाया था और अपना उसका कोई रुझान जीवन के किसी क्षेत्र में दिखाई नहीं देता| अगर तीन बेटियों वाले उसके माता पिता ने आस्तिक जैसा पढ़ा लिखा अच्छी नौकरी करने वाला युवा उसके लिए पसंद करके उसका विवाह करा दिया तो इसमें कुछ समस्या दिखाई नहीं देती| संध्या के जीवन में दो बड़े परिवर्तन आते हैं|

(१) आस्तिक की अलमारी में रखे महत्वपूर्ण कागजों में उसे एक एक युवती की तसवीर मिलती है जो जाहिर है आस्तिक संग प्रेम में रही होगी| तसवीर के पीछे लिखी पंक्ति और दो दिलों की आकृति बनाए जाने से सब स्पष्ट ही है| यह घटना संध्या के अहम् पर जबरदस्त आघात करती है| उसे आस्तिक विलेन जैसा लगने लगता है| उसे एहसास होता है कि इस युवती संग प्रेम होने के कारण ही आस्तिक ने कभी भी उस पर ध्यान नहीं दिया|

किसी और युवती की तसवीर मृत पति की अलमारी में मिलने से घायल संध्या आस्तिक की दादी के पास जाकर अपना गम गलत करती है और तसवीर वाली लडकी को साधारण बल्कि कुछ बदसूरत और कम पढी लिखी लडकी घोषित करके स्वयं को दिलासा देने का प्रयास करती है|

आग में घी पड़ता है जब आस्तिक के ऑफिस से उसके संगी साथी संध्या और आस्तिक के माता पिता के पास शोक प्रकट करने आते हैं और उनमें संध्या उस युवती- आकांक्षा (सयानी गुप्ता) से भी मिलती है जिसकी तसवीर उसे आस्तिक की अलमारी में मिली है|

चोट खाई संध्या, सयानी को अपने कमरे में ले जाकर उसे वह तसवीर दिखाती है और उस पर आरोप लगाती है कि उसकी कारण आस्तिक ने कभी उससे प्रेम नहीं किया| सयानी से उसे पहली बार पता चलता है कि आस्तिक का पसंदीदा रंग नीला था, जबकि उसने आस्तिक को भूरे और पीले रंग की कमीज लाकर दी थी जो आस्तिक ने कभी नहीं पहनी| यह आश्चर्य की बात ही है कि विवाह के तीन माह में संध्या को आस्तिक का पसंदीदा रंग तक पता नहीं चला जबकि आस्तिक की अलमारी में सिर्फ नीले रंग के ही विभिन्न शेड्स के कपडे भरे पड़े हैं| पर संध्या शायद अभी अपनी ससुराल में ठीक से व्यवस्थित भी नहीं हो पाई थी|

यूँ वह अपने देवर को अंगरेजी पढ़ती रही है|

बहरहाल, आस्तिक का पसंदीदा रंग और उसके स्वभाव और पसंद और नापसंद के बारे में सयानी से जानकार उसकी दिलचस्पी आस्तिक में बढ़ती है, जो कि अब मर चुका है| सयानी के साथ बाहर घूमने फिरने में उसे आनंद आने लगता है, बहाना है आस्तिक के बारे में जानने का और हर उस जगह जाने का जहां आस्तिक और आकांक्षा जाते रहे होंगे|

दूसरी चोट उसे लगती है सयानी के विलासिता पूर्ण आधुनिक घर जाकर जहां झोंक में आकांक्षा अपनी रसोई में रखे आस्तिक की पसंदीदा चाय के पैकेट बारे में कह जाती है,” आई हेट इट”|

संध्या के मन में शक गहरा जाता है कि आस्तिक यहाँ आकांक्षा के साथ रहता था, तभी उसने कभी संध्या के नजदीक आने का प्रयास नहीं किया|

विधवा बनने का संध्या के मन मस्तिष्क पर कोई प्रभाव नहीं पडा था लेकिन आकांक्षा और आस्तिक के विवाह पूर्व प्रेम सम्बन्ध ने उसके अस्तित्व को हिला कर रख दिया है|

(२) संध्या के जीवन की दूसरी बड़ी घटना है, आस्तिक द्वारा कराया गया ५० लाख रुपयों का बीमा जिसमें वह संध्या को अपना नॉमिनी बना गया था| बीमा एजेंट घर आकर बीमा क्लेम के कागजों पर संध्या के हस्ताक्षर ले जाता है|

इस घटना से परिवार में बड़े परिवर्तन हो जाते हैं| आस्तिक ने अपने पिता को समय पूर्व ही स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण करवा कर उन्हें मिले प्रोविडेंट फंड के सारे पैसे मिलाकर और बैंक से लोन लेकर एक मकान खरीदा था| अब लोन की किस्तों का भार भी आस्तिक के पिता के ऊपर आ गया था जिनके पास अब कोई नौकरी नहीं है|

संध्या को मिलने वाले पचास लाख रुपयों के लालच में संध्या की मां, जो अभी तक अपने पति को इस बात पर झिड़क चुकी थी कि उन्होंने संध्या को वापिस अपने मायके चलने के लिए पूछने को क्यों कह दिया, जबकि घर में दो विवाह योग्य बेटियाँ और हैं, को संध्या का भविष्य उसके मायके में ही नज़र आने लगता है|

आस्तिक के चाचा और चाची और उनका बेरोजगार बेटा अब संध्या के पुनर्विवाह के लिए सक्रिय हो जाते हैं| उनका बेटा रेस्टोरेंट खोलना चाहता है और संध्या को मिलने वाले पचास लाख के कारण उसे लोन नहीं लेना पडेगा| वे आस्तिक के माता-पिता को आधा धन यानी २५ लाख रूपये देने को भी तैयार हो जाते हैं| गाँव अभी बसा नहीं है लेकिन वहां क्या कैसे होगा उसके लिए योजना आयोग इन लोगों ने पहले ही बैठा दिया है|

जिस आस्तिक को संध्या ने कभी कायदे से जाना ही नहीं, उसे जब आकांक्षा से जोड़ कर वह देखती है तो उसे जानने समझने के अलावा वह अपनी स्वयं की खोज में भी निकल पड़ती है| आस्तिक की अचानक मौत से अपने ससुर के कन्धों पर आन पड़े बोझ पर भी उसकी निगाह जाती है| आस्तिक के चाचा चाची और उनके बेटे और अपनी मां के लालच को देख उसकी समझ दुनियादारी के बारे में बढ़ती है| आस्तिक के छोटे भाई द्वारा अपने प्रति प्रेम के प्रदर्शन से भी सीखती है कि उसे क्या चाहिए|

आस्तिक की तेहरवीं तक उसकी अंदुरनी खोज पूरी हो जाती है और अपने अंतर्द्वंद को सुलझाकर वह कुछ परिणामों पर पहुँच जाती है और वह करती है जो उसकी लिए अच्छा है, आस्तिक के माता-पिता के लिए अच्छा है|

जिस आस्तिक संग उसका वैवाहिक गठबंधन शुरू भी नहीं हो पाया था, उस आस्तिक के नीले रंग को अपना मनपसंद रंग बना कर वह आस्तिक की जिम्मेदारियां ओढ़कर बाहर की दुनिया में अपनी  पहचान बनाने चली जाती है|

आस्तिक की तेहरवीं के दिन जब संध्या के वैधव्य पर दुनियावी मुहर लग जाती है, वह सही मायने में आस्तिक की धर्मपत्नी होने का चोला ओढ़ लेती है| आकांक्षा को उसके द्वारा आस्तिक को भेंट की गई तसवीर लौटाकर संध्या सब कुछ जैसा था जैसा है उसी आधार पर स्वीकार करके आगे की यात्रा पर चली जाती है|   

राम प्रसाद की तेहरवीं” वाली हवेली में ही स्थित “पगलेट” उसके सामने काफ़ी फ़िल्मी किस्म की फ़िल्म है| कर्मकांडों पर कटाक्ष टशन वाले लगते हैं| लखनऊ के मोहल्ले में रह रहे आस्तिक के परिवार में संध्या की मुस्लिम सहेली के लिए अलग से चाय का कप आयेगा यह आस्तिक के माता -पिता के स्वभाव से मेल खाता नहीं दिखाई देता| आस्तिक के ताऊ (रघुबीर यादव) को नाजिया बाहरी लगती है और वह परोक्ष रूप से उससे छुआछूत बरतते हैं|

आस्तिक के छोटे भाई को कोई अंतर नहीं पड़ता कि उसके पढ़े लिखे, भली भाँती व्यवस्थित अग्रज की अनायास मृत्यु हुयी है| वे सिर्फ दो भाई हैं तब भी वह इस घटना से अछूता ही रहता है| तेरह दिन परहेज करने में उसे समस्या है| आस्तिक का ताऊ, शाम होते ही छत पर शराब के गिलास में अपना गम गलत करने लगता है| बाकी रिश्तेदार भी बस दिखावे के लिए मातम मनाने आये हैं| नवीन दसवीं में पढने वाले दूर के रिश्तेदार भाई बहन शारीरिक प्रेम की सीढियां चढ़ने में व्यस्त हैं| आस्तिक की बुआ और चाची को संध्या को बीमा राशि मिलने की बात सुनने पर “डॉली की डोली” याद आ जाती है मानों संध्या ने आस्तिक की बीमा राशि पर डाका डाला हो और आस्तिक की मां को भी इस तुलना पर हंसी आती है| जिसका युवा पुत्र मरा हो और जिनके सामने आर्थिक समस्याएं सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ी हों, उसे ऐसे फाल्त्तो के चुटकले पर हंसी आयेगी?

हास्य, व्यंग्य और कटाक्ष अपनाने के जबरदस्ती के प्रयासों ने फ़िल्म को थोड़ा हल्का बना दिया है| सान्या मल्होत्रा, आशुतोष राणा और रघुबीर यादव अपने बेहतरीन अभिनय के बलबूते फ़िल्म के हलकेपन को बहुत हद तक संभालते हैं और दर्शक को जोड़े रखते हैं|

राम प्रसाद की तेहरवीं” की तर्ज पर बनी “पगलेट” उसकी तरह संजीदा फ़िल्म नहीं है, और शायद उससे अलग ट्रीटमेंट देने के प्रयास में ही ये सब टोटके इसमें भरे गए हों| जगह जगह इसमें गीत बजते हैं लेकिन फ़िल्म के समाप्त होने पर किसी भी गीत की एक भी पंक्ति स्मृति में जगह नहीं बना पाती| “राम प्रसाद की तेहरवीं” में राम प्रसाद कहते हैं कि कुछ सुर अलग गलत लग जाएँ तो लय बिगड़ जाती है और अगर अपना सुर पहचान ले व्यक्ति तो सब लयमय हो जाता है|

पगलेट” में कुछ सुरों में गड़बड़ है|