
सीमा भार्गव (अब पाहवा) ने “बड़की” के चरित्र में जिस क्रांतिकारी धारावाहिक “हम लोग” में काम किया, उसके पीछे भारत के हिन्दी के एक बहुत बड़े लेखक मनोहर श्याम जोशी की विद्वता, समाज शास्त्र और विशेषकर भारतीय समाज की विशद जानकारी और भारतीय जनमानस के मनोविज्ञान की गहरी समझ उपस्थित थी और वह लगभग समूचे भारत को अपनी आँखों देखा, और भुगता कथानक लगता था| “हम लोग” जोड़ता जाता था लोगों को, जीवन और समाज के प्रति गहरी समझ देकर| वह घर गृहस्थी में उलझे लोगों के जीवन की परतों को उघेड उघेड कर दर्शकों के सामने रख देता था और उसमें जीवन के तमाम रस उपस्थित थे|
हिन्दी के ही एक अन्य सुप्रसिद्ध लेखक एवं कवि भगवती चरण वर्मा की एक लघु कथा है – वसीयत, जो एक प्रोफ़ेसर के देहांत के बाद उसके परिवार वालों का कच्चा चिट्ठा पाठकों के समक्ष रख देती है और सिद्ध करती है कि पत्नी, बेटे, बेटियों, भतीजे आदि नाते रिश्तेदारों को प्रोफ़ेसर के धन से ही मतलब था और किसी का भी उनसे दिल का रिश्ता नहीं था| अपनी पत्नी, अपने बेटो एवं बेटियों और अन्य रिश्तेदारों से ज्यादा प्रोफ़ेसर अपने शिष्य जैसे सहयोगी को अपना नजदीकी मानकर, वसीयत को लागू करने और सबको पढ़ कर सुनाने की जिम्मेदारी सौंप कर धरा से कूच कर जाता है| बाद में व्यंग्य के माध्यम से वसीयत के चंद पन्नों के माध्यम से लिखी उसकी बातें उसके सगे सम्बन्धियों की पोल खोलती रहती हैं|
“हम लोग” और “वसीयत” के वंश की रचना ही सीमा पाहवा के निर्देशन में बनी उनकी पहली फ़िल्म – राम प्रसाद की तेहरवीं, को माना जा सकता है| उनकी फ़िल्म पहले रिश्तों के ऊपर झूठ से जमाई गई परत को हटाती है और चरित्रों को उनके नग्न रूप में दिखाती है और इसी टूटन में जुड़ना भी दिखाती है| शायद यही भारतीय परिवार की सच्चाई, विडंबना और ताकत तीनों एक साथ ही है|
दुःख नितांत निजी घटना या दुर्घटना है और कहा भले ही जाता हो कि बांटने से यह घटता है पर इस कथन में कितना सच है, इस बात की सच्चाई जांचने और नापने योग्य मसला है| शायद दुःख के बारे में कह कह कर उसका असर कम होता जाता हो पर अन्य उस दुःख से किसी किस्म का कोई सम्बन्ध जोड़ पाते हैं यह संदेह से परे की बात नहीं|
यूँ तो सुख भी और अन्य भाव भी मनुष्य के निजी ही भाव होते हैं| सुख में आदमी दूसरों को दावतें देता है तो शायद इसी अपेक्षा में कि उसके साथ सुख बांटने वाले लोग उससे विकट इर्ष्या तो नहीं ही करेंगे| इर्ष्या करेंगे पर उसमें उसका गलत हो ऐसी अंधेरी इच्छा का समावेश उसमें नहीं होगा|
परिवार में एक व्यक्ति की मृत्यु का असर परिवार के अलग अलग सदस्यों पर अलग अलग ही होता है| अगर सब वयस्क हैं और विवाह उपरान्त अपने अपने परिवारों में मगन हैं तब तो यह बात शत प्रतिशत सत्य ही होती है|
राम प्रसाद भार्गव (नसीरुद्दीन शाह) लखनऊ में अपनी पत्नी (सुप्रिया पाठक) के साथ हवेली नुमा घर में रहते हैं| संगीत ही उनकी पहली पसंद है| उनकी पत्नी इतने बड़े घर की जिम्मेदारी निभाने से परेशान रहती है| और शुरू के दो तीन मिनट के समय में ही राम प्रसाद का देहांत हो जाता है| बुढापे में पति की बीमारी, कम आमदनी और ज्यादा जिम्मेदारी के बोझ से परेशान पत्नी को अब अकेला पड़ जाने का एहसास सताने लगता है और यह एहसास और गहरा होता जाता है बेटों और बेटियों, दामादों और उनके परिवारों और अन्य रिश्तेदारों के आने और उनके क्रियाकलापों को देखने के बाद| बरसों में बेटों और बेटियों से उसका दिल का नाता लगभग छूट चुका है और दिल का रिश्ता सिर्फ सबसे छोटे बेटे निशांत (Parambrata Chattopadhyay) संग ही है| निर्देशक सीमा पाहवा ने बड़े बारीक ढंग से अन्य बेटों एवं बेटियों संग मां के रिश्ते और निशांत संग गहरे रिश्ते के अंतर को दर्शाया है| निशांत मुंबई से देरी से लखनऊ पहुंचता है और बेटों, बेटियों और रिश्तेदारों और परिचितों की भीड़ में घिरी मां (सुप्रिया पाठक) जब निगाह उठाकर उसे देखती है तो उस दृष्टि में ऐसा ही है जैसे निरीह गाए अपने रक्षक को ताकती हो| मां बेटे की आँखों में संवाद का आदान प्रदान होता है| राम प्रसाद के देहांत का सच्चा दुःख इन्हीं दो को है, बाकियों के लिए यह एक घटना है जिसका तात्कालिक असर उनके जीवन पर पडा है और क्रियाकर्म निबट जाने के बाद घर जाने तक रह सकता है|
अपनी अपनी परेशानियों में घिरे तीन बड़े बेटों और दो बेटियों के ऊपर गाज गिरती है दो सच्चाई जानकार कि राम प्रसाद ने बैंक से दस लाख का कर्ज लिया हुआ था जिसमें से सिर्फ तीन लाख ही वापिस हो पाए थे| बाकी के सात लाख और ब्याज के एक लाख देने के विचार ने ही उनके जीवन में उथल पुथल मचा दी है| बेटों और उनकी पत्नियों को एक अन्य प्रश्न ने परेशान किया हुआ है कि अम्मा किसके साथ रहेंगी| इतने बड़े घर में अकेली तो रह नहीं पाएंगी|
बेटों के बच्चों का तो कोई लगाव अपने दादा दादी संग था नहीं सो उनके ऊपर दादा की मृत्यु का कोई असर नहीं है| बहुओं का भी दिली लगाव तो था नहीं अपने सास ससुर के प्रति सो उनके लिए यह भे बस हंसी ठठ्ठा करने और संयुक्त परिवार की एक दूसरे के साथ खेली गई चालों में व्यस्त रहने का अवसर मात्र है| सब मानों एक दूसरे से अभिनय ही करते रहते हैं|
जीवन बड़ा विरोधाभासी होता है| पैसे के प्रति मोह पाल बैठे और अपनी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के नाम वृद्ध माता पिता से मुंह मोड़ बैठे तीनों बड़े बेटे अंत में अम्मा द्वारा उन्हें अपने निजी दुःख में सम्मिलित ना करने और उनमें से किसी के साथ ना रहने का संकेत देने से शायद सच्चाई को देख पाते हैं और अब उन्हें मां से अपने लगाव का एहसास तब होता है जब वे घर की दहलीज से बाहर आ जाते हैं|
जिस सबसे छोटी बहु सीमा (कोंकणा सेन शर्मा) के प्रति अम्मा को लगता रहा है कि वह उन्हें शायद पसंद नहीं करती, वही विदाई के समय उनसे सबसे सच्चे रूप में मिलती है और एक प्रकार से उनके साथ खड़े होने का आश्वासन देती है| सबसे छोटा बेटा निशांत तो है ही उनके साथ आगे भी बने रहने के लिए|
भावुक क्षणों से भरी फ़िल्म में पारिवारिक आडम्बरों पर व्यंग्य की इतनी उपस्थिति है और चरित्रों की ऐसे दख के मौके पर भी इतनी आपसी नोंक झोंक है कि फ़िल्म दर्शक को बरबस ही मुस्कराने और हंसने पर विवश कर देती है|
राम प्रसाद के साले के सनकी चरित्र में विनीत कुमार कमाल करते हैं| मनोज पाहवा, निनाद कामत, विनय पाठक, तीन बड़े बेटों के चरित्रों में ऐसे खप गए हैं मानों असली भाई हों|
राम प्रसाद के बड़े भाई के रूप में क्रिकेट और विंटेज कार के शौक़ीन राजेन्द्र गुप्ता और उनकी अन्य चरित्रों, विशेषकर अपनी बड़ी बहन से नौक झोंक काबिले तारीफ़ है| अपने ही बेटे के लिए कहना कि “नो नो कार इज माईन, ही इज़ जस्ट ए ड्राईवर” की टाइमिंग हास्य उत्पन्न करने की कला को दर्शाती है| बृजेन्द्र काला भी इसी परिवार का हिस्सा लगते हैं|
दशकों पहले एस एस वासन के निर्देशन में पृथ्वीराज कपूर अभिनीत एक पारिवारिक फ़िल्म बनी थी, तीन बहुरानियाँ, और उसके कुछ बरस बाद हृषिकेश मुकर्जी ने बावर्ची ( https://cinemanthan.com/2015/11/21/bawarchi1972/ ) में एक संयुक्त परिवार में दो बहुओं के आपसी संबंधों को मनोरंजक तरीके से दिखाया था| बावर्ची के बाद सीमा पाहवा ने ही संयुक्त परिवार को इतने मजेदार तरीके से प्रस्तुत किया है और बहुओं के चरित्रों को दीपिका अमीन, दिव्या जगदाले और सादिया सिद्दीकी ने बेहतरीन ढंग से निभाया है|
फ़िल्म में सबसे ज्यादा कमी खलती है फ़िल्म में उपस्थित इसके सबसे बड़े कलाकार नसीरुद्दीन शाह की| उनकी संक्षिप्त सी भूमिका दर्शक को प्यासा छोडती रहती है| एक दो दृश्यों में उनकी प्रभावशाली उपस्थिति यही दर्शाती है कि अगर वे और लम्बे समय तक फ़िल्म में होते तो फ़िल्म कितनी उंचाई को छु पाती या यही कहानी अगर ऐसी होती कि पत्नी के देहांत के बाद अकेले बचे पति के माध्यम से घटनाएं आगे बढ़तीं तो वे क्या जादू परदे पर बिखेर देते| फ़िल्म अभी भी बहुत अच्छी है पर नसीरुद्दीन शाह की ऐसे कथानक में मौजूदगी क्या न कर देती|
सीमा पाहवा ने एक संजीदा और मनोरंजक फ़िल्म बनाकर अपनी निर्देशकीय पारी की शुरुआत की है| जहां पहली ही फ़िल्म बनाने वाले निर्देशक फ़िल्म के शुरू या अंत में “A Film By” लिखा दिखा कर अपनी फ़िल्म प्रस्तुत करते हैं सीमा पाहवा बेहद सलीके भरे सौम्य तरीके से फ़िल्म बनाने में उनके साथ जुड़े सभी अभिनेताओं और तकनीशियनों को धन्यवाद देकर अपनी पहली फ़िल्म के बनाने के लिए उन सभी का आभार प्रकट करती हैं| यह भी इस फ़िल्म की एक विशेषता है|
…[राकेश]
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