यह अत्यंत मीठा गीत गुलज़ार साब के कुछ ऐसे गीतों में से एक है जिसके बोल सुनकर श्रोता को यह एहसास तो होता जाता है कि बात कुछ महत्वपूर्ण कही जा रही है लेकिन इस कृपा से वह वंचित रहता है कि गीत के बोलों के अर्थ को सीधे सीधे समझ ले| शब्द सरल हैं लेकिन उनके संयोग से बनी पंक्तियों में सरलता उपस्थित नहीं है| जैसे मुखड़े को लें|
रोज़ रोज़ आँखों तले एक ही सपना चले,
रात भर काजल जले,
आँख में जिस तरह ख़्वाब का दीया जले
तले हिन्दी भाषी ग्रामीण क्षेत्रों का एक शब्द है|
गीत में सपना आँखों तले चलता है, आँखों में या इनके माध्यम से आता नहीं है| अब यह पहेली सुलझाना श्रोता का काम है कि ये सपना नींद में आने वाला सपना है या जैसा कि किसी का सपना होता है जेवण में कुछ विशेष करने का, और जिसे पूरा किये बिना दिन का चैन और रात की नींद खो जाया करती है, ये वह वाला सपना है, जो हर समय आँखों तले चलता दिखाई देता है|
श्रोता रोज़, आँखों, तले, सपना, चले इन सब शब्दों के अर्थ से भली भांति परिचित है लेकिन इनके जोड़ से जो पंक्ति गुलज़ार गढ़ते हैं उसका मर्म जानना आसान बात नहीं| इसे महसूस तो किया जा सकता है, पास के किसी अर्थ की व्याख्या अपने आप की जा सकती है पर यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि गुलज़ार साब के शब्दों का बिलकुल यही अर्थ था या है|
… रात भर काजल जले
कभी गाँवों में जो पूजा में दीया जलाया जाता था उस दीए में शेष बची कालिख से आँखों में काजल लगाया जाता था|
घी और बाती के जलने से ही काजल का जन्म होता है| फिर रात भर काजल जलने से क्या तात्पर्य है?
किसी खुमारी में रात भर नींद ना आने के अर्थ में इसे कहा जा सकता है| प्रेम में होने के शुरुआती काल में नींद पर असर पड़ता है और रातों जागकर भी इंसान अगले पूरे दिन उर्जावान बना रहता है| रात का एकांत उसे बेहद भाता है और जागकर वह कुछ नया ही संसार बुना करता है| उस संसार के सपनों में जाग कर खोया रहता है| उस दशा के लिए संभवतः गुलज़ार साब ने इस पंक्ति को रचा हो-
रात भर काजल जले
आँख में जिस तरह ख़्वाब का दीया जले !
एक ही अर्थ वाले दो शब्द सपना और ख़्वाब हैं और “सपना” शब्द की जगह “ख़्वाब” ने ले ली है| यह बोलों में लय की वजह से है या यहाँ इन दोनों शब्दों में कोई बारीक सा अंतर माना गया है? समस्या यह है कि कभी किसी विद्वान ने गुलज़ार साब से इन पहेली भरी गीतों के बारे में बात ही नहीं की, वरना शायद वे ऐसे गीतों की कीमियागिरी पर कुछ प्रकाश डालते|
आँख में ख़्वाब का दीया जलने से काजल जन्म ले सकता है|
मुखड़े का अर्थ मोटे तौर पर तो श्रोता महसूस कर लेता है पर यह दावा कर पाना असंभव न भी हो पर मुश्किल तो है ही कि यहाँ गीतकार गुलज़ार के अर्थ तक समझ की पहुँच बन पाई या नहीं|
इसका अगर अनुवाद करना पडा अंगरेजी में तो कोई विद्वान क्या शाब्दिक अर्थ करेगा? या उसकी तह में जा पायेगा और भावार्थ कर पायेगा?
जब से तुम्हारे, नाम की मिसरी, ओठ लगाई है
मीठा सा ग़म, है और मीठी सी, तन्हाई है
रोज़ रोज़ आँखों तले…
प्रेम में होने के आनंद की अनुभूति के लिए यह बेहद खूबसूरत अंतरा है| और अपने शब्दों जैसा ही सरल इसका अर्थ भी है| यह भाव वाला अंतरा है और यहाँ चित्र या छवि की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती अर्थ तक जाने के लिए|
इस पहले अंतरे का जन्म बहुत संभव है कि मीरा फ़िल्म पर काम करते समय गुलज़ार साब के मन में हुआ हो| इसमें राधा कृष्ण प्रेम से प्रेरणा की झलक भी मिलती है|
प्रेम की लगन लगने पर जिस संसार में इंसान जीने लगता है यह अंतरा उस संसार की झलक गागर में सागर वाले तरीके से देता है|
पर एक सरल अंतरे के बाद गीत पुनः दुरुहता की ओर चल पड़ता है|
छोटी सी दिल की उलझन है, ये सुलझा दो तुम
जीना तो सीखा है मर के, मरना सिखा दो तुम
रोज़ रोज़ आँखों तले…
उपरोक्त अंतरे की दूसरी पंक्ति पहेलियों में बात करती है| जीना तो सीखा है मर के, मरना सिखा दो तुम
प्रेम में होने को अहम् की मौत भी कहते हैं| कोई इंसान दूसरे पर मर मिटता है| प्रेम में होकर जीना तो सीख लिया लेकिन “ मरना सिखा दो तुम” का क्या अर्थ है यहाँ? मिलन की घड़ियों में क्यों कर ऐसी पंक्ति नायिका के मन में आयेगी?
मुखड़ा और दो अंतरे सुनने के बाद गीत में नायक के गायन का सक्रिय प्रवेश होता है|
आँखों पर कुछ ऐसे तुमने ज़ुल्फ़ गिरा दी है
बेचारे से कुछ ख़्वाबों की नींद उड़ा दी है
रोज़ रोज़ आँखों तले…
इसे श्रृंगार रस का अंतरा कह सकते हैं| लेकिन अंतरे की दूसरी पंक्ति पुनः जटिलता की ओर बढ़ जाती है| ख़्वाब तो स्वंय ही नींद के उत्पाद हैं, तो ख़्वाबों की नींद की उपमा का असली अर्थ क्या है?
जीवा का यह गीत सिर्फ श्रोताओं की पसंद के बलबूते जीवित रह पाया है| दर्शकों के लिए इसका फिल्मांकन ऐसा है नहीं कि वे इसके वीडियो के माध्यम से इसे याद रखें| राज सिप्पी से ऐसी उम्मीद नहीं रखता दर्शक कि ऐसे खूबसूरत गीत का इतना साधारण फिल्मांकन उन्होंने कर डाला|
फिल्मांकन का हाल यह है कि मुखड़े की पहली पंक्ति के समाप्त होने से पहले ही नदी या तालाब के दो सिरों पर टहल रहे नायक नायिका एक ही तरफ गलबहियां करते टहलने लगते हैं| नाम की मिसरी लगाने का अर्थ नायक नायिका के मध्य चुम्बन नहीं होता| बाद के अंतरों के फिल्मांकन में भी एक अशरीरी प्रकार के गीत को दैहिक प्रेम प्रदर्शन का गीत बना दिया है|
पंचम ने जिन खूबसूरत वाद्य यंत्रों से शुरुआती धुन बनाई है जिसके खुलते ही हजारों पक्षियों को मुक्त गगन में उड़ान भरनी थी वह खूबसूरती सिरे से गायब है|
बहुत खूबसूरत है बहुत बातें लेकिन अगर यह गीत फ़िल्म- घर, के हिस्से आया होता तो क्या बात होती| इस गीत को इसकी गुणवत्ता वाला हंगामा श्रोता और दर्शकों की तरफ से मिला होता| अगर पंचम इस गीत को कुमार गौरव की उस दौर की किसी फ़िल्म में भी रख देते तो इस जादुई गीत को सही मंच मिल जाता|
संगीत : राहुल देब बर्मन, गीतकार – गुलज़ार , गायक द्वय – आशा भोसले एवं अमित कुमार , अभिनेता द्वय – मंदाकिनी एवं संजय दत्त
गीत के वीडियो में एक अंतरा ( जीना तो सीखा है मर के….) नहीं है|
पूरा गीत
…[राकेश]
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