हिंदी सिनेमा की नदी में तैरते बहते

एक दिन “अचानक” यूँ हो जाता है

कि व्यक्ति का “परिचय

सतरंगी छटाएं बिखेरते

श्वेत-धवल “लिबास” पहने एक संजीदा कलाकार के

अनूठे रचनात्मक संसार से हो जाता है

और वहां से आगे वह

श्वेताम्बर के प्रति   

मेरे अपने” कलाकार के एहसास के साथ अपना

जुड़ाव महसूस करता जीता जाता है|

यह जुड़ाव बिना किसी “कोशिश” के

अपने आप होता है|

व्यक्ति “इजाज़त

न भी दे

लेकिन” एक बार परिचित होने के बाद

ऐसा मुमकिन नहीं

कि कलाकार की सिनेमाई रचनाओं में

जीवन के खट्टे-मीठे-कसैले और “नमकीन

अनुभवों की अभिव्यक्ति देख

व्यक्ति हर बार आश्चर्य से

न भर जाए|

जीवन का कोई “मौसम” हो

जीवन में

कितनी बड़ी “आंधी” या तूफ़ान

क्यों न आ जाए

सिनेमा के उस विशेष खंड से

व्यक्ति को इतनी समझ मिलती ही है

कि वह कठिनाइयों की आँखों में आँखें डाल

उनसे “हू तू तू” खेल ले|

और कहाँ आँखों की महकती “खुशबू

को सूंघ सकता है व्यक्ति?

ग़ालिब” के अश’आर और “मीरा” के प्रेम

के साथ “प्रेमचंद” की तहरीर को

एक ही “किताब” में

सम्मिलित करने लायक जो

असीम मेधा चाहिए

वह इस कलाकार में भरपूर मिलती है|

ये बिना “माचिस” के जिगर की आग से ही चूल्हा जलाने का सामर्थ्य रखते हैं

इनकी मधुशाला में “अंगूर” की मय की आवश्यकता नहीं

बुल्लेशाह को ला खडा कर दें तो ही सुनने वाला नशे में चूर हो जाए|

ये कला के साथ न खड़े होते तो स्व: अनुभव के बावजूद

संभवतः लोग समझ न पाते

कि जिन नैनों में आंसू भरे हों

उनमें निंदिया कैसे समा सकती है?

सिनेमा के जगत को

श्वेताम्बर ने साहित्य से समृद्ध किया है

और साहित्य को विम्बों से चित्रित करने की कला

उपहार में दी है|

कला की इस नदी में तैरते हुए

व्यक्ति कभी भी “किनारा

नहीं ढूंढता

एक ही समय आह की पीड़ा

और वाह के आनंद के मिश्रित

भावों से घिरा,

वह ढूंढता है तो बस “फुर्सत के रात दिन

ताकि वह

कला की इस “गुलज़ार” बगिया में

बार बार टहलता ही रहे|

#गुलज़ार

 

हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबू (Khamoshi 1969) : अनूठे मुखड़े से सजा प्रेमगीत ग्रंथ

Koshish (1972) : संवेदना उकेरती मौन प्रेमकथा

Angoor (1982) : विशुद्ध हास्य की मधुशाला

Ijaazat (1987) : कोहरे में जमीं और आसमां के बीच भीगती ज़िंदगी

एक सौ सोलह चाँद की रातें एक तुम्हारे काँधे का तिल (Ijaazat 1987)

Khushboo (1975) : रिश्ते में प्रेम, त्याग, इंतजार, दुख और अधिकार की मिली-जुली खुशबू

दो नैनों में (Khushboo 1975) : निर्देशक, कवि गुलज़ार की कल्पना और तकनीक के संगम का जादू

राह पे रहते हैं (Namkeen 1982) : जल गए जो धूप में तो साया हो गए

फिर से अइयो बदरा बिदेसी (नमकीन 1982) … गुलज़ार का मेघदूत

नमकीन (1982) : चौरंगी में झांकी चली

Achanak (1973) : गुलज़ार का थ्रिलर लैंड

Rebellious Gulzar : Thok de Killi (Raavan)

रांझा रांझा (Raavan 2010) : सूफी अद्वैत से फ़िल्मी द्वैत तक

धूप आने दो (2020) : “गुलज़ार एवं ‘विशाल+रेखा’ भारद्वाज” की वैदिक सूर्य स्तुति

आँधी (1975): तेरे बिना शिकवे न हों पर ज़िंदगी ज़िंदगी भी तो नहीं

मिर्ज़ा ग़ालिब (1988-89) : ‘ग़ालिब का बयान’ वाया गुलज़ार – अध्याय 1

Mirza Ghalib (1988-89): बंसीधर, ज़ौक़ और शहज़ादा ज़फ़र – ईमानदारी और चापलूसी के बीच घिरे ग़ालिब (अध्याय 2)

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Mirza Ghalib (1988-89): अव्यवहारिक एवं दुनियादारी में लापरवाह ग़ालिब धोखे और दुर्भाग्य के घेरे में (अध्याय 4)

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7 Khoon Maaf (2011) : तत्वविज्ञानी रस्किन बांड+विशाल भारद्वाज की मार्फ़त Susanna का द्रष्टान्त

रोज़ रोज़ आँखों तले [जीवा (1986)] : मिसरी सी मीठी पहेली

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